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रंग


 

एक पाँच सात साल की लड़की बड़े ही लालसा भरे निगाह से सामने के घर में पड़े रंगों की शीशी को निहार रही थी ।उसे लग रहा था कि काश वो सारी रंगों वाली शीशियां उसे मिल जातीं तो वह भी कागज पर रंग बिरंगे चित्र बनाती ।

मानसी नाम था उस भोली सी बालिका का और उसे तरह तरह के चित्र बनाने का बहुत ही शौक था ।उसके पिता नहीं थे ,माँ ही गाँव में खेती करवाकर किसी तरह घर का खर्च चला रही थीं ।गरीबी के चलते उसकी माँ रंग खरीदने में असमर्थ थी । अलग अलग रंग के फूलों को पीसकर वह निचोड़ लेती थी और उन्ही रंगों का प्रयोग कागज पर चित्रों में रंग भरने के लिए किया करती थी । काले रंग के लिए कोयला पीसकर रंग बना लेती । लाल के लिए गुड़हल तो गुलाबी के लिए गुलाब ,मानों प्रकृति ने भी भावी चित्रकार के लिए पूरा प्रबन्ध कर रखा हो |

अगले दिन उसे फिर रंग की खाली तथा एकाध में थोड़ा बहुत बची खुची रंगों की ओर लालसा भरे निगाह से देखती हुई उसकी आँखों को ताई जी ने पकड़ ही लिया ।

क्या हुआ बेटा तुझे ये शीशियाँ चाहिए क्या ?

नहीं ताई जी ये तो सीमा दीदी की है ना ।

अरे उसे अब इनका क्या काम ये तो फालतू पड़ी हुई है,तुझे चाहिए तो बता ?

मनीषा को लगा जैसै कहाँ की दौलत मिल गयी हो। उसने धीरे से हाँ में सिर हिलाकर अपनी सफेद रंग की फ्रॉक फैला दी।ताई जी ने सारी शीशियां उसके फ्रॉक में डाल दीं । वह लगभग दौड़ती हुई अपने घर गयी और सहेज कर सारी‌ शीशियों को रख दिया ।वह एकटक उन रंगोंवाली शीशियों को निहारती रही मानों उसका कोई बहुत बड़ा स्वप्न पूरा हुआ हो ।रंगों की एक एक शीशी उसके लिए किसी अनमोल वस्तु से कम‌नही थी ।वह हर एक रंग का मिलान फूलों से तथा पत्तियों से करती तथा उसी तरह का रंग बना लेती थी।

"आज फिर सिलबट्टा खराब कर दिया?" माँ चिल्ला पड़ी ।

"अभी ठीक करती हूँ माँ"मानसी डरते डरते बोली ।वास्तव में उसे काले रंग की जब भी जरूरत होती वह कोयले को पीसकर काला रंग प्राप्त कर लेती और फिर उस दिन उसे डाँट भी खूब पड़ती थी।

मानसी पढ़ने में भी वह बहुत तेज थी ।वह हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आती थी । धीरे -धीरे समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और आगे चलकर वह ड्राइंग की ही शिक्षिका बनी । भाईयों की भी अच्छी नौकरी लग गयी । उसकी शादी भी बहुत अमीर परिवार में हो गया किन्तु घमंड उसपर कभी भी हावी नहीं हो सका ।उसके पैर हमेशा जमीन पर टिके ही रहे।

अब उसके पास सबकुछ था ।वह विद्यालय की लडकियों की हर संभव मदद के लिए तैयार रहती थी । उसे जिसमें भी चित्र कला की जरा भी प्रतिभा नजर आती वह उसे आगे बढ़ाने के लिए जी जान लगा देती ।किसी भी मासूम बच्चे में उसे हमेशा अपना बचपन ही झाँकता हुआ नजर आता था।

आज मानसी की चित्रकला आर्ट गैलरी में लगायी जाती है किन्तु उसका बचपन उसे कभी नहीं भूला । वह हमेशा जरूरतमन्द बच्चों की मदद के लिए तैयार रहती है । जिन्दगी के विभिन्न रंगों ने उसके चित्रों के रंग को और भी सुन्दरता प्रदान की, और उन्होंने पता नहीं कितनी जिन्दगियों को सुन्दर रंग प्रदान किये ।

डॉ० सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली