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बेचैनियों का सागर

 


क्या हो गया है

 आदमी को

वो बैचेन क्यों है ?

क्या कहीं कुछ

 दिखने लगा है

क्या कुछ और 

बिकने लगा है

वो लालायित क्यों है

क्यों उठ रहे हैं 

झंझावत उर में

क्या पा लेना चाहता है 

वो आदमी

कुछ मचलता सा 

आकर्षण आता है

वो और मचल जाता है

चाहता है वो बतियाना

कहीं कुण्ठा है क्या 

दो पहियों पर ही 

सवार है सृष्टि

फिर पुरूष की है 

क्यों मलिन दृष्टि

स्त्री भी खड़ी है

 किसी चौराहे पर

वो भी प्रतीक्षारत है कहीं

बैचेनियों का सागर उमड़ता है 

वहाँ भी

टकराने दो लहरों को तट से

खड़े हैं वहाँ और भी

जो मल्लाह मांझी नहीं हैं

भीगने दो उन्हें भी

मत दोष दो उन्हें 

वहाँ खड़ा रहने का !

देखने दो लहरों को

उमड़ते सागर को 

ऊपर उठते बादलों को

 

 

 

वी० पी० दिलेन्द्र

111 / 436 अग्रवाल फार्म

मानसरोवर

जयपुर - 302020