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ग़ज़ल


सफ्हा -ए - हस्ती, इंसान की बस्ती
वुजूद ना बचता, जो न होती मस्ती।


मिरी सन - ए विलादत, अहम नहीं
अहम की बात है, जिंदगी ही मस्ती।


चौकोर सेहन था, मिरी चारों तरफ
चौखटें द्वार पर, कहाँ जानी मस्ती।


बाहर दीवार के, गिद्ध था बैठा
झपट्टा मारता,जो की होती मस्ती।


खाविंद घर गयी, दुनिया ना मिला
चौखट पर खड़ी,क्या करती मस्ती।


अलमिये जिंदगी मिरी,आशना हुई
पहरा में रही, खाक करती मस्ती।


मौत बेरहम होता, अफसोस नहीं
अफसोस जिंदगी में,ना मिली मस्ती।


नासूर मिरी जिंदगी, दिया तिरी हुई
बावकार मतानत मरूं, मिरी मस्ती।


अंदेशा में पली, मिरी जीवन किशोर
डर जेहन में बैठा, रोना ही मस्ती।


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ठगों के गांव में, रंगीनी बहुत है
रंगीला ठग सभी, आमदनी बहुत है।


सत्ता में उल्ट फेर रोज हो रही
कुर्सी का खेल सब,सदनी बहुत हैं।


सभी तो चाहते, प्रधान की कुर्सी
प्रधान खुद ही तो, जुनूनी बहुत हैं।


जन के घर में तम तनकर है बैठा
उनके द्वार पर, रौशनी बहुत है।


बूढ़ापा दिख रहा, मुँह में दाँत नहीं
जुनून गजब दिखता,जवानी बहुत है।


घर की प्रधानी, पत्नी के हाथों में
घर है एकसदनी, मनमानी बहुत है।


खाती है घर का, नैहर की गाती
सताती बहुत ही, सयानी बहुत है।


चांद तुम्हीं हो, किशोर कहता था
दिन में तारे दिखे, मरदानी बहुत है।


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बेमतलब के क्यों अकड़ते हो
भीतर में ही क्यों खदकते हो।


प्रेम पाश में जब तू बन्हे हो
इधर उधर फिर क्यों फुदकते हो।


जकड़े हो खुद तूम परंपरा से
मुझे तूम उससे क्यों जकड़ते हो।


खुले आकाश की मैं पंछी हूँ
पिंजरे में फिर क्यों जकड़ते हो।


पंख काट मुझे बस कर लोगे
इस गफलत में क्यों रहते हो।


सत्ता, कुर्सी बेवफा है साईं
उसके खातिर क्यों झगड़ते हो।


राजा बाबू खुद संत समझते
शक्ति का धुरी क्यों बनते हो।


पकड़ अनीति के राह चल रहे
बात नीति का क्यों करते हो।


डूब मरो चुल्लू भर पानी में

सत्ता - सत्ता तू क्यों रटते हो।


जन जागा किशोर भी जागा
देख जगे को क्यों डरते हो।


कनक किशोर
राँची , झारखण्ड