सम्पादकीय
क्या आपको नहीं लगता कि हमें भारतवर्ष की वास्तुकला का इतिहास पूरी ईमानदारी
और यथार्थरूप में नहीं पढाया गया? ऐसा अनुभव होता है कि देश की वास्तुकला ताजमहल से शुरू होकर
लालकिला और कुतुबमीनार पर आकर समाप्त हो जाती है | उत्तरी भारत ने बहुत आक्रमण
झेले हैं | जब ये आक्रमण पश्चिम से देश में प्रवेश करके मध्य भारत से होते हुए
दक्षिण की तरफ जाते थे तो इनकी धार कम हो जाती थी | इसी कारण से मध्य और दक्षिणी
भारत में अभी भी बहुत कुछ शेष बचा है | क़ुतुब
परिसर को देखने से पता चलता है कि
जिन मन्दिरों को तोड़कर उनकी सामग्री इस
परिसर में प्रयुक्त हुई है, वे अवश्य अद्भुत रहें होंगे | ऐसे मन्दिर भी उस समय
उत्तरी क्षेत्र में रहे होंगें जिनके अवशेष अब उपलब्ध नहीं हैं |
इतिहास
को तो खैर बदला नहीं जा सकता लेकिन क्या हमें अपने पूर्वजों के ज्ञान और कौशल पर
गर्व करने का भी अधिकार नहीं ? पिछले पचहत्तर
सालों में तो यही लगता है कि जैसे हमारे इस अधिकार को दबाकर रखा गया | कोई
मन्दिर जिसमें रची गयी मूर्तियों की
संख्या का भी पता लगाना लगभग असम्भव सा लगता है | कोई मन्दिर जो ऊपर से नीचे की
तरफ पहाड़ को काटकर बनाया गया | ये भी पता नहीं
कि पहाड़ का वो कटा हुआ भाग अर्थात पत्थरों
के टुकड़े और चूरा आदि गया कहाँ ? हमें
किसी पाठ्यपुस्तक में ये क्यों नहीं बताया गया कि
बिना नींव के , बिना सीमेन्ट -रेत के बनाया गया कोई मन्दिर आज तक पूरी दृढ़ता के साथ कैसे खड़ा है ? समूद्री तूफ़ान और सुनामी भी क्यों इसे हिला न सकी | इसके शिखर पर तब
अस्सी टन का पत्थर कैसे स्थापित किया गया होगा ? तब न तो आजकल जैसी भारी भरकम मशीनें थीं और न ही आजकल के जैसे कम्प्यूटर थे | तो फिर वे उपकरण क्या थे जिनकी सहायता से इतनी सूक्ष्म शिल्पकारी दिखाई
गयी ? वे दिशा सूचक यन्त्र कैसे रहें होंगे
जिन्होंने इन मन्दिरों को एक डिग्री भी इधर से उधर नहीं होने दिया ? क्या इस महान वास्तुशिल्प को केवल इसीलिये दुनिया के
सामने प्रदर्शित और प्रचारित नहीं किया गया कि वे हमारी सहस्रों वर्षों की
सांस्कृतिक विरासत को धारण किये हैं ? क्या हो जायेगा अगर हमारी
संस्कृति और ज्ञान को दुनिया अच्छी तरह जान और समझ लेगी |विचार अवश्य कीजियेगा |
श्रावण माह की महाशिवरात्रि की बहुत-बहुत
शुभकामनाएँ | हम सब पर महादेव की कृपा बनी रहे |
-जय कुमार
आषाढ़ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी, विक्रम
संवत २०८०