पूर्वी उत्तरप्रदेश में एक जिला है जौनपुर । यहां जमींदारों के पास बहुत जमीन जायदाद था । इनके पास कई कई गांवों तक फैली हुई हजारों एकड़ खेत तो थे ही और साथ ही साथ फलों के बड़े बड़े बगीचे तथा तालाब व कुएं आदि हुआ करते थे। बहुत समय पहले की बात है करीब 1938 के लगभग की। वहीं जौनपुर में केराकत तहसील का एक गांव है कबीरुद्दीन पुर । यहां के एक जाने-माने एक जमींदार थे शारदा प्रसाद जी। वे अथाह सम्पत्ति के मालिक थे । उनकी एक बड़ी सी कोठी थी और उसमें चौबीस घंटे उनकी सेवा में तत्पर कई कई नौकर चाकर भी थे।
शारदा प्रसाद जी के घर एक पुत्री का जन्म हुआ। शारदा प्रसाद और उनकी पत्नी अपनी कन्या को पाकर बहुत खुश थे। पूरे ही विधि-विधान पूर्वक कन्या का नामकरण किया गया । उसका नाम रोहिणी रखा गया था। रोहिणी के जन्म के बाद नौ साल बीत गये पर उनके यहां किसी दूसरी संतान का आगमन नहीं हुआ।
जैसा कि उस समय का एक रिवाज था कन्या के धर्म विवाह या फलित कन्यादान का। शारदा प्रसाद जी ने भी अपनी पुत्री रोहिणी का विवाह दस वर्ष की अल्प आयु में कर दिया। रोहिणी का विवाह वहीं जौनपुर के एक जाने-माने जमींदार विश्वनाथ जी के बेटे बृजमोहन से हुआ। बृजमोहन भी छोटा ही था वह उस समय आठवीं कक्षा में पढ़ रहा था। खूब धूमधाम से यह विवाह सम्पन्नहुआ था। कई गांव के बड़े बड़े बड़े राजे रजवाड़े लोग इस विवाह में शामिल होने के लिए आये थे।
शारदा प्रसाद के पास यह पुत्री ही उनकी इकलौती संतान थी सो उन्होंने अपनी सम्पत्ति का कुछ हिस्सा छोड़कर पूरे ग्यारह गांव की खेती,बाग-बगीचे तथा तालाब आदि सब कुछ पूरा का पूरा अपनी बेटी के नाम कर दिया और वह भी रजिस्ट्री सहित। इतने बड़े दहेज़ की चर्चा दूर दूर तक हुई।
करीब पांच साल बाद रोहिणी ने पन्द्रह वर्ष की आयु में एक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। विश्वनाथ ने अपने नाती के होने पर धूमधाम से उसकी बरही मनायी गयी। पूरे ग्यारह गांव के लोगों को भोजन कराया गया तथा वहां के गरीबों में कंबल और वस्त्र बांटे गए। मायके में भी उसके बेटा होने पर खूब खुशी मनाई गई।
अभी रोहिणी का बेटा नौ महीने का हो रहा था कि उस के मायके से पंडित और नाऊ दोनों रोहिणी को लेने के लिए आ गये। पहले बेटियों को विदा कराने नाऊ और पंडितजी जाया करते थे।
"बाबू जी बिटिया की मां की तबियत ठीक नहीं है। और वे बिटिया से मिलने को इच्छुक हैं।" पंडित जी ने विश्वनाथ जी से कहा।
"हां ,हां क्यों नहीं, मैं बहू की विदाई कल सुबह ही करा देता हूं।पर समधन जी को हुआ क्या है ?
