झुकी हुईं डाली के अंतिम छोर पर बैठी चिड़िया
हिचकोले खाती हुई
संसार को
कभी दाएं कभी बाएं से
निहारती हुई
मन में विचारों का तूफ़ान लिए
उड़ान भर गगन को
चूमने की इच्छा से लबरेज़
एक उधेड़बुन में लगी हुई है
कितनी ताक़त लगाऊं
इस डाली को छोड़ने के लिए
जो खुद ही जकड़ी हुईं है
या ठहर जाऊं यहीं बस
इसी हिचकोले में
असीम आनंद समाहित है
इन्हीं सवालों की मंथन क्रिया में अचानक एक तीव्र ध्वनि ने
सब कुछ विराम में ला दिया
बस अब एक कोरे पन्ने सी ज़िंदगी सांसों की माला समेटकर
चल पड़ी अनंत की ओर
अजीत सिंह
शामली, उत्तर प्रदेश