तुम्हारे सपने...,
मेरे तकीय की बगल में,
रातभर खेलते रहते हैं।
मैं बार-बार, उन्हें सुलाता हूँ;
वे भागते हैं,
और मुझे भी सोने नहीं देते हैं।
मैंने, उन्हें...
कई बार समझाया;
उनसे कहा -
क्यों, लौट आते हो बार-बार ?
तुम्हारा, इस तरह लौट आना,
बड़ा परेशान करता है।
तुम चले आते हो;
फिर...,
तुम्हारे आने के बाद,
कहाँ नींद का आना होता है।
कमबख़्त समझते नहीं,
बड़े जिद्दी हैं;
तकीय से झाड़ता हूँ,
बिस्तर में कहीं जा छिपते हैं।
मैं सोचता हूँ,
अब नहीं आयेंगे,
कुछ देर लेटता हूँ;
तुम्हारे सपने...,
फिर, लौट आते हैं।
पूरी रात निकल जाती है,
तुम्हारे सपनों को सुलाने में।
आँख, जब लगती है,
सवेरा निकल आता है।
सपने तो सो जाते हैं;
मगर, कोयल की कूक,
फिर, तुम्हारी याद ले आती है...।
अनिल कुमार केसरी,
भारतीय राजस्थानी।