"यह तो मुझे नहीं पता है बाबूजी, जितनी मुझे जानकारी थी मैंने आपको बता दी।" सूचना वाहक ने कहा।
विश्वनाथ जी ने सुबह भोर में ही बहू और नाती के लिए वहां जाने की व्यवस्था की । उस समय फियेट कार का जमाना था। पर यह गाड़ी बहुत ही कम लोगों के पास हुआ करती थी। फियेट में बैठकर रोहिणी अपने मायके की ओर चली । वैसे तो उसका मायका दो कोस की दूरी पर ही था पर विदाई के बिना लड़की अपने मायके नहीं जा सकती थी। शादी के बाद रोहिणी पहली बार करीब छः साल बाद अपने मायके जा रही थी। रास्ते में गांव, खेत, बाग व बगीचे तालाब आदि जो भी रास्ते में मिल रहे थे उनको वह अपनी आंखों में समा लेना चाहती थी। कुछ ही देर बाद वह अपने माता व पिता के सामने थी। मां ने देखते ही अपनी बेटी को गले लगा लिया और रो पड़ीं । मां हमेशा रोती ही है चाहे विदाई का समय हो या मिलने का दोनों ही समय मां की ममता द्रवित होकर आंखों से गंगा-जमुना बनकर बहने को आतुर ही रहती है।
अपने नाती को नाना -नानी ने ढेर सारा आशीर्वाद दिया तथा मोटी सी सोने की जंजीर उसके गले में पहना दी।
रोहिणी ने देखा कि मां का मुख पीला सा लग रहा था पर उस पीलेपन में एक चमक ,एक आभा छिपी हुई थी। आखिर रोहिणी भी एक बच्चे की मां थी । उसे आभास हो गया था कि कोई शुभ समाचार जरूर है। इधर रोहिणी के पिता भी उसकी मां के तबियत के बारे में बताने में सकुचा रहे थे सो रोहिणी का चेहरा और भी खिल उठा। उसके मन में उम्मीद की एक किरण सी चमक उठी।
थोड़ी देर बाद घर की बहुत पुरानी आया जिसे वह अम्मा कहती थी उसके लिए नाश्ता ले आयी तथा मां के लिए दूध तथा भुने मेवे ले कर आयी।
मां यह देखते ही झल्ला उठीं ,"ये क्या है ? मैंने कच्चा आम नमक मिर्च के साथ मांगा और तुम यह ला रही हो।"
"नहीं मालकिन तीसरे महीने में ज्यादा नमक मिर्च ठीक नहीं है। जो आपके और बच्चे के लिए ठीक है वही लायी हूं और आपको यही खाना है।"अम्मा ने कहा।
यह सुनकर रोहिणी खुश हो उठी जो वह सोच रही थी सच ही था। उसने मां को ढेर सारी नसीहतें दे डालीं। अब वह मां के खाने की एक-एक चीज पर खास तौर पर ध्यान देने लगी। नौ महीने के बेटे की सोलह वर्षीय वह लड़की इस समय अपनी ही मां की मां की भूमिका निभा रही थी।
रोहिणी की मां अपनी बेटी और उसके ससुराल वालों से लज्जावश यह खबर छिपाना चाहती थी। उन्हें यह लगता था की लोग क्या कहेंगे? परन्तु जैसे ही रोहिणी की सास को यह पता चला उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा अपने पति से जाहिर की ।
उन दोनों गांव यानी की रोहिणी के मायके और ससुराल के बीच एक बहुत प्रसिद्ध मन्दिर पड़ता था चौकिया मन्दिर । यहां पर प्राय: लोग अपनी बहू बेटियों और रिश्तेदारों से भेंट किया करते थे।वहीं पर दोनों समधिनों के मिलने की व्यवस्था हुई।
रोहिणी की सास ने समधिन को गले लगा लिया और बड़े ही प्यार से उनको समझाया,
" समधिन जी इसमें छिपाने या शर्माने की बात नहीं है । भगवान की दया से यह तो खुशी की बात है , अब गद्दी जागेगी, तुम्हें और क्या चाहिए?"
