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वृक्ष की वेदना


कई दिनों से युवा वृक्ष की आम दिनों की भांति व्यवहारिकता को सामान्य न देखकर प्रौढ़ वृक्ष ने युवा वृक्ष से पूछा, क्या बात है प्रियवर, मैं देख रहा हूं बीते कुछ दिनों से, कि तुम्हारी शाखाएं और पत्ते आम दिनों की भांति कुछ थके थके प्रतीत होते हैं। वह उल्लास नहीं दिखता तुम में जो अन्य युवा वृक्षों में देखता हूं। इसका क्या कारण है।

युवा वृक्ष अनायास चौंक गया, जैसे उसकी तंद्रा भंग हो गई हो। अपनी शाखाओं को हौले हौले हिलाकर प्रौढ़ वृक्ष की ओर देखा और बोला, जी मान्यवर कुछ खास नहीं, बस यूं कुछ सोच रहा था।

आखिर ऐसी कौन सी बात है जो इंसानों की भांति तुम विचारों में खो गए और अपनी रोज की दिनचर्या को भुला बैठे। युवा वृक्ष की शाखाएं और पत्ते एकदम ठहर से गए। जैसे वह किसी इंसान की भांति किसी भारी पीड़ा से ग्रषित हो। कुछ देर सन्नाटा सा पसर गया फिर युवा वृक्ष ने कहा, आदरणीय सोच रहा हूं हमारा जीवन व्यर्थ है, निराशा भरा है। हम जहां पर खड़े हैं, वहीं पर पूरा जीवन खड़े रहेंगे और एक दिन खड़े ही जीवन की अंतिम सांस लेंगे।

प्रौढ़ वृक्ष ने कहा ओह,, तो तुम्हारी बेकली का यह कारण है प्रियवर,, इसमें तुम्हारी गलती नहीं। आस पास के वातावरण का असर दीवारों तक पर पड़ता है,तुम और हम तो वृक्ष हैं, लेकिन जीव हम सब में भी है,तो भला वातावरण से प्रभावित क्यों न हों। घंटों हम लोगों की छाया में बैठकर इंसान अपनी अपनी महत्वाकांक्षाओं, चिंताओं पर बाते करता है ।उनकी बातों का असर भले ही हमारी बिरादरी पर न पड़े लेकिन कुछ हैं जो तुम्हारी तरह उनकी सोच के शिकार हो जाते हैं।

इतना सुनते ही युवा वृक्ष की शाखाएं हिल गईं ,जैसे कि वह इस बात से असहमत हो , जैसे कोई इंसान पूरे शरीर को झकझोर कर असहमति व्यक्त कर रहा हो, विरोध व्यक्त कर रहा हो, इस तरह के भाव युवा वृक्ष के व्यवहार से प्रदर्शित हुए। फिर प्रौढ़ वृक्ष से बोला जी मान्यवर ऐसा नहीं है। मेरे सोचने का सिर्फ आशय यह है, कि हम लोगों के जीवन का उद्देश्य क्या है। जहां पर खड़े हैं, खड़े रहेंगे ,और बस खड़े रहेंगे और एक इसी जगह पर जीवन का अंत हो जाएगा।

प्रौढ़ वृक्ष ने अपनी प्रौढ़ शाखाओं पर शोभित पत्तों को जोर से लहराया जैसे कि उल्लास से भर कर मुस्करा रहा हो।फिर बोला, लेकिन मुझे वृक्ष होने पर गर्व है। मैं स्वयं को धन्य मानता हूं कि मैं वृक्ष हूं समझे। अब सुनो प्रियवर, हम इसलिए खुश हैं कि क्योंकि त्याग की प्रतमूर्ति हैं हम, सेवा भाव मुझे जन्म से मिला है। हम लोगों को देते हैं, लेते कुछ नहीं। हम दानी हैं, याचक नहीं। लोगों को हमसे अपेक्षा रहती है, लेकिन मुझे नहीं। हम लोगों को स्वस्थ जीवन प्रदान करते हैं ऑक्सजिन देकर, फल देकर, छाया देकर। हम धरती को उर्वरा शक्ति प्रदान करते हैं। हम जीवित रहते जहां लोगों को स्वच्छ हवा, फल, छाया प्रदान करते तो वहीं अपना बलिदान देकर लोगों की उन समस्त जरूरतों को पूरा करता हूं, जो आम जन से लेकर खास लोगों को प्राप्त होता है,फर्नीचर से लेकर अट्टालिकों को सजाने संभालने तक मेरी लकड़ी से पूर्ति होती है। लोग दुनियां में आते हैं, जाते हैं, लेकिन हम उनके घरों महलों में सदियों तक तटस्थ रहते हैं, बने रहते हैं। अरे हम अपना जीवन खोकर भी जिंदाबाद रहते हैं। हमें लोग निर्दयता से काटते हैं, जलाते हैं, लेकिन हम जलकर ख़ाक होकर मिट्टी में मिल जाते हैं। मिट्टी में मिलकर मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं, और मिट्टी में मिलकर जिस मिट्टी ने हमें जन्म दिया है उसका कर्ज चुकाते हैं। इसलिए तुम व्यर्थ में चिंतित हो प्रियवर। हम वृक्ष हैं जरूर, हम भले ही चल नहीं सकते, लेकिन यह भी सच है प्यारे,हम लोगों के बिना यह दुनियां भी नहीं चल सकती। यह संसार हमारे बिना चल सकता। हमारे बिना संसार का अस्तित्व ही संभव नहीं।

इतना सुनते ही युवा वृक्ष ने अपनी शाखाओं को नीचे की ओर झुकाकर प्रौढ़ वृक्ष को नमन किया और बोला, आदरणीय धन्य हो आप जो आपने मुझ मूढ़ की आंखें खोल दीं। सच में ईश्वर की बड़ी अनुकंपा है कि उसने मुझे यह पवित्र योनि प्रदान की। मेरा जीवन लोगों को जीवन जीने में बड़ा योगदान देता है। दोनों वृक्षों की शाखाएं झूम उठीं। युवा वृक्ष तनाव मुक्त होकर शाखाओं को निरंतर लहरा रहा था। प्रौढ़ वृक्ष उसका समर्थन अपनी शाखाओं को लहराकर कर था।

रामबाबू शुक्ला
शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश