"ओह वसुधा,क्या सारे दिन अम्मा से चिपकी रहती हो।कभी कोई काम मेरा भी कर दिया करो-"झल्ला उठे वर्द्धमान और उनके स्वर में स्वर मिलाया मांजी ने।
"इस घर की तो बात ही निराली है बेटा।बहू के कारण हम तो कुछ कहते नहीं।भला इस प्रकार कोई बेटी के घर मरने आता है।"
सुनकर कितनी कातर हो आई है वसुधा।अम्मा के कपड़े बदलते एक नजर उनके चेहरे पर डाली।मन ही मन डर रही थी कि अम्मा ने सुन लिया होगा। ऐसे ताने उलाहने अम्मा न सुनें ऐसा भी कभी हो सकता है।
अम्मा बीमार है , अपने आप उठ बैठ नहीं सकतीं।इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि कुछ सुन और समझ नहीं सकतीं।
"मुझे जरा चादर उढां दे।जा सुन जमाई बाबू कुछ कह रहे हैं"-अम्मा ने धीरे से उसके हाथ पर थपकी दी। आंखों में उमड़ आए आंसुओं को उसने वहीं रोक लिया।अम्मा का काम बीच में छोड़ उन्हें चादर से ढक दिया।अक्सर ही ऐसा होता है।एक बार काम अधूरा छूटा तो फिर पूरा होने का नंबर घंटों में आता है।वह एक के बाद एक अन्य काम में उलझती जाती है।
सुबह सुबह उसे बैड टी से लेकर घर की सफाई बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना नाश्ता और लंच बीच-बीच में सास की फरमाइश है। दस कब बज जाते हैं पता ही नहीं चलता एक कप चाय भी इत्मीनान से पी सके इतना समय भी कोई उसे नहीं देता।
बार-बार अम्मा का ध्यान आता है। आकर रह जाता है ।अम्मा का काम उसके अलावा कोई और कर ही नहीं सकता। कितना धैर्य है अम्मा में ।एक ही अवस्था में घंटों पड़ी रहती हैं लेकिन उसे कभी भी बुलाती नहीं ।भूखी प्यासी पड़ी रहेंगी मांगेंगे नहीं ।वसुधा को जब फुर्सत मिलेगी खिला पिला देगी। एक अनचाहे बोझ सी बेटी के द्वार पर पड़ी है। वृद्धावस्था में बेटा हो या बेटी दोनों के लिए अनचाहे बन जाते हैं।
इस अवस्था में आदमी कितना निरीह हो जाता है वसुधा क्या समझती नहीं? समझती भी है और चुप भी रहती है ।दो पाटों के बीच बेचारी अकेली पिस रही है। कितना तनाव रहने लगा है। सास और पति के ताने सुनते सुनते स्वयं उसका ब्लड प्रेशर हाई रहने लगा है।
" मम्मी नानी यहां क्यों रहती है"- केशु ने उसके कंधों पर झूलते हुए कहा
"नानी अपने घर क्यों नहीं जाती मम्मी?" भाई के स्वर में स्वर मिलाया नैना ने
क्या हो गया है तुम लोगों को नानी कहीं नहीं जाएंगी यही रहेंगी उनका यही घर है "-चीख उठी .वसुधा भली प्रकार समझती है कि इन दोनों बच्चों के मन में उल्टी उल्टी बातें कौन भरता है बच्चे सहम कर पीछे हट गए लेकिन मां जी तो जैसे मौके की तलाश में थी
" बच्चों पर क्यों चिल्लाती हो बहू सच्ची बात सुननी चाहिए"
" आप क्या चाहती हो माजी ?क्या इन्हें मरने के लिए बुढ़ापे में घर के बाहर धकेल दूं?"
" मैंने ऐसा नहीं कहा बहू ।मेरा मतलब तुम्हारी छोटी बहन आशा से था। उसका भी कुछ फर्ज बनता है।"
" हां बनता है ना माजी ,लेकिन आप यह भी जानती है कि उसका पति पिछले एक साल से बिस्तर में पड़ा है। वह अकेली घर नौकरी संभालती है ।बीमार मां को कैसे संभालेगी "-कहते-कहते गला भर आया उसका । उठकर रसोई में चली गई और जल्दी जल्दी नाश्ता तैयार करने लगी
यह सब एक-दो दिन की बात नहीं। रोज की चिकचिक है। मां के आने पर कुछ ज्यादा ही होने लगी है ।वर्धमान बेशक अम्मा के लिए कुछ नहीं कहते लेकिन फालतू बोलते भी नहीं ।परंतु मांजी के आ जाने पर उनका मौन भी मुखर होने लगता है।
अम्मा जब तक ठीक रहीं, घर के चार काम कर लेती थीं किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। सब खुश थे ।मां जी भी बहन जी बहन जी कहते थकतीं न थीं। वर्धमान भी अम्मा के आगे पीछे घूमते। उनकी इच्छा अनिच्छा का ध्यान रखते ।केशु और नैना भी नानी नानी कहते अम्मा के आगे पीछे घूमते रहते।
अम्मा बीमार पडीं ।वसुधा ने वर्धमान से डॉक्टर को दिखाने के लिए कहा
"भाई तुम्हारी मां है तुम जानो ।चाहे जहां दिखाओ। मुझे क्यों घसीटती हो"- कहकर वर्धमान ने कंधे झटक दिए थे
मन हुआ वसुधा का कि पूछे मेरी मां तुम्हारी कुछ नहीं लगती ।मैं भी तुम्हारी मां के साथ यही सलूक करूं तो कैसा लगेगा।
पर कहां कह पाई थी? बस सोच कर रह गयी थी ।फालतू बात बढ़ाने से क्या फायदा ?लेकिन उसे लगा कि कहीं कुछ दरक गया है। वह अकेली ही मां डॉक्टर और घर के त्रिकोण में उलझ गई
वर्धमान के दफ्तर से लौटने पर वसुधा का मन होता कि वे स्वयं पल दो पल अम्मा के पास बैठ कर उनका हालचाल जाने। अम्मा को कितनी संतुष्टि होगी। यही सोचकर यह अम्मा का हालचाल बताने लगी थी
अम्मा के स्वास्थ्य बुलेटिन के अलावा तुम्हारे पास और कुछ कहने को नहीं है सारा दिन दफ्तर में सिर खफा कर आओ और यहां ?"चाय का आधा प्याला
छोड़ कर उठ गए बर्दवान और कपड़े बदलकर क्लब चले गए
महसूस किया उसने तब बेटा बेटी का फर्क ।काश भाई होता और मां टुकड़ा टुकड़ा जलालत तो ना सहती।
अम्मा के दुख दर्द की वसुधा अकेली ही साक्षी रह गई ।अम्मा की तबीयत के बारे में आशा को लिखा था। आई थी दो घंटे को और उससे लिपट कर खूब रोई थी।
" दीदी विधि की विडंबना देखो। मां का भार आपको अकेले उठाना पड़ रहा है। मैं तो मां से कहा करती थी मां क्यों चिंता करती हो तुम्हारे पास दो दो बेटे हैं।"
" हम उन बेटों के अधीन हो गई है"- वसुधा ने ठंडी सांस ली
" और एक जीवन भर के लिए बिस्तर पर पड़ गया है। उसके साथ उसके घर वाले देखने के बहाने अपनी सेवा टहल में उलझाए रखते हैं।"
" चलो इस बहाने तुम्हें तो मुक्ति मिली आशा"- वर्धमान ने ज्ञान बघारा।
"तुम दूसरे की मजबूरी को मुक्ति कहते हो वर्धमान। इतने कठोर क्यों हो गए हो तुम?" वसुधा जैसे तड़प उठी
" कठोर मैं हो गया हूं या आशा ?मां के प्रति इसका भी तो कोई फर्ज है। अम्मा की संपत्ति में जब दोनों बराबर की भागीदार हो तो उनके सुख दुख में भी होना चाहिए।" सुनकर हतप्रभ रह गई वसुधा।इतने ओछेपन पर
उतर आएंगे वर्धमान कहां सोचा था उसने? संपत्ति की तरह मां को भी टुकड़ों में बांट लेना है।
"जीजाजी,अब बस भी करिए।अम्मा को ले जाने में मैं पीछे नहीं हूं लेकिन आप जितना आराम नहीं दे पाऊंगी। उन्हें भी आठ घंटे अकेले रहना पड़ता है। कहें तो मां का खर्च भेज दिया करुं।"आशा भी कहां चूकने वाली थी।
"अपना ही खर्च चला लो। यहां कोई खैरात नहीं मांग रहा।"
आशा का चेहरा क्रोध से तमतमा आया।वह कुछ बोले इससे पहले ही वसुधा उसे दूसरे कमरे में खींच कर ले गयी।
"आशा यह कटु सत्य है कि अम्मा को कोई नहीं झेल सकता।बेटी केवल बेटी होती हैं। मां की सम्पत्ति सब चाहते हैं, लेकिन मां की सेवा करना कोई नहीं।मैं अब सोचती हूं कि मां को यहां लाकर गलती की।"
"तो क्या मां वहां अकेली पड़ीं रहतीं?"
"नहीं, वही दस पंद्रह दिन रहकर मां की देखभाल कर लेती। फिर कोई व्यवस्था कर आती।बीच बीच में जाकर देख आती।"
"लेकिन इस बुढ़ापे में कोई तो अपना चाहिए।अम्मा का हम दोनों के अलावा कौन है?"
"यही सोच तो खाएं जाता है आशा।आदर्श और व्यवहार में बड़ा फर्क है।"
"अम्मा को नर्सिंग होम में रख दो"-सुझाव दिया आशा ने।
"हां यह ठीक रहेगा।मैं बात करुंगी"-और आशा निश्चिंत होकर लौट गयी
रात को ही उसने वर्द्धमान से बात की।सुनकर भड़क उठे-"तुमने क्या समझ रखा है वसुधा?इतना खर्च तो पहले ही हो चुका है।नर्सिंग होम का खर्च क्या मजाक है?"
"...अम्मा का बैंक का पैसा....?"
"वह तो कब का खत्म हो गया।"
"खत्म हो गया कैसे?"-उसे आश्चर्य हुआ।
"घर में वी सी आर और गाड़ी सब में...."
..."लेकिन ये सब तुम अपने पैसे से लाए हो सबको यही बताया था न।"
"अब फालतू की जिद्द मत करो वसुधा।ले भी लिया तो क्या हो गया। इतना तो लोग अपनी बेटी की शादी में देते ही हैं।"-पूरी बेहयाई पर उतर आए वर्द्धमान और उसे लगा कि अपनी ही दृष्टि में बौनी हो गई है।कभी अम्मा पूछेंगी तो क्या जबाव देगी?और आशा के सामने कैसे नजर उठाएगी।वह तो चाहती थी कि अम्मा से बात करें और कुछ पैसा आशा को भेज दें। बहुत ही मुश्किल में है वह। लेकिन अब?
इतना कुछ अम्मा का लेने के बाद भी अम्मा से ये सलूक?उसके दो निवाले भारी पड़ते हैं। किससे कहें वसुधा?कितनी मीठी मीठी बातें अम्मा से करते थे। अम्मा जी अम्मा जी कहकर आगे पीछे घूमते थे।अम्मा का कितना ध्यान रखते थे।तभी उसे याद आया कि जब वर्द्धमान रंगीन टीवी और वी सी आर लेकर आए थे-"अम्मा जी ,आप सारा दिन बोर होती रहती हैं।आपके मनोरंजन के लिए लाया हूं"-और तभी एक धार्मिक पिक्चर की कैसेट लगा दी थी वर्द्धमान ने।अम्मा गदगद हो उठी थीं।
"बेटा और दामाद में कोई फर्क नहीं होता। तुम्हें पाकर बेटे की कमी पूरी हो गई है।"ढ़ेरों आशीर्वाद दिए अम्मा ने।
"आपका आशीर्वाद बना रहे अम्माजी"-हंस पड़े थे वर्द्धमान और वह स्वंय निहाल हो गई थी। कितना अच्छा पति मिला है।अम्मा का कितना ध्यान रखता है।
अम्मा अकेली रहती हैं। इनसे कहूंगी कि अम्मा को यही रहने को कहें। वहां का घर किराए पर उठा देंगे-सोच गई थी वह।
"इसमें पूछने की क्या बात है वसुधा? जितना यह घर मेरा है उतना तुम्हारा भी तो है। फिर अम्मा जी यहां रहेंगी तो सबके बीच मन लगा रहेगा।बेटा न सही बेटियां तो है उनकी।"
"तुम कितने अच्छे हो वर्द्धमान।मैं तो व्यर्थ ही डर रही थी।अब अम्मा का जाने नहीं दूंगी।"
"हां भई मत जाने देना।"
उन दिनों अम्मा अपना सारा हिसाब किताब वर्द्धमान से ही कराती थीं।कितनी सम्पत्ति है, कितना नकद और कितना फिक्स डिपोजिट ,सब वर्द्धमान ही देखते।अम्मा तो किसी प्रकार अपने नाम के अक्षर भर लिख पातीं थीं।
वर्धमान ने कब कहां हस्ताक्षर कराए अम्मा ही क्या उसे भी नहीं मालूम।कभी मालूम करने की आवश्यकता ही नहीं समझी।वह तो वर्धमान पर आंखें मूंदकर कर विश्वास करती आई थी।अम्मा को इस प्रकार धोखा देने की जरूरत क्यों हुई? उसे तो कुछ बताया होता।अपनी अज्ञानता का रोना किसके सामने रोएगी।रोएगी भी तो कोई क्यों सच मानेगा?
