1965 के युद्ध के दौरान 8 गढ़वाल राइफल्स, 1 बख्तरबंद डिवीजन की 43 लॉरीड ब्रिगेड का हिस्सा थी और उसका नेतृत्व कर रहे थे लेफ्टिनेंट कर्नल जे ई झिराड । मेजर अब्दुल रफ़ी खान 8 गढ़वाल राइफल्स के उप कमान अधिकारी थे । 08 सितंबर को ब्रिगेड ने सीमा पार किया और सियालकोट सेक्टर में आगे बढ़ी। 16 सितंबर को मेजर खान की यूनिट, 17 हॉर्स के दो स्क्वाड्रन के साथ चाविंडा पर हमला करने के लिए तैयार थी। लेकिन अंतिम समय में, चाविंडा पर सीधे हमले की योजना को स्थगित कर दिया गया। क्योंकि मिली हुई जानकारी से पता चला कि इलाके के साथ-साथ शहर की जमीनी बनावट टैंकों के हमले के लिए उपयुक्त नहीं थी । इसके पश्चात यह निर्णय लिया गया कि पहले दुश्मन की संचार रेखा यानी चाविंडा से पसरूर को जाने वाली सड़क को बाधित करने के लिए बुटुर डोगरांडी पर कब्जा किया जाए, जिससे चाविंडा पर कब्जा करने में आसानी हो।
17 हॉर्स की एक स्क्वाड्रन के साथ 8 गढ़वाल राइफल्स को दिन के उजाले में हमला करने के लिए जिम्मेदारी सौंपी गयी । यह हमला पूर्णतः साहस और जोखिम से भरा था । दिन में साढ़े बारह बजे पाकिस्तानी सेना पर हमला शुरू किया गया । इस हमले के दौरान यूनिट के कमान अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल जे ई झिराड दुश्मन की भारी गोलाबारी में गंभीर रूप से घायल हो गए और ज्यादा रक्तश्राव होने के कारण वह वीरगति को प्राप्त हो गए । ऐसे महत्वपूर्ण समय में कमान अधिकारी का वीरगति को प्राप्त होना यूनिट के लिए बहुत ही सोचनीय था । मौके की गंभीरता को देखते हुए मेजर अब्दुल रफ़ी खान ने यूनिट की कमान संभाली ।
मेजर अब्दुल रफ़ी खान के गतिशील और प्रेरणादायक नेतृत्व में बिना रुके हुए यूनिट ने आगे बढ़ना जारी रखा। दोपहर 2 बजे तक, यूनिट पुनर्नियोजन स्थल पर पहुंच गई, लेकिन दुश्मन की ओर से की जा रही भारी गोलाबारी के कारण, यह छोटे समूहों में बंट गई। थोड़ी देर बाद जब गोलाबारी कम हुई तब मेजर खान ने महसूस किया कि उद्देश्य को हासिल करने के लिए यह स्वर्णिम अवसर है। लेकिन यूनिट व्यापक रूप से तितर-बितर हो गई थी और संचार व्यस्था टूट गई थी, जिससे वह अपने कंपनी कमांडरों के साथ संवाद नहीं कर पाए। उन्होंने निकटतम प्लाटूनों को इकट्ठा किया और 17 हॉर्स के साथ दुश्मन पर हमला बोल दिया। दो घंटे से अधिक समय तक लड़ाई जारी रही । मेजर खान की यूनिट के साहस और दृढ़ संकल्प के साथ लक्ष्य पर हमला करने के कारण दुश्मन स्थिति छोड़ने के लिए मजबूर हो गया। फिर उन्होंने बटालियन को बुट्टूर डोगरांडी के उत्तर की ओर रक्षात्मक स्थिति पर कब्जा करने का आदेश दिया।
17 सितंबर को सुबह दुश्मन ने तोपखाने और वायु सेना के साथ तीन जवाबी हमले किए। दुश्मन के इन भीषण हमलों में से एक के दौरान, अपनी यूनिट की ओर पाकिस्तानी टैंकों को बढ़ता देखकर राइफलमैन बलवंत सिंह बिष्ट का खून खौल उठा , वे रॉकेट लॉन्चर लेकर आगे बढे और एक टैंक पर फायर कर दिया, जिससे उस टैंक के परखच्चे उड़ गए। इसी बीच जबाबी कार्यवाही में राइफलमैन बलवंत सिंह बिष्ट वीरगति को प्राप्त हो गए। दोनों ओर से हो रही भीषण लड़ाई में 8 गढ़वाल राइफल्स का जोश भारी पड़ रहा था। सामरिक कारणों और आवश्कताओं को देखते हुए यूनिट को यथासंभव सर्वोत्तम तरीके से बाहर निकलने का आदेश दिया गया। मेजर खान यूनिट के बचे हुए जवानों और रेजिमेंटल मेडिकल अफसर के साथ हताहतों को निकालने के लिए वहीं रुके रहे। इसी बीच अपनी यूनिट के घायल लोगों को निकालने के क्रम में वह दुश्मन के गोले से गंभीर रूप से घायल हो गए और वीरगति को प्राप्त हो गए ।
मेजर अब्दुल रफ़ी खान एक दृढ़निश्चयी अधिकारी थे। उन्होंने एक वीर सैनिक की भांति कठिन घड़ी में अपनी यूनिट का नेतृत्व किया। अपने जीवन के परवाह न करते हुए अपनी यूनिट के घायल जवानों को निकालने में लगे रहे । उनके अदम्य साहस, नेतृत्व क्षमता , कर्तव्य परायणता और वीरता के लिए उन्हें 17 सितम्बर 1965 को "वीर चक्र" से सम्मानित किया गया।
मेजर अब्दुल रफी खां का जन्म 08 अक्टूबर 1931 को उत्तर प्रदेश के जनपद रामपुर के मोहल्ला दोमहला में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबजादा अब्दुल जलील खान तथा माताजी का नाम अनवरी बेगम था। मेजर अब्दुल रफी खां की शिक्षा शेरेवुड कालेज, नैनीताल तथा सीनियर कैंब्रिज में हुई। इनके पिताजी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे । मेजर अब्दुल रफी खां ने भारतीय सेना में 30 दिसम्बर 1951 को कमीशन लिया था और 8 गढवाल राइफल्स में पदस्थ हुए। मेजर अब्दुल रफी खां की पत्नी का नाम कमर जहाँ बेगम था । मेजर अब्दुल रफी खां की 02 पुत्रियाँ - शम्मा अहमद और सीमा जफ़र गयास हैं, जो की वर्तमान समय में दिल्ली में रहती हैं।
मेजर अब्दुल रफ़ी खान की वीरता की याद में रामपुर रेलवे स्टेशन पर एक स्मारिका का निर्माण करवाया गया है और रामपुर में उनके नाम पर एक शौर्य द्वार बनाया गया है।
हरी राम यादव
सूबेदार मेजर (से०नि०)
लखनऊ, उत्तर प्रदेश