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तुम बिन जग सूना है

 


तुम बिन जग सूना-सूना है"

बुजुर्ग दीनानाथ आँखों से बार बार बहते आँसुओं को चुपके से गमछे से पोछ लेते और ऐसा करते हुए वह दाएं बाएं धीरे से देख भी लेते कि, कोई उनको ये सब करते देख तो नहीं रहा है।तभी उनकी नज़र उस ओर गई जिस ओर से उनके पड़ोसी दयाराम आ रहे थे,शायद इस तरफ ही आ रहे हैं वे , यह देख झट से आंसुओं को पोछ अपने को सामान्य करने लगे दीनानाथ।

दयाराम ने राम राम जी के संबोधन किया और साथ ही उसी चारपाई पर बैठ गए जिस पर दीनानाथ बैठे थे।एक दूसरे ने एक दूसरे की ओर देखा,, तो ऐसा लगा कि, जैसे मौन रहकर ही पूछ रहे हों एक दूसरे से कि ,और कहो कैसे हो।दोनों बुजुर्ग कुछ देर तक मौन रहे, फिर दयाराम ने कहा,,,,,आपके घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं है।,बेटे बहू, पोता ,पोती कितना ध्यान रखते हैं आपका, खाने पीने से लेकर लेटने बैठने दवा इलाज तक का ,,फिर इन आँखों को क्यों रुलाते हो दीनानाथ जी?,,,थोड़ा ठहर कर दयाराम ने फिर कहा,,अरे !हम तो घोर उपेक्षित हैं,, अपने बेटों बहुओं के व्यवहार से, फिर भी बिना शिकायत के जिए जा रहे हैं,,,, दीनानाथ जी!"।इतना कहकर ढाढस बंधाते- बंधाते दयाराम फफक फफक कर रो पड़े।दयाराम को रोते देख,अब दीनानाथ की बारी थी ।दोनों हाँथों से दयाराम को कोली भर कर दीनानाथ बोले",,,अरे ,,क्यों दिल छोटा कर रहे हो दयाराम जी,,,! और अपने गमछे से दयाराम के आँसू पोंछने लगे।

दरअसल दोनों बुजुर्गों की पत्नी कुछ माह पूर्व थोड़े थोड़े अंतराल से स्वर्गवासी हो गई थीं,। दोनों बुजुर्गों के मन में पत्नियों के न रहने से अपनी -,अपनी पीड़ा थी।दीनानाथ का दर्द था कि,घर में उनका पूरा ख्याल रखा जाता है, बेटे व बहुओं द्वारा खूब सेवा की जाती,लेकिन अब रात में नींद न आने पर उनके साथ साथ जाग कर,अरे,!,नींद क्यों नहीं आ रही ?ये पूछने वाला कोई नहीं है,, ।अब कोई नहीं है,रात में ज़रा सी खाँसी आने पर, अलख सुबह उठकर अदरक भून कर शहद के साथ देने वाला। साफ विस्तर होने पर भी उठो चादर झाड़ दें,कहने वाला कोई नहीं है अब,,हम लाख मना करते थे कि चादर तो साफ है,लेकिन जब तक चादर को झाड़ न देतीं तब तक चैन नहीं आता था उनको।लेकिन दयाराम का दर्द कुछ अलग था,जुदा था। जब कभी बहू खाना बनाने में देर कर देती या चाय में देर होती थी,तो उनकी वृद्धा घर के बाहर पड़े छप्पर के नीचे कोने में धरे मिट्टी के चूल्हे पर बिना आलस्य के चाव से खाना बना कर देती थी,चाय बनाकर देती थी।जरा से गंदे कपड़े देखती थी तो,, अरे!बहुत गंदे कपड़े हैं,निकालो साफ कर दें ,।लेकिन अब कोई कहाँ कहता?जैसे तैसे खुद ही धोना पड़ता है,अपने कपड़ों को।खाँसी बुखार होने पर झाड़ झाँकड और तुलसी के पत्तों का काढ़ा बनाकर कोई नहीं देता अब।, अब तो खाँसी आने पर चुप चाप खुद ही नमक की डली को लेकर मुँह में दबाकर खाँसी से छुटकारा पाने का यत्न करना पड़ता है।

दोनों बुजुर्गों का अपना अपना दर्द था , शिकायत थी दोनों को, समय और किस्मत से ,कि जीवन - संगिनी जिन्दगी की इस मोड़ पर उनको अकेला छोड़कर चली गईं।अब इसी तरह दोनों बुजुर्गों को एक दूसरे को ढांढस बंधाते हुए जिन्दगी गुजारनी पड़ रही थी, ।दोनों बुजुर्ग एक दूसरे से कहते कि भाई! अब तो यह सोचकर डर लगता है, कि हम में से भी किसी को, एक दिन किसी एक से , पहले जाना होगा। तब भला एक दूसरे को ढांढस कौन देगा। दोनों इतना सुनकर एक दम शांत,,, सन्नाटा पसर गया एकदम,,जैसे अतीत में कहीं खो गए हों दोनों बुजुर्ग, इस मृत्यु लोक के निष्ठुर चलन को सोचकर।

रामबाबू शुक्ला
नगर व पोस्ट- पुवायां
जनपद- शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश)