“भारतीय ज्ञान परम्परा में आध्यात्मिक
अनुसंधान अध्ययन के विहंगम परिदृश्य द्वारा आत्मिक परिवेश की पवित्र अनुभूति”
स्वयं को सदा निमित्त
, निर्माण और निर्मल स्वरूप में स्थापित करते हुए – लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक सत्ता के प्रति
– श्रद्धा , आस्था तथा मान्यता के साथ उपदेश के
अनुपालन में आज्ञाकारिता एवं धर्मगत आदेश को आत्मसात करके ईश्वरी तत्व बोध तथा निजी
अस्तित्व की स्वीकारोक्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है । जीवन में उच्चतम स्थितियों
से महानतम अवस्था की प्राप्ति धर्मगत आचरण की कर्मगत शुचिता से ही निर्धारित होती है
जिसके परिष्कार हेतु महान जीवन की स्थापना एवं पवित्र आत्मिक स्वरूप को स्थाई रूप से
साधने के लिए आध्यात्मिक परिदृश्य में उपराम स्थिति से कर्मातीत अवस्था तथा अव्यक्त स्वरूप के फलितार्थ द्वारा सुनिश्चित
होता है ।
मूल्यगत आचरण के आचार्य
की धारणात्मक श्रेष्ठता के प्रति – श्रद्धा , आस्था एवं मान्यता की नैसर्गिक पक्षधरता सदा मानव जाति को – ‘ मातृ देवो भव: , पितृ देवो भव: , आचार्य देवो भव: , सत्यं वद , एवं धर्मं चर ...’ के मार्ग पर गतिशील बने रहने के लिए प्रेरित करती है जिसमें मूल्यपरक जीवन
में व्यवहारगत सिद्धांत से मर्यादित आचरण का नैतिक संबल अंतर्मन को – ‘ चरैवेति ... चरैवेति ...’ के नैसर्गिक
व्यवहार को आत्मसात करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे आध्यात्मिक अनुसंधान
द्वारा शैक्षणिक क्रियाविधि के अंतर्गत प्रशिक्षण से आत्मिक अध्ययन का विराट अनुष्ठान
– आत्मिक अनुकरण और अनुसरण का महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है ।
श्रेष्ठतम गति
, मति और सुमति के माध्यम से आत्मिक पवित्रता के प्रकंपन को चहुं
दिशाओं अर्थात संपूर्ण आभामंडल को खुशबूदार बनाते हुए मानवतावादी चिंतन में अंतर्मन
द्वारा ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ...’ की व्यापकता
को स्वीकार करके अध्यात्मवादी चैतन्यता की भावनात्मक सृष्टि से ‘ वसुधैव कुटुंबकम ... ’ की विराट उच्चता पर आत्म तत्व
को चेतना के उच्च दर्शन से पुनर्स्थापित
किया जा सकता है । मनुष्य
जन्म की प्राप्ति के पश्चात सनातन धर्म की सभ्यता एवं संस्कृति का समग्र परिदृश्य
– ‘ बड़े भाग्य मानुष तन पावा ...’ की उच्चता के
सानिध्य में गतिशील जीवन की महानता को प्राप्त करने हेतु अव्यक्त स्वरूप में पवित्र
आचरण द्वारा उदाहरणमूर्त चेतनता के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो सर्वगुण – संपन्नता के फरिश्ता स्वरूप से साक्षात्कारमूर्त चेतनता की संपूर्णता को सदा
ही आत्मिक समृद्धि के स्वरूप में प्रकट करता रहता है । "
सात्विकता की आत्मगत
बोधगम्यता – व्यक्तित्व , कृतित्व एवं अस्तित्व के साथ चरित्र में भी हृदय
