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ग़ज़ल

 




समझ ना पाई उनकी आंखें

जब मेरे नयन की भाषा

इसी लिए शायद क्वांरी है

मेरे अंतस की अभिलाषा



लाख चाहने पर भी अपनी,

भावुकता हम छोड़ नहीं पाए।

किंतु मर्यादा के बंधन भी,

हम किंचित तोड़ नहीं पाए।

आशा के परिधान पहन कर

हमसे मिलती रही निराशा

इसी लिए शायद क्वांरी है.........



वे है निकट हमारे फिर भी

लगता कोसों की दूरी है

मिलने पर भी कुछ कह ना सके हम

यह कैसी मजबूरी है।

किंकर्तव्यविमूढ़ विवश मैं

खड़ी रही बन एक तमाशा

इसी लिए शायद क्वांरी है.........



निर्णय के सरसिज मुरझाए

गुमसुम सा उर सरवर है

अंतर्मन में गहन तिमिर है

मिट पाएगा कैसे मन से

अब भ्रम का पूर्ण कुहासा

इसी लिए शायद क्वांरी है.........



प्रज्ञा पाण्डेय मनु

वापी गुजरात