"भारतीय जीवन शैली प्राकृतिक और असली जीवन शैली की दृष्टि देती है।हम खुद को अप्राकृतिक मास्क से ढककर रखते हैं। भारत के चेहरे पर मौजूद हल्के निशान रचयिता के हाथों के निशान हैं।"
जार्ज बर्नार्ड शॉ का यह वक्तव्य भारत की विशाल सांस्कृतिक विरासत को रेखांकित करता है। हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है।हमारी सभ्यता की समकालीन सभ्यताएं वर्तमान समय तक आते आते लगभग विलुप्त सी हो गई है, परंतु भारतीय सभ्यता अन्य सभ्यताओं की अच्छाइयों को अपनाकर और विशाल हो गई। इकबाल जी ने कहा है - "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जवां हमारा"
मानवता ने सम्पूर्ण रूप में जिस संस्कृति को विरासत के रूप में अपनाया वह ही मानवता की विरासत है। इसमें वे सभी मूल्य सम्मिलित होते हैं जो मानव को पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से प्राप्त हुए हैं। निरंतर परिष्कार और परिमार्जन का गुण धारण करने के कारण ही भारतीय संस्कृति शाश्वत, नित्य और नवीन है। यह केवल भारत में ही है कि वेदों के सूक्तकार भी हमारे ऋषि है और उनका विरोध करने वाले चार्वाक और बृहस्पति भी।हमारी भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही अध्यात्म एवं भौतिकता के समन्वय पर चलती आ रही है। जहां यहां धर्म अर्थ काम मोक्ष एवं चार आश्रमों की बात की गई है तो वहीं तपस्या के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की बात भी कही गई है। यदि एक ओर गीता ज्ञान हर घर में गाया जाता है तो दूसरी ओर चाणक्य के अर्थशास्त्र को वरीयता दी जाती है। यदि हम सत्य और अहिंसा के पुजारी हैं तो अपने देश के सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध से भी पीछे नहीं हटते हैं।
भारतीय संस्कृति में यहां के मूल निवासियों के समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाली जातियां भी घुल मिल गई। कभी कभार ये जातियां परस्पर वैमनस्य का कारण बनकर समाज में अराजकता को भी फैलाती है परन्तु यह सब कुछ लोगों की स्वार्थ लोलुपता और तुच्छ मानसिकता के कारण ही होता है। वरना तो नवागत संस्कृतियों की अच्छी बातों को हमने उदारतापूर्वक ग्रहण किया है और गंगा जमुना तहजीब का निर्माण किया है।आज हम भाषा, खान-पान, वेशभूषा,कला संगीत सबका प्रतिनिधित्व करते हुए वैश्विक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।भला कौन कह सकता है कि सूट सलवार भारतीय परिधान नहीं वरन् ईरानी पहनावा है। सूफी कवियों ने कहा है --" तुरकी, अरबी,हिंदुवी, भाषा जेती आहि,
जामे मारग प्रेम का सबै सराहे ताहि।"
तुलसीदास जी मध्यकाल में भारतीय संस्कृति के समन्वय के सबसे बड़े कवि के रूप में नजर आते हैं।इस विषय में वे स्वयं ही कहते हैं कि
" स्वपच सबर खस जमन जड़, पावंर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम,होत भुवन विख्यात।।"
यहां के विभिन्न विचारकों एवं महापुरुषों ने भारतीय संस्कृति को समन्वित रूप प्रदान करने के लिए उत्कृष्ट विचार व्यक्त किए हैं। भारत की विभिन्न कलाएं - मूर्ति कला, संगीत कला, नृत्य कला, चित्र कला,लोक संस्कृति इत्यादि को भारतीय संस्कृति के समन्वित स्वरूप में देखा जा सकता है। बौद्ध,जैन, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्मों के लोग एवं पूजा स्थल शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाते हैं।
धनानां निधानं धरायां प्रधानम्
इदं भारतं देवलोकेन तुल्यम्।
यशो यस्य शुभ्रं विदेशेषु गीतम्
प्रियं भारतं तत् सदा पूजनीयम्।।
संस्कृति का स्वरूप साहित्य में सबसे अधिक सामर्थ्य पूर्ण तरीके से अभिव्यजिंत होता है। भारतीय संस्कृति का यह समन्वित संस्कृत भाषा के माध्यम से रामायण, महाभारत, गीता, कालिदास, भवभूति,भास के नाटकों के माध्यम से बार बार व्यक्त हुआ है।इनकी संयुक्त माला समेकित भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की पहचान इसकी 'सामासिक सांस्कृतिक धारा' के कारण बनी रही है। वर्तमान में कट्टरता,मूल्यविहीन शिक्षा, आतंकवाद आदि ने योजनाबद्ध रूप से भारत की की समेकित संस्कृति पर हमला किया है। हमें इसे पहचानकर जड़ों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा और फिर से भारत को विश्व पटल पर देदीप्यमान करना होगा |
अलका शर्मा
शामली, उत्तर प्रदेश