की निर्मलता से वैचारिक उच्चता की स्थापना को सुनिश्चित करती
है जिससे मानवीय मनोदशा की विराटता द्वारा समृद्धशाली चैतन्य
अभिव्यक्ति जीवन के प्रांगण में प्रस्फुटित हो जाती है ।
आध्यात्मिक जगत का व्यापक परिदृश्य , सत्य दर्शन के स्पष्ट साक्षात्कार द्वारा
सामाजिक परिदृश्य में लोक व्यवहार की मंगलकारी स्मृति से आत्मिक स्थिति , अवस्था
एवं स्वरूप को शक्तिशाली बना देता है जिससे जीवन की अच्छाई द्वारा स्वयं का विधिवत
मार्गदर्शन सहज हो जाता है ।
चेतना के परिष्कार
की सात्विकता का आत्म साक्षात्कार होने पर जीवन मूल्य एवं अध्यात्म दर्शन का उत्तरदायित्वपूर्ण बोध सुनिश्चित हो जाता है
जिससे आत्म हित साधने के साथ सामाजिक उत्थान तथा
मनोवैज्ञानिक संदर्भ की व्यवहारिक विवेचना करना न्याय संगत
हो जाता है । आत्मगत अध्ययन के विविध स्वरूप में मनुष्य जीवन
की सौभाग्यशाली परम्परा का दार्शनिक सिद्धांत और आध्यात्मिक प्रसंग की
संवेदनशील अभिव्यक्ति मानवतावादी चिंतन का चैतन्यता से युक्त संबोधन है जो आत्म
तत्व के व्यवहारिक क्रियान्वयन एवं प्रेरणात्मक जुड़ाव का पवित्र पक्ष होता
है ।
जीवन में आत्मिक उत्कर्ष की अवस्था
का निर्माण हो जाना अनुभूतिगत सत्यता तथा आनंददाई स्थिति की
सुखद परिणीति का जीवंत प्रमाण है जो व्यक्ति में संपूर्ण विकासात्मक गतिशीलता और कल्याणकारी
परिवेश के स्वतंत्र अस्तित्व को विकसित करने में सदा मददगार भूमिका निभाता है । आध्यात्मिक परिदृश्य की समग्रता में आत्मिक
अध्ययन एवं पुरुषार्थ अनुसंधान की व्यापक परिधि , शैक्षणिक प्रशिक्षण द्वारा आत्म
दर्शन को सुनिश्चित कर देती है जिससे पारदर्शी जीवन तथा यथार्थवादी स्वरूप का सामाजिक परिदृश्य
मंगलकारी रूप में प्रखरता से मुखरित हो जाता है ।
आत्मगत
अध्ययन की गहनता से चेतना का आंतरिक रूपांतरण एवं भावनात्मक विकास हेतु धर्मगत
आचरण के अनुकरण और अनुसरण की आवश्यकता को प्रतिपादित किया जाता है जिससे परमात्म सत्ता की पारलौकिक अनुभूति मनुष्य जीवन
के लिए दिव्य उपलब्धि में नैसर्गिक पद्धति तथा विकासात्मक स्वरूप का आधारभूत
प्रतिबिंब बन जाए । जीवन की महानतम अनुभूति से गतिशील होते
हुए स्वयं के सकारात्मक परिवर्तन हेतु आंतरिक समर्पण और पूर्णतावादी दृष्टिकोण को आत्मसात करके आत्मानुभूति से
परमात्मानुभूति की ओर अग्रसर रहकर मानव विकास में मौलिक सिद्धांत एवं व्यावहारिक
गरिमा को अक्षुण्य बनाए रखा जा सकता है ।
आत्मा के संबंध में सूक्ष्म अध्ययन का अनुगमन ही चेतना को आत्मिक विकास हेतु दिव्य गुण
तथा महान चिंतन के प्रति निष्ठावान बनाता है जिसमें राजयोग शक्ति से आंतरिक खोज और
आत्म अनुभूति की विराटता को जीवन में स्थायित्व प्रदान किया
जा सकता है । स्वयं को सदा निमित्त , निर्माण और निर्मल
स्वरूप में स्थापित करते हुए – लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक
सत्ता के प्रति – श्रद्धा , आस्था तथा मान्यता के साथ उपदेश
के अनुपालन में आज्ञाकारिता एवं धर्मगत
आदेश को आत्मसात करके ईश्वरी तत्व बोध तथा निजी अस्तित्व की स्वीकारोक्ति को
सुनिश्चित किया जा सकता है ।
सृष्टि पर समस्त प्राणी मात्र
का मूलभूत उद्देश्य आत्मिक सुख , शांति एवं आनंद की प्राप्ति है जिसके लिए
आत्मज्ञान के समर्पित स्वरूप में संपन्नता और संपूर्णता हेतु निरंतर किया जाने
वाला गहन अध्ययन एवं अनुसंधान से संबंधित पुरुषार्थ है जिसमें
परमात्म स्मृति बोध एवं आत्मिक सुख की अनुभूति के अत्यधिक गूढ़तम
रहस्य समाहित रहते हैं । जीवन के
गरिमामई आत्म पक्ष को सुदृढ़ स्वरूप में बनाए रखने के लिए
आत्मिक शांति का वास्तविक स्वधर्म तथा उपलब्धिपूर्ण जीवन की सहज स्वीकारोक्ति होती है जिससे नैसर्गिक आनंद
की गतिशील पृष्ठभूमि और अनहद नाद का वृहद
समागम निर्मित हो जाता है जो चेतना की चैतन्यता को परमानंद अवस्था से संबद्ध कर देता है ।
सतोप्रधान
स्थिति के निर्माण में आत्मगत चेतना – मन , वचन , कर्म , समय , संकल्प , संबंध एवं
स्वप्न में भी पवित्रता को स्थायित्व प्रदान करने का उत्तम विधि
से जतन करती है जिसके परिणाम – सात्विक स्वरूप का जीवंत
प्रसंग एवं नि:स्वार्थ प्रेम के प्रस्फुटित परिवेश में आत्मीयता का आभामंडल सृजित हो जाता है जिसमें पवित्रता की धरोहर तथा आत्मा का मंगलकारी
स्वरूप विद्यमान रहता है । मनुष्य जीवन की खोजपूर्ण
प्रवृत्ति के कारण ही आत्म तत्व एवं परमात्मा सत्ता का दार्शनिक बोध
संभव हुआ है जिसमें आध्यात्मिक जीवन का आत्मबल और दृढ़ता की
शक्ति का निरंतर अनुभूतिगत प्रवाह सृष्टि पर आत्मिक गतिशीलता एवं जागृत अनादि
स्वरूप की अखंड ऊर्जा को आत्म कल्याण के सानिध्य में मानवता के मंगल हेतु उपयोग
किया जा सकता है ।
जगत में मानव आत्माओं के आगमन एवं प्रस्थान के
मध्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहेली – मैं
कौन हूं ? से आरंभ होती है जिसमें आत्मगत विश्लेषण – आदि स्वरूप की स्मृति तथा
पूर्वज देवात्मा के सात्विक मनोजगत से होने के कारण , पूज्य स्वरूप में आत्मिक
पवित्रता और आराध्य भाव की विनम्रता जीवन पर्यंत बनी रहती है ।
जीवन में उच्चतम स्थितियों से महानतम अवस्था की प्राप्ति
धर्मगत आचरण की कर्मगत शुचिता से ही
निर्धारित होती है जिसके परिष्कार हेतु महान जीवन की स्थापना एवं पवित्र आत्मिक
स्वरूप को स्थाई रूप से साधने के लिए आध्यात्मिक परिदृश्य
में उपराम स्थिति से
कर्मातीत अवस्था तथा अव्यक्त स्वरूप के फलितार्थ
द्वारा ही सुनिश्चित होता है ।
आत्मा की समृद्धशाली परम्परा का निर्वहन सदा ही अध्यात्म की शक्ति से अनुप्राणित
होता है जो व्यवहार दर्शन के माध्यम से आध्यात्मिक जगत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
नैसर्गिक अभिप्रेरणा के स्वरूप में परिलक्षित होकर सर्व आत्माओं को आत्मगत स्वमान
, स्वरूप एवं स्वभाव की नैसर्गिक अनुभूति करा देता है जिससे मानव जीवन में आत्म समृद्धि द्वारा उच्च आयाम को सहजता से प्राप्त किया जा सकता
है । मानव जीवन में सैद्धांतिक परिदृश्य का वास्तविक परिवेश
क्रियान्वित होने से चेतना की संतुष्टता आत्म परिष्कार में अनिवार्य परिवर्तन से
व्यावहारिक परिणाम को प्राप्त कर लेती है जिससे ज्ञान बोध में सत्य दर्शन द्वारा
आत्मिक संपन्नता का सिद्ध स्वरूप जीवात्मा के लिए – ‘ बड़े भाग्य मानुष तन पावा
...’ के रूप में उद्घाटित हो जाता है ।
आत्मिक उत्कर्ष की
ओर गतिशील जीवन का आधारभूत पक्ष भगीरथ पुरुषार्थ से आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त
करता है जिसके अंतर्गत योग सत्कर्म में जीवन दर्शन से उपराम
स्थिति की अनुभूति का रहस्यवादी स्वरूप आत्मिक चैतन्यता को धारणा अनुसरण में आत्म दर्शन द्वारा कर्मातीत अवस्था
की उच्चता पर स्थापित कर देता है । मानव सेवा से
माधव सेवा का जीवित जिजीविषा की जीवंतता से संबद्ध सुखांत जब
–‘ सेवा अस्माकं धर्म: ... ’ का पर्याय बन जाता है तब सेवा परोपकार में परमात्म दर्शन द्वारा अव्यक्त स्वरूप
की दिव्य अनुभूति चेतनता को संपूर्णता से अभिभूत कर देती है जिससे क्षमा कल्याण
में व्यवहार दर्शन द्वारा मनोगत पवित्रता समस्त वातावरण को नैसर्गिक रूप से
सुशोभित कर देती है ।
आत्मगत
उच्चता की अभिलाषा में जीवन पर्यंत साधक द्वारा साधना के पथ पर अग्रसर रहकर साध्य
तक पहुंचने के लिए पवित्र साधन का ही प्रयोग किया जाना मंगलकारी समृद्धि में उच्च
दर्शन से रूपांतरित देवात्मा के प्रतिबिंब का दुर्लभ परिणाम है जो चिंतनशील चेतना
में प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति द्वारा सृजनात्मक समाधान की महान परिणीति के माध्यम से प्रस्फुटित होता है । मूल्यगत आचरण के आचार्य
की धारणात्मक श्रेष्ठता के प्रति –
श्रद्धा , आस्था एवं मान्यता की नैसर्गिक पक्षधरता सदा मानव जाति को – ‘ मातृ देवो
भव: , पितृ देवो भव: , आचार्य देवो भव: , सत्यं वद , एवं धर्मं चर ...’ के मार्ग पर गतिशील बने रहने के लिए प्रेरित
करती है जिसमें मूल्यपरक जीवन में व्यवहारगत सिद्धांत से मर्यादित आचरण का नैतिक संबल अंतर्मन को – ‘ चरैवेति ... चरैवेति ... ’ के नैसर्गिक व्यवहार को आत्मसात करने हेतु
मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे आध्यात्मिक अनुसंधान द्वारा शैक्षणिक
क्रियाविधि के अंतर्गत प्रशिक्षण से आत्मिक अध्ययन का विराट अनुष्ठान – आत्मिक अनुकरण और अनुसरण का महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है ।
मानव जीवन में उच्चता की ओर अग्रसर होने
की मूलभूत प्रवृत्ति से संबंधित वास्तविक प्रकृति सदा आत्मगत स्वभाव में सात्विक
सुमति द्वारा ‘ नियम – संयम ’ से संचालित होती रहती है जिसमें नैसर्गिक परिदृश्य