धीरे-धीरे समय अपने ही गति से बढ़ता रहा। समय आने पर शारदा प्रसाद जी के यहां एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ।खूब धूमधाम से पुत्र जन्म की खुशी मनायी गयी। उसी समय
उनके दामाद के वकालत की पढ़ाई पूरी होने की शुभ सूचना भी उनके पास पहुंची।
पुत्र जन्म की खुशी के साथ ही साथ शारदा प्रसाद जी एक गहरी चिंता में पड़ गये । उनके
मन में तरह-तरह की बातें आने लगीं। लगभग सारी जमीन जायदाद , खेती बारी,बाग बगीचे तालाब आदि तो वे अपनी पुत्री को दहेज़ में दे चुके थे । अपने बेटे के साथ अब वह कैसे न्याय करें। दामाद भी तो वकील बन गए हैं अगर उन्होंने मना कर दिया तो क्या होगा? अब करें भी तो क्या करें? सीधे सीधे मांगने पर जग हंसाई का डर था। लोग कहते बेटी को दहेज दे कर वापस मांग रहा है।यही नहीं विश्वनाथ जी ने ही मना कर दिया तो उनको कितनी लज्जा का सामना करना पड़ेगा?
शारदा प्रसाद पूरी रात इसी उधेड़बुन में लगे रहे। बेटे का भविष्य की खातिर उन्होंने एक बार विश्वनाथ से इस विषय में बात करने का मन बना ही लिया। मौका भी अच्छा था दामाद के वकील होने पर बधाई भी दे आयेंगे और बेटे के जन्म की खुशी की मिठाई भी दे आयेंगे। साथ ही साथ अपनी चिंता भी उनके सामने जाहिर कर देंगे आगे भगवान की मर्जी्।
भगवान का नाम लेकर ,चौकिया मां को याद करते हुए वह स्वयं मिठाई लेकर अपनी बेटी के ससुराल पहुंचे। बिल्कुल भोर में ही शारदा प्रसाद को घर आया देखकर विश्वनाथ तथा उनके बेटे थोड़ा चकित तो हुए फिर आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। दोनों समधी गले मिले दामाद ने झुककर कर पैर छुआ। विश्वनाथ जी ने दामाद को गले लगाते हुए ढेरों आशीर्वाद दे डाला। फिर मिठाई देते हुए पहले दामाद को वकालत पास करने पर बधाई दी । फिर बहुत ही विनम्रतापूर्वक अपने घर पुत्र होने का शुभ समाचार दिया ,बोले ,"आपकी समधिन साहिबा ने कल रात में पुत्र रत्न को जन्म दिया है।अब वे किस पर राज्य करेंगे यह अब आपके हाथ में है। मेरी पगड़ी की इज्जत अब आपके हाथों में है। कहते हुए उन्होंने अपनी पगड़ी उतार दी।"
विश्वनाथ जी ने उनका हाथ पकड़ लिया पगड़ी वापस उनके सिर पर रखते हुए बोले , "समधी साहब आपकी पगड़ी मेरी पगड़ी है इसे हम कभी भी नीचा नहीं होने देंगे ।" और उनको गले लगा लिया। उनका बेटा भी उनके पास में ही खड़ा था। बेटे ने भी सहमति में अपने सिर को हिलाकर पिता के निर्णय को मौनस्वीकृति दे दी।
दूसरे दिन विश्वनाथ जी अपने बेटे के साथ कोर्ट जा पहुंचे और शारदा प्रसाद द्वारा दी गयी ग्यारह गांव की जमीन, बाग बगीचे और तालाब सब कुछ वापस उनके नाम रजिस्टर्ड करा दिया ।
दूर दूर तक के लोग इस बात पर दंग रह रह गये। जहां थोड़ी थोड़ी चीज के लिए लोगों की नीयत डोल जाती है वहीं मिले हुए जमीन जायदाद को इस तरह लौटा देना बहुत ही बड़े मानवीयता का परिचायक था। शारदा प्रसाद तथा उनकी पत्नी की आंखें नम हो गई थी और मन से बेटे की भविष्य की चिंता खत्म हो गई थी। आज वे विश्वनाथ जी के समक्ष दिल से नतमस्तक थे। विश्वनाथ जी शारदा प्रसाद के खुशी से प्रफुल्लित हो रहे थे।
डॉ० सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली