पुरानें घर में

अरुणिता
द्वारा -
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पुरानें घर में भारत की,

पूरी पहचान मिला करती थी।

ओ से ओखली क से कलम,

स्याही की दावात मिला करती थी।।



संस्कार की पूरी पाठशाला,

घर में ही मिल जाती थी।

नैतिक शिक्षा मौखिक ही,

दादी हमें पढ़ाती थी।।



उसी पुरानें घर में हमनें,

साँझ सवेरा सीखा था।

जलाभिषेक सूरज का करना,

साँझ समय का दीया था।।



त्यौहारों का देश हमारा,

दादी नें समझाया था।

एक साथ जब बड़े प्रेम से,

सबनें त्यौहार मनाया था।।



गौशाले की रोटी बनती,

कुत्ता कब भूखा सोता था।

काग भाग में पूर्वज के,

तृप्ति का दर्शन होता था।।



दरवाजे से गया नहीं,

अतिथि कोई भूखा प्यासा।

स्नेह छलकता था आँखों से,

थी अपनों की अभिलाषा।।



अब नए बनाए घर हमनें,

पत्थर को पत्थर से जोड़ दिया।

खुद भी पत्थर का दिल लेकर,

जोड़ तोड़ में समय किया।।



उपहास बन रहे हैं संस्कार,

भूल गए सभ्यता हमारी।

बन्द किवाड़ों के भीतर,

दिख जाती सारी लाचारी।।



ये विजय हमारे अपनें हैं,

अपनें हाथों की रेखाएँ।

जब रहे नहीं चौखट घर में,

तो कैसे पनपेंगी मर्यादाएँ।।



विजयलक्ष्मी पाण्डेय
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश

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