की गहन साधना से ‘ जप – तप ’ के प्रति अंतःकरण से जुड़ाव का पवित्र स्वरूप स्वयं
को अनुशासित
बनाए रखने में मददगार सिद्ध होता
है । स्वयं को जानने की अभिलाषा व्यक्तिगत पुरुषार्थ में एक
नवीन आयाम को स्थापित करते हुए जब गतिशील होती है तब आत्मिक स्वरूप में एकाग्र
चित्त द्वारा ‘ ध्यान – धारणा ’ की दिशा में अनुगमन सुनिश्चित हो जाता है और चेतना
की चेतनता से युक्त पक्ष जिज्ञासु प्रवृत्ति की आंतरिक
उत्कंठा से ‘ स्वाध्याय – सत्य ’ की प्राप्ति में श्रद्धा पूर्वक संबद्ध
होकर समर्पित हो जाते हैं ।
आत्म उत्थान के मार्ग पर बढ़ते हुए अंतरजगत , पूर्णत: अभिप्रेरणा से भरपूर हो जाता है जिससे गतिशील जीवन में जागृत चेतना द्वारा ‘ प्रेम – अहिंसा ’ के मूल्यपरक सिद्धांत एवं व्यवहार प्रस्फुटित होते हैं और आत्मिक स्वरूप में कल्याणकारी दृष्टिकोण की सार्थक सिद्धि से ‘ धर्म - कर्म ’ के मार्ग को श्रेष्ठतम विधि के माध्यम से जीवन में प्रशस्त किया जा सकता है । सात्विक चेतना के प्रति उत्तरदायित्व का निर्धारण और संधारण निश्चित रूप से आत्मिक परिष्कार में भगीरथ प्रयास द्वारा ‘ अध्यात्म – पुरुषार्थ ’ की पूर्णता हेतु निरंतर जतन का सफल परिणाम है जिसमें पवित्र स्वरूप की वास्तविक मनोवृति से ‘ राजयोग – मौन ’ की उच्चता को प्राप्त किया जा सकता है ।
आत्मिक पवित्रता की उच्चतम स्थिति से
युक्त जीवन के परिवेश में विशाल हृदय एवं विराट मस्तिष्क के
भावनात्मक और वैचारिक पक्ष की श्रेष्ठता से आध्यात्मिक परिदृश्य में संपूर्ण –
समर्पण द्वारा सर्वगुण – संपन्नता की महानतम उपलब्धि प्राप्त
होती है जिसमें चिंतनशील चेतना के गतिशील स्वरूप से आत्मगत सर्वोच्चता के शिखर पर
पहुंचना सुनिश्चित हो जाता है । मानव जाति जब आत्मशक्ति को
स्वीकार कर लेती है तब स्वयं की दृष्टि को विकसित करना संभव
हो जाता है और व्यक्ति – ‘ दृष्टि बदलने से सृष्टि बदलने ...’ के गूढ़तम रहस्य को
आत्मसात करके ‘ जीवन – लक्ष्य ’ के अंतर्गत ‘ उमंग – उत्साह ’ द्वारा ‘ दृष्टिगत –
महानता ’ के संदर्भ और प्रसंग से
पुरुषार्थ की गतिशीलता में अभिवृद्धि करके
धारणात्मक उच्चता
के ज्ञान – योग से धर्मगत सेवा – भाव को पूर्णतया अंगीकार करना आत्मगत समर्पण का जीवंत उदाहरण बन जाता है ।
डॉ० अजय शुक्ला,
(व्यवहार वैज्ञानिक)
– गोल्ड मेडलिस्ट
, इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स मिलेनियम अवार्ड
– अंतरराष्ट्रीय ध्यान एवं मानवतावादी चिंतक और मनोविज्ञान सलाहकार प्रमुख–विश्व हिंदी महासभा
– राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष – अखिल भारतीय हिंदी महासभा, नई दिल्ली
– प्रबंध निदेशक – आध्यात्मिक अनुसंधान अध्ययन एवं शैक्षणिक प्रशिक्षण केंद्र
देवास – 455221 , मध्य प्रदेश
दूरभाष :
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