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अभिव्यक्त संवेदना की यथार्थवादी पृष्टभूमि का व्यापक परिदृष्य


        “ जीवन एक सतत् चलने वाली अनुभूतिपरक प्रक्रिया है जो विभिन्न घटनाक्रमों में नवीनतम सीख को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है और शिक्षा को स्वरुप में लाने के लिए कहीं - कहीं हमें बाध्यता के बंधन में स्वाभाविक रूप से बंधना पड़ता है परन्तु इस परिवेश के माध्यम से प्रेरणायुक्त विचारों को आन्तरिक धरातल की अनुभूति से अंतर्मन द्वारा सकारात्मक संकेत मिलने पर जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को आत्मसात करना महत्वपूर्ण बात हो जाती है । इस प्रकार मानव द्वारा स्थायी सुख एवं शांति की प्राप्ति से जुड़े मसलों को जीवन में सम्मिलित होने की अनुमति मानवीय हृदय द्वारा प्राप्त हो जाती है , सामान्यत: मानव उस निश्चित परिस्थिति या घटनाक्रम अथवा इससे संलग्न व्यक्तियों द्वारा व्यावहारिक कर्म की सफलता हेतु अनेक प्रसंगों से उत्पन्न कल्याण युक्त श्रेष्ठ विचारों के प्रति आभार व्यक्त करता है जो व्यावहारिक पृष्ठभूमि की अनुभूति पर खरे उतर चुके हैं । ”

क्रियाशील जीवन का निष्ठापूर्ण आरंभ :

उद्देश्य की सार्थक सिद्धि को फलीभूत करने की उत्कंठा मानव हृदय में एक प्रकार का कभी न समाप्त होने वाला कोलाहल उत्पन्न कर देती है तथा इस ध्वनि के वेग पर पूर्ण एकाग्रचित अवस्था की बलिदानी स्थिति को न्यौछावर करके परिणाम प्राप्ति की प्रतीक्षा की जाए तो स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि मानव मन की पुकार सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष के सम्मिश्रण हेतु कितनी बैचेन है परन्तु क्या यह बौखलाहट चाहत के अनुरूप परिणित हो जाएगी तो प्रत्युतर मिलेगा कि अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा ।


यह तथ्य यदि उजागर होकर हमारे समक्ष उपस्थित होता है तो यह मान लेना चाहिए कि जो सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है उसके गर्भ में सत्य का व्यावहारिक धरातल अवश्य विद्यमान है अत: समागम की पूर्ण सम्भावना तथा सिद्धि की निश्चितता ही इस बात का ठोस परिणाम है कि जब भी मानव जाति ने महान एवं अनुकरणीय इतिहास को रचना चाहा उसने ‘ मार्ग ’ को पुरुषार्थ के सकारात्मक स्वरुप से ख़ोज निकाला है ।

उस मार्ग पर मंजिल तक पहुँचने की पावन अभिलाषा को मानस - पटल पर लिपिबद्ध कर कठिनाईयों का बहादुरी से सामना करते हुए कभी पीछे मुड़कर न देखने का संकल्प ही मानव को सक्षम बनाने में मददगार बनता है एवं समस्त दु:खों को सहन करते हुए अनुपम स्मृतियों की अनुभूति द्वारा परिश्रम से गतिमान अवस्था को जीवन में सुनिश्चित किया जाना चाहिए जिससे इस व्यावहारिक स्थिति को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित कर क्रियाशील जीवन का – ‘ आरंभ ’ पूर्ण निष्ठा के साथ किया जा सकता है ।

श्रेष्ठतम संस्कारों की अंकित छवि :

संसार में मानव द्वारा स्थापित किये जाने वाले समस्त उत्कर्षों का आधार मानवीय कर्म है जो विभिन्न स्थिति एवं परिस्थिति में आपसी व्यवहार के फलस्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं ऐसा नहीं है कि दूर से देखने मात्र से ही व्यवहार की कुशलता का आभास अन्य लोगों को हो जाता है बल्कि अनेक प्रसंगों व घटनाओं के समय व्यक्ति की व्यवहारिक समझ एवं निष्पक्ष सूझ - बूझ का परिचय मिलता है ।

तब चारों ओर के विभिन्न पहलुओं पर मानवता की अमिट छवि अंकित हो जाती है जो एक दृष्टांत बनकर सामाजिक ढांचे में एक सूत्र के रूप में उभरकर प्रकट होते हैं जिन्हें लोग अपनाने हेतु अपनी स्मृतियों में संजों लेते हैं और प्रयास करते हैं कि इस प्रकार के स्वर्णिम सूत्र हृदय में सदा के लिए अंकित हो जायें और हम जीवन में न्याय का साथ देते हुए सर्व से प्रेम कर सकें जिसमें छोटा - बड़ा , ऊँच - नींच , अपना - पराया इत्यादि कुण्ठित भावनाओं के लिए तनिक भी स्थान न रहे ।

व्यावहारिक संबंधो का वास्तविक रूप हम आपके और आप हमारे बन जाएं जिसे मानवीय संवेदना के बोध स्वरुप यह स्वीकार किया जाता है कि यदि पराये अपने हो जाएं तो मनुष्य का सौभाग्य होता है अत: सदा यह प्रयास रहना चाहिए कि अपने तो अपने रहें हीं , पराएं भी अपने हो जाएं अर्थात् मन:स्थिति में केवल अपनाने की ही भावना उत्पन्न होती रहे तथा कभी हमारे शब्दकोष में पराये शब्द को प्रश्रय न मिले और यदि अपनत्व का भाव , पूर्ण सकारात्मक शैली में ग्रहण किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि श्रेष्ठतम संस्कारों की – ‘ अंकित ’ छवि ही मानस की वास्तविक धरोहर है ।

मानवीय गरिमा का अंकुरित स्वरूप :

सत्संग की महिमा से बहुधा सम्पूर्ण जन - मानस परिचित रहता है परन्तु इसका वास्तविक अर्थ जानने का प्रयास किया जाए तो ज्ञात होगा कि ‘ सत्य का संग ’ अर्थात् सत्य की पहचान एवं जीवन में सत्य के साथ रहने का भरपूर साहस होना चाहिए क्योंकि सत्य की विजय तो अंत में होती है इसलिए जीवन संग्राम में मानव को अंत समय तक संघर्ष करते हुए पुरुषार्थ करना पड़ता है जिससे कर्म - क्षेत्र के अंतर्गत बहुसंख्यक चिंतन की धाराएं विपरीत दिशा में भी प्रेरित करती हैं ।

ऐसी स्थिति में संघर्षरत व्यक्ति के पथ - विचलन की सम्भावना बढ़ जाती है और मानव मन डांवाडोल होने लगता है तथा व्यक्ति द्वारा यह सोचा जाता है कि मेरे साथ तथा मेरे पीछे चलने वाले लोग संसार की धारा में धनोपार्जन करते हुए गतिशील हैं एवं मैं सत्य के सिद्धांतों की दुहाई देते हुए जीवन को बोझिल समझ , जी रहा हूँ ऐसा मेरे द्वारा आन्तरिक रूप से अनुभव किया जाता है तथा स्वयं का प्रस्तुतीकरण अपने साथियों के समक्ष इस प्रकार से करता हूँ कि वे कितने सुखी एवं भाग्यवान हैं तथा मुझे लगता है कि मैं जीवन में कुछ नहीं कर पाऊंगा ।

इस प्रकार निजी मापदंड अर्थात् मानव की सफलता का पैमाना केवल धनोपार्जन को स्वीकार कर समझौतावादी दृष्टिकोंण को अपनाते हुए किसी भी प्रकार का श्रम करके धन का अर्जन करना सम्पूर्ण सफल होने का प्रतीक मान लिया गया है अत: जीवन के विरोधाभास से मुक्त हो सत्य का सार्थक प्रयोग - ‘ सत्यम शिवम् सुन्दरम् ’ के महामंत्र की निरंतर स्मृति का अनुभव करते हुए श्रेष्ठ कर्मों द्वारा जीवन के उपवन में मानवीय गरिमा – ‘ अंकुरित ’ की जा सकती है ।

आत्मिक अनुशासन में अप्रत्यक्ष अंकुश :

बहुधा मानव अपनी समस्त शक्ति का विनियोजन किसी भी वस्तु , पदार्थ एवं इच्छाओं की प्राप्ति अथवा दमन करने में व्यय कर देता है फिर भी सत्य के मार्ग पर चलते हुए स्वयं को भार युक्त अर्थात् बोझिल समझता है और प्रयास की श्रृंखला में मानसिक तैयारी करता रहता है कि इस बार मैं संकल्प ले लूँगा कि कामनाओं का त्याग हमेशा के लिए कर दूँ परन्तु यदि नियंत्रण एवं त्याग के पश्चात् किसी भी वस्तु एवं पदार्थ अथवा व्यक्ति के प्रति आकर्षण बना हुआ है जो इस बात का परिणाम है कि वैराग्य वृति का अनुपालन पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता है ।

यह भी सच है कि सूक्ष्म तक पहुँचने के लिए स्थूल से अपना प्रयास आरंभ करना होगा तभी हम सार्थक पुरुषार्थी की पंक्ति में स्वयं को शामिल कर सकेंगे और हमें इस बात के प्रति दृढ़ होना पड़ेगा कि जिन प्राप्तियों की ओर हम अग्रसर हो रहे हैं उनके अस्तित्व तथा स्थायित्व के बोध हेतु पुरुषार्थ के क्षेत्र में स्वयं को परखना होगा , अत: निर्धारित नियमों पर चलने के साथ - साथ उस मार्ग तक पहुँचने वाले लोगों के अनुभवी विचारों को सम्पूर्ण समादर एवं विनम्रता के साथ आत्मसात करना होगा ।

दूसरी ओर स्वयं के कर्म को प्रधानता देकर हम केवल अपने अहम् को संतुष्ट कर सकते हैं इसलिए आवश्यकता है इस बात को गहराई से परखने की , जिससे कहीं हमारी मन:स्थिति इस बात के लिए बेचैन तो नहीं है कि अवसर मिले और अपने आन्तरिक सम्मान पाने की क्षणिक अभिलाषा को हम तृप्त कर लें , इस प्रकार इन्द्रिय सीमा से परे , अतिंद्रिय सुखों से मंजिल की प्राप्ति हेतु हमारे विश्वास में सार्थक वृद्धि हो सकेगी और तब स्वत: ही लग जाएगा कर्मेन्द्रियों पर आत्मिक अनुशासन का अप्रत्यक्ष – ‘ अंकुश ’ ।

वास्तविक प्रेरणा को अंगीकार करना :

जीवन एक सतत् चलने वाली अनुभूतिपरक प्रक्रिया है जो विभिन्न घटनाक्रमों में नवीनतम सीख को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है और शिक्षा को स्वरुप में लाने के लिए कहीं - कहीं हमें बाध्यता के बंधन में स्वाभाविक रूप से बंधना पड़ता है परन्तु इस परिवेश के माध्यम से प्रेरणायुक्त विचारों को आन्तरिक धरातल की अनुभूति से अंतर्मन द्वारा सकारात्मक संकेत मिलने पर जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को आत्मसात करना महत्वपूर्ण बात हो जाती है ।

इस प्रकार मानव द्वारा स्थायी सुख एवं शांति की प्राप्ति से जुड़े मसलों को जीवन में सम्मिलित होने की अनुमति मानवीय हृदय द्वारा प्राप्त हो जाती है , सामान्यत: मानव उस निश्चित परिस्थिति या घटनाक्रम अथवा इससे संलग्न व्यक्तियों द्वारा व्यावहारिक कर्म की सफलता हेतु अनेक प्रसंगों से उत्पन्न कल्याण युक्त श्रेष्ठ विचारों के प्रति आभार व्यक्त करता हैं जो व्यावहारिक पृष्ठभूमि की अनुभूति पर खरे उतर चुके हैं ।

यह समस्त स्थिति उस समय निर्मित होती है जब मानवीय प्रयासों की श्रृंखला सकारात्मक दिशा में कार्य कर रही होती है परन्तु जीवन में कुरूपता का समावेश उस समय होने लगता है जब जनमानस परिस्थितियों एवं घटनाक्रमों द्वारा इस बात की ख़ोज करने लगता है कि अस्थायी या क्षणिक लाभ की प्राप्ति किन संसाधनों के फलस्वरुप होती है तथा उसकी प्राप्ति हेतु किस प्रकार के उपक्रमों की आवश्यकता होगी , अतः इस दयनीय दशा से मानव को मुक्त होकर सही दिशा की ओर बढ़ना होगा तभी अंतरात्मा की आवाज़ को सुनकर वास्तविक प्रेरणा को – ‘ अंगीकार ’ किया जा सकेगा ।

– डॉ. अजय शुक्ल ( व्यवहार वैज्ञानिक )

– स्वर्ण पदक , अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सहस्राब्दी पुरस्कार – संयुक्त राष्ट्र संघ .

– अंतरराष्ट्रीय ध्यान एवं मानवतावादी चिंतक और मनोविज्ञान सलाहकार प्रमुख – विश्व हिंदी महासभा – भारत .

– राष्ट्रीय अध्यक्ष , अखिल भारतीय हिंदी महासभा – समन्वय , एकता एवं विकास , नई दिल्ली .

– अध्यक्ष , राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् , प्रधान मार्गदर्शक और सलाहकार , राष्ट्रीय सलाहकार मंडल – आदर्श संस्कार शाला , आदर्श युवा समिति , मथुरा , उतर प्रदेश .

– संपादक एवं संरक्षक सलाहकार , अनंत शोध सृजन – वैश्विक साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका – नासिक , महाराष्ट्र .

– प्रधान संपादक – मानवाधिकार मीडिया , वेब पोर्टल – विंध्य प्रांत , मध्य प्रदेश .

– प्रबंध निदेशक – आध्यात्मिक अनुसंधान अध्ययन एवं शैक्षणिक प्रशिक्षण केंद्र , – देवास – 455221 , मध्य प्रदेश . दूरभाष : 91 31 09 90 97 /