निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को
फैसले फासले के थे तुम्हारे कैसे दोष दूँ तकदीर को ।
यूँ तेरा इश्क में छलना मगर मैं चलना नहीं सिखा
सिखा ठोकरें खाकर जीना मगर मरना नहीं सिखा
हंसते रोते सोते गाते मैंने हरपल तुझको चाहा था
साक्षी है चाहत की दास्ताँ, कविता की तहरीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
एहसासों से खुद जुदा हुए तुम मैंने कब चाहा था
बसाया था दिल में, जैसे सिया राम को भाया था
मुकद्दर में थी नहीं जुदाई तुम्हारे किरदार खोटे थें
फिर कैसे गलत समझूँ अपनी हाथों के लकीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
एहसान समझ, ये मन बावला तुमसे प्रीत लगाया
छोड़कर सारे देवालय हृदय में तेरी छवि बसाया
खुदा तुम मेरे हो न पाए, माणिक्य तुमने खोया है
अब अपने काबु में रखना अपने नयन के तीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
हर लम्हा मेरा ठहर गया जब तुम रिश्ता तोड़ गई
रूप चाँद सा था तुम्हारा साथ उजाले का छोड़ गई
मोह आया ना माया मिली तुमको अपने प्यार पर
तुम धूर्त अज्ञानी जान ना पाई रिश्ते की तासीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
अब कैसे समझूं निर्मोही सजनी, तू थी अनमोल रे
मोल न जाना मेरे दिल के थे तेरे बिगड़े हर बोल रे
मेरे जज्बातों से खेला तुने ज्ञात अज्ञात पहेली थी
अब पसंद नहीं करता दिल तेरी किसी तस्वीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
ऋषि रंजन
दरभंगा, बिहार