सब यही कहेंगे न कि पति पत्नी ने बूढ़ी मां को लूट लिया।इतना लेने के बाद भी वर्द्धमान मां के निवाले गिनने लगा।घृणा हो आई उसे।मन हुआ अम्मा का हाथ पकड़ कर उसी पुश्तैनी मकान में जाकर रहे।कम से कम इस प्रवंचना से तो बच सकेगी।
सोचते-सोचते उसे याद आया कि अम्मा के आधे ही कपड़े बदले थे।अम्मा ऐसे ही पड़ी होगी। उसे शायद दो घंटे लग गए।रोज यही होता है।अम्मा अभी तक उपासी ही पड़ी है।जबकि सब यहां नाश्ता कर चुके हैं। उसने एक प्लेट में थोड़ा सा दलिया लिया और अम्मा के पास जा पहुंची। पहले कपड़े ठीक किए ,फिर चम्मच से दलिया खिलाने लगी।अम्मा का मुंह साफ कर,गंदे कपड़े समेट उठने ही लगी थी कि अम्मा ने हाथ के इशारे से रोका-"वसुधा , मुझे मेरे घर पंहुचा दे ।एक दो दिन की मेहमान हूं।आशा को लिख दे और ये ले ताली..."
"अम्मा तुम ये कैसी बातें कर रही हो?"
"यह ताली लॉकर की है। इसमें कुछ जेवर और घर के कागज हैं ।मैंने सारी चीजें अपने बेटियों के नाम कर दी हैं। सब उसमें रखा है"।
"तुम्हारा नकद रुपया अम्मा?"
" तू चिंता मत कर। मुझे सब मालूम है।"
"अम्मा तुम कितनी विशाल हो कितनी महान हो"- वह चिपक गई अम्मा से।
"बेटी के यहां क्या कोई ऐसे ही रहता है? फिर तूने कितनी सेवा की है मेरी?" हतप्रभ हो सुनती रही वसुधा।
" अम्मा तुम सब जान कर भी अनजान बनी रहीं?"
"अनजान कहां रही पगली सब जान तो गई हूं ।दामाद का ऋण लेकर कैसे जाती?"
मन हुआ वसुधा का कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। वर्धमान के कारण वह नीचा सिर किए बिसूरने लगी।
" पागल ना बन बेटी। आज दामाद से बात कर लेना। कल कैसे भी वहां पहुंचा देना ।"अपने जर्जर हाथों से उन्होंने वसुधा के आंसू पोंछने का प्रयास किया।
अगले दिन अम्मा का सारा सामान गाड़ी में रख दिया गया। वसुधा ने आशा को भी टेलीग्राम दे दिया था। केशु और नैना भी नानी के साथ जाने की जिद कर रहे थे वर्धमान ने भी पूछा-" मैं चलूं वसुधा?"
" नहीं किसी को जाने की जरूरत नहीं है ।अम्मा मेरी है मैं ही ले जाऊंगी।"
गाड़ी चल पड़ी ।वसुधा को लगा कि वह तनावों से मुक्त हो गई है। बहुत दिन बाद खुली हवा में सांस ली है
अम्मा का घर एक छोटा सा विद्या मंदिर, चह चाहते बच्चे ,अंकुर सा सपना उसकी आंखों के आगे लहराया और संकल्प लेते लेते उसके होंठ भिंच गए, मुठ्ठिंया कस गई। अभी गोद में रखा मां का सिर एक तरफ लुढ़क गया।
सुधा गोयल
२९०-ए, कृष्णानगर
डॉ० दत्ता लेन, बुलंद शहर-२०३००१