पाँच बजते-बजते दिल्ली की भीड़-भाड़ से निकल आए तो लगा रात के दस बजे तक देहरादून पहुँच ही जाएँगे। दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस-वे से होते हुए डेढ़ घंटे में मेरठ पार कर लिया। सिवाया टोल प्लाज़ा से गुज़रते हुए घड़ी पर निगाह डाली तो साढ़े छः बज रहे थे। कुछ देर बाद दौराला के फ़्लाई-ओवर पर चढ़े तो दूर से गाड़ियों की लम्बी कतार दिखने लगी। लग गया कि जाम लगा है। हमने भी गाड़ियों के पीछे अपनी गाड़ी लगा दी। सोचा दस-बीस मिनट में रास्ता खुल जाएगा। पर जब काफ़ी देर हो गई तो नीचे उतरकर पता किया कि क्या हुआ? पता चला कि आधा किलोमीटर आगे भूसे से ओवरलोड एक ट्रक सड़क पर पलट गया है और सारा भूसा सड़क पर फैल गया है। जाम लगे हुए एक घंटा हो चुका है और जल्दी रास्ता साफ़ होने की कोई उम्मीद नहीं है। सोचा गाड़ी वापस मोड़ लें पर तब तक देर हो चुकी थी। हमारे पीछे ही नहीं अगल-बगल भी गाड़ियों की कतारें लग चुकी थी और हम बुरी तरह जाम में फँस चुके थे।
अब गाड़ी में बैठे-बैठे सिर धुनने के अलावा कोई चारा नहीं था। नौ बजे पुलिस एक खाली ट्रक, जेसीबी मशीन और कुछ मजदूर लेकर पहुँची। भूसे को दूसरे ट्रक में भरने का काम शुरू हुआ। पता चला कि कम से कम एक घंटा तो लग ही जाएगा। भूख भी लगने लगी थी। वह तो भला हो मामीजी का कि चलते समय सब्ज़ी-पूरी बांधकर दे दी थी कि इतनी रात में घर पहुँचकर कहाँ खाना बनाते फिरोगे। गाड़ी में बैठे-बैठे वृंदा और मैंने भोजन कर लिया। दस बजने जा रहे थे पर रास्ता अभी नहीं खुला था। खाना खाकर नींद भी आने लगी थी।
पौने ग्यारह बजे जाम खुला और गाड़ियों ने रेंगना शुरू किया। थकान और नींद हावी हो रही थी तो गाड़ी चलाना भारी लगने लगा। वृंदा ने कहा कि रात में कहीं रुक जाते हैं, सुबह निकल चलेंगे। मुज़फ़्फ़रनगर से पहले उसी रिज़ोर्ट में रुकना तय किया जहाँ देहरादून से दिल्ली आते-जाते समय हम अक्सर रुककर थोड़ा रेस्ट कर लिया करते हैं। बढ़िया नाश्ता मिलता है। कुछ कमरे भी हैं। गाड़ी वहाँ लगाई तो साढ़े ग्यारह बज चुके थे। हमें कमरा मिल गया पर उसके बाद एक के बाद एक गाड़ियाँ वहाँ रुकने लगी और सारे कमरे फुल हो गए।
सोचा था सुबह छः बजे के क़रीब निकल पड़ेंगे, पर आँख खुली तो नौ बज रहे थे। जल्दी नहा- धो कर तैयार हुए और बाहर आए तो दस बज रहे थे और हाल में भीड़ लगी थी। अक्सर होटलों में सुबह का नाश्ता किराए में ही सम्मिलित होता है तो लोगों को लगता है कि ब्रेकफ़ास्ट फ़्री है। स्टाल पर नाश्ते की सामग्री लगी हुई थी और लोग उस पर टूटे पड़ रहे थे। ब्रेकफ़ास्ट का समय साढ़े दस बजे तक था तो हमने सोचा हम भी थोड़ा सा कुछ ले लें और निकलें। पर वहाँ तो पूरा मजमा लगा हुआ था। लोगों ने अपनी-अपनी प्लेटों में आठ-आठ दस-दस टोस्ट, मक्खन, जैम, ऑमलेट और न जाने क्या-क्या भरा हुआ था। दो-दो, तीन- तीन गिलास जूस के भरकर अपनी मेज़ों पर रख लिए थे। मम्मियाँ बच्चों को ठूँस- ठूँस कर खिला रही थी। अधिकांश बच्चे नींद की झोंक में थे और कुछ खाना नहीं चाहते थे पर मम्मियाँ उनके पीछे पड़ी हुई थी कि खा। आख़िर नाश्ता फ़्री था, उसे छोड़ा नहीं जा सकता था।
हम असमंजस में थे कि हमें देखकर भावेश दौड़कर आया। भावेश देहरादून का ही लड़का है और यहाँ रिज़ॉर्ट में काम करता है। भावेश को पता है कि हम देहरादून से हैं तो हमेशा वह ही हमें सर्व किया करता है। अब तो वह अपना सा हो गया है। उसने कहा, “सर, आप कमरे में बैठिए, मैं वहीं कुछ लाता हूँ।” मैंने कहा कि ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए, बस कुछ टोस्ट और चाय मिल जाए। दस मिनट बाद भावेश हम दोनों के लिए चार- चार मक्खन लगे टोस्ट और दो कप चाय कमरे में रख गया। हम अब जल्दी ही निकलना चाहते थे तो फटाफट नाश्ता किया। कमरा बंद करके काउंटर पर आकर भुगतान किया और निकलने लगे तो देखा हाल खाली हो चुका था। लोग जा चुके थे पर मेज़ों पर खाने के सामान से आधी भरी प्लेटें, आधे भरे हुए जूस के गिलास मुँह चिढ़ा रहे थे। हर आदमी को यह पता होता है कि मैं कितना खा-पी सकता हूँ, पर आख़िर ब्रेकफास्ट फ़्री था न। जितना जूठा खाना प्लेटों में पड़ा हुआ था, उससे एक दर्ज़न लोगों का पेट भर सकता था।
बृज राज किशोर ‘राहगीर’
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड
मेरठ (उ.प्र.)-250001