वो शाम कुछ अजीब थी ……!
रात के क़रीब थी ।
रात गहरा रही थी शायद कुछ बता रही थी ।
इस ढलती रात में समेट रही थी कुछ ख़्वाब ।
ढूँढ रही थी मैं उन्हें इधर-उधर ।
नहीं आ रहे थे वो कहीं भी नज़र ।
बेचैन थीं सुनने को उनकी आवाज़ ।
पल भर में ये रिश्ते
बन जातें हैं कितने ख़ास ।
कौन अपना, कौन पराया !
नहीं समझ में आती ये बात ।
“करना होगा तुम्हें इंतज़ार “
कह कर इतना निकल गए वो बाहर ।
ना फेल ना पास, अधर में लटकी आस ।
ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ ।
मूक दर्शक बनी रह गई मैं अवाक्।
उम्मीदों के सहारे रही मैं खड़ी ।
ना ख़त्म हुई कभी इन्तज़ार की घड़ी ।
दिन लगे थे गुजरने ।
बहारें पतझड़ में लगी बदलने ।
बरस गईं कितनी बरसातें ।
धुँधलाने लगी उनकी यादें ।
वक़्त की धूल जब लगती थी जमने ।
धुल कर आंसुओं से…….!
तस्वीर लगती थी फिर से उभरने ।
निकल पड़ती हूँ आज भी
उस रात की सुबह को ढूँढने ।
बैठकर जब लगतीं हूँ सोचने ।
आते हैं ख़याल …..!!
कुछ अनसुलझे से सवाल !
कितनी मैं उनके करीब थी ।
बन गई वो शाम मेरा नसीब थी ।
वो शाम भी कुछ अजीब थी …..!!
आशा भाटिया
जनकपुरी नई दिल्ली