सामाजिक उन्नयन में साहित्य और भाषा की भूमिका उतनी ही अधिक
है जितनी जीवन में संस्कारो की कीमत। आओ विचार करे कि भाषा क्या है , भाषा अपनी बात
दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम है। और अपनी भाषा के माध्यम से एक शिक्षित व्यक्ति
साहित्य की रचना करते हुए सामाजिक विकास में अपना योगदान दे सकता है। किसी भाषा के
वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। और साहित्य लिखने के लिए
भाषा ही पहली सीढ़ी है। जिस प्रकार से एक साहित्यकार समाज का आचरण अपने साहित्य के
द्वारा बदल सकता है, वह कोई और नहीं कर सकता ।
समाज का उन्नयन तो
कोई भी व्यक्ति कर सकता है , चाहे वो व्यक्ति अपने सत्कर्मों के द्वारा करे या अपने
साहित्य के माध्यम से, परन्तु उसके लिए उसके पास भाषा का
होना अत्यंत आवश्यक है। बिना अपनी बात लोगो को समझाए वह व्यक्ति उन्नयन में अपना
योगदान नहीं दे सकता , व्यक्ति चाहे साहित्य के माध्यम से ,
चाहे सत्कर्मों के माध्यम से , किसी भी प्रकार
की भाषा के माध्यम से , वह समाज की उन्नति या प्रगति में वह
अपनी भूमिका अदा कर सकता है, योगदान के लिए उसे इसी मार्ग का
उपयोग करना होता है। साहित्य के द्वारा ही गीतों , गजलो,
कविताओं और लेखों इत्यादि का जन्म होता है, जो
लोगो की जुबान पर चढ़ते है, और लोग पढ़ कर अपने जीवन में
अपनाते है। गलत मार्ग से बचते है। हालांकि इसके अपवाद भी है , साहित्य का दुरुपयोग भी कुछ लोग करते है ।
गलत अर्थ वाले लेख
भी लिखे जाते है, जिन्हे भी लोग पढ़ कर गलत मार्ग पर चल पड़ते है। वह समाज का उन्नयन न होकर
अवनमन है, परन्तु इसका प्रतिशत बहुत ही कम है। एक कवि कल्पना
के समंदर में उतर कर अपनी रचना में अपनी कल्पना को ढाल देता है। और अपने अनुभवों
का तड़का लगाकर समाज के समक्ष रखता है, और समाज के लिए
उन्नयन का मार्ग प्रस्तुत करता है। वह नई नई कविताओं इत्यादि का सृजन करता है।
समाज में विस्थापित, या समय समय पर उत्पन्न हो रही कुरीतियों
का उल्लेख अपनी कविता, गजल या लेख में करता है। जो कि समाज
के लिए सीखने और जीवन में ढालते हुए आगे बढ़ते हुए खुद को बदलने की और अग्रसर होना
है। जो कार्य भली भांति साहित्य और शिक्षा मिलकर करते है। कहने का भाव ये है की एक
साहित्यकार अपनी शिक्षा के माध्यम से साहित्य की रचना कर समाज को बदलने का प्रयास
करता है ।ये भी कह सकते है कि एक साहित्यकार समाज को खुद का आइना भी दिखा देता है।
किसी भी देश का वास्तविक चित्र यदि कही भी देखा जा सकता है
तो वह साहित्य ही है, जिसे लिखने के लिए शिक्षा की ही जरूरत पड़ती है। इतिहास के पन्नो को उठाकर
देखिए , सब जगह साहित्य ही भिन्न भिन्न रूपों में भरा पड़ा
मिलेगा।
सबके अपने अपने अर्थ और अपनी अपनी मान्यताएं है। अभी ऊपर
आपने पढ़ा कि साहित्य समाज का आइना है , जो की समाज में व्याप्त बुराइयों, अच्छाइयों , कुरीतियों इत्यादि समाज को दिखाता है।
जबकि यह पूर्ण दर्पण नही है , चूंकि एक साहित्यकार अपनी रचना
में समाज में व्याप्त विसंगतियों, असमानताओं , समस्याओं, सच्चाइयों का मान एक अंश तक ही दिखा पाता
