उजले भ्रम की
तुम छाया मत छूना।
इस छाया में
गहन अँधेरा
बैठ जुगाली करता है
पनघट-पनघट
प्यासा सागर
सिर्फ़ दलाली करता है
सुनो पथिक
मैले रिश्तों
का साया मत छूना
रिश्तों में अब
गंध कहाँ है
घुली साँस में कड़वाहट
कुछ कह दो तो
साफ़ झलकती
चेहरों पर की झल्लाहट
सुनो पथिक
कलुषित आँगन
की माया मत छूना।
इस आँगन में
खिंची दिवारें
वैमनस्य की उगी फसल
अहं खड़ा है
मुँह को फेरे
झूठ-मूठ का पिए गरल
सुनो पथिक
समझौतों की
तुम काया मत छूना।
जयप्रकाश श्रीवास्तव
आई.सी.५ सैनिक सोसायटी शक्तिनगर
जबलपुर, मध्यप्रदेश