है, उसका विस्तार से वर्णन नहीं कर पाता है। वह केवल अपनी
सोच , अपना अनुभव ही वर्णित कर पाता है।
साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। इस
संदर्भ में अमीर खुसरो से लेकर तुलसी, कबीर, जायसी, रहीम, प्रेमचंद, भारतेन्दु,
निराला, नागार्जुन तक की श्रृंखला के
रचनाकारों ने समाज के नवनिर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया है। व्यक्तिगत हानि
उठाकर भी उन्होंने शासकीय मान्यताओं के खिलाफ जाकर समाज के निर्माण हेतु कदम उठाए।
कभी-कभी लेखक समाज के शोषित वर्ग के इतना करीब होता है कि उसके कष्टों को वह स्वयं
भी अनुभव करने लगता है। तुलसी, कबीर, रैदास
आदि ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों का समाजीकरण किया था जिसने आगे चलकर अविकसित वर्ग
के प्रतिनिधि के रूप में समाज में स्थान पाया। मुंशी प्रेमचंद के एक कथन को यहाँ
उद्धृत करना उचित होगा,
‘‘जो दलित है, पीड़ित
है, संत्रस्त है, उसकी साहित्य के
माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है।’
जिस प्रकार से फिल्मे समाज पर अपना प्रभाव या दुष्प्रभाव
छोड़ती है , उसी प्रकार साहित्य भाषा के साथ मिलकर समाज के उन्नयन के लिए पथ प्रदर्शक
का कार्य करता है। यदि साहित्य नही तो समाज नही , और समाज
नही तो साहित्य नही। दोनो एक दूसरे के पूरक है।
समाज और साहित्य में एक दूसरे पर आश्रित होने का संबंध होता
है। साहित्य पारदर्शी होना चाहिए , क्योंकि इसकी पारदर्शिता समाज के नवनिर्माण
में अहम भूमिका रखते हुए सहायक होती है जो लगभग समस्त खामियों को उजागर करने के
साथ साथ उनका समाधान भी सबके समक्ष प्रस्तुत करती है। समाज का यथार्थवादी चित्रण
यदि कोई कर सकता है तो वह साहित्य ही है , जो शिक्षा का साथ
लेकर समाज सुधार का चित्रण करता है और समाज के प्रसंगों की जीवंत अभिव्यक्ति करते
हुए समाज के नवनिर्माण में एक प्रमुख भूमिका अदा करता है।
जिस प्रकार से फिल्मे समाज पर अपना प्रभाव या दुष्प्रभाव
छोड़ती है , उसी प्रकार साहित्य भाषा के साथ मिलकर समाज के उन्नयन के लिए पथ प्रदर्शक
का कार्य करता है। यदि साहित्य नही तो समाज नही , और समाज
नही तो साहित्य नही। दोनो एक दूसरे के पूरक है।
समाज और साहित्य में एक दूसरे पर आश्रित होने का संबंध होता है। साहित्य
पारदर्शी होना चाहिए , क्योंकि इसकी पारदर्शिता समाज के नवनिर्माण में अहम भूमिका रखते हुए सहायक
होती है जो लगभग समस्त खामियों को उजागर करने के साथ साथ उनका समाधान भी सबके
समक्ष प्रस्तुत करती है। समाज का यथार्थवादी चित्रण यदि कोई कर सकता है तो वह
साहित्य ही है , जो शिक्षा का साथ लेकर समाज सुधार का चित्रण
करता है और समाज के प्रसंगों की जीवंत अभिव्यक्ति करते हुए समाज के नवनिर्माण में
एक प्रमुख भूमिका अदा करता है।
आज आवश्यकता है कि सभी वर्ग यह समझें कि साहित्य समाज के मूल्यों का निर्धारक
है और उसके मूल तत्त्वों को संरक्षित करना जरूरी है क्योंकि साहित्य जीवन के सत्य
को प्रकट करने वाले विचारों और भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है।
कानपुर नगर
उत्तरप्रदेश