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भारतीयता की पृष्ठभूमि


“सिया राम मय सब जग जानी :
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ”

    “ भारतीयता की पृष्ठभूमि में भारतीय आत्मा द्वारा – “ सर्व धर्म समभाव... ” के उद्घोष को विराटता के सानिध्य में – “ बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय...” की संस्कृति के माध्यम से संपूर्ण मानवता को सुखी बनाने के संदर्भित प्रसंग में – “ सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया...” के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए संपूर्ण विश्व को ही – “ वसुधैव कुटुंबकम...” की गरिमा के विहंगम स्वरूप में स्वीकार कर लेता है जिसमें – विश्व गुरु भारत , द्वारा धर्म ग्रंथो से आलोकित – “ सिया राम मय सब जग जानी : करहु प्रणाम जोरी जुग पानी... ” का महानतम संदेश समाहित रहता है । शुभ भावना एवं शुभ कामना के आत्मगत स्वरूप द्वारा सर्वगुण सम्पन्नता की उच्चता का निर्माण , अंत:करण में आत्महित से आरंभ होकर सर्व मानव आत्माओं के उन्नयन और उत्थान हेतु निरंतर गतिशील रहता है । आत्मगत समभाव की सुखद परिणिति , मानव जीवन शैली की गतिशीलता के रहस्य को उजागर करती है जिसमें गुणात्मक परिवर्तन एवं परिवर्धन हेतु – ‘ राजयोग द्वारा आध्यात्मिक पुरुषार्थ की उपयोगिता ...’ को संपूर्ण , समादर भाव से आत्मिक परिष्कार हेतु आत्मसात किया जाना आवश्यक होता है । आत्म ज्ञान की बोधगम्यता में ‘ सत्य – दर्शन ’ की स्वाभाविकता , आत्मिक सम्पन्नता का बहुमुखी स्वरुप होता है जिसमें – ‘ आत्मगत स्वभाव की सहजता एवं सरलता ...’ सामाजिक समरसता के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होती रहती है । ”

आत्मज्ञान अभ्युदय की नैसर्गिक अनुभूति :

दिव्य गुणों से एवं शक्तियों से सुसज्जित मानव आत्माएँ सदा आत्मज्ञान के अभ्युदय की नैसर्गिक अनुभूति से गतिशील रहती हैं और अर्न्तमुखी अवस्था के लिए पुरुषार्थ करते हुए राजयोग का अनुकरण करके मौन स्वरूप में परिवर्तित हो जाती हैं । जीवन में आत्मज्ञान के प्रस्फुटित स्वरुप से चेतना की चेतनता को संपूर्ण संचेतना की व्यापकता के साथ अनुभव किया जा सकता है जिसमें – निमित्त , अकर्ता रूप का ज्ञायक भाव ही उपस्थित रहता है जो आत्मानुभूति की स्वतंत्रता को प्रतिपादित करता है । मनुष्य जन्म की सौभाग्यशाली स्थिति को सामर्थ्यवान अवस्था में परिणित करने हेतु आत्मबल का सहारा लिया जाता है जो आत्मिक शक्तियों की उपयोगिता को – मन , वचन एवं कर्म के सात्विक स्वरूप से आत्मसात करने के प्रबल पुरुषार्थ में सुनिश्चित किया जाता है । आत्मज्ञान के अभ्युदय होने पर आत्मिक बोधगम्यता का परिवेश अभिवृद्धि को प्राप्त होते हुए , आत्मानुभूति के वृहद् परिदृश्य की ओर गतिशील होता है जहां से अतिइन्द्रिय सुख एवं शाँति की गहन अनुभूति , जीवात्मा द्वारा किया जाना सहज हो जाता है । जीवात्मा जब स्वयं को स्वानुभूति के रहस्यमयी स्वरूप में प्राप्त कर लेती है तब उसकी धन्यता का पक्ष आत्मानंद के संदृश्य परिलक्षित होने लगता है और वह आत्मानुभूति से परमात्मानुभूति की ओर अग्रसर हो जाती है ।

सत्य दर्शन का आध्यात्मिक दृष्टिकोण :

जीवन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में – “ मातृ देवो भव: , पितृ देवो भव: , आचार्य देवो भव: , सत्यं वद , धर्म चर .. ” का अनुष्ठान करते हुए जब मानव जाति गतिशीलता की ओर अभिमुखित होती है तब – ‘सत्य दर्शन’ का अलौकिक स्वरुप मानवीय संवेदनशीलता के रूप में प्रस्फुटित होता है । आत्मगत स्थिति की वास्तविकता को उसके मूलभूत अस्तित्व गुण – “ अजर , अमर , अविनाशी , अचल , अडोल एवं स्थितप्रज्ञ ... ” के नैसर्गिक रूप में ही स्वीकारना – ‘ सत्य दर्शन ’ के प्रति श्रध्दावान होने की परिणिति है जिसमें आत्मा के स्वमान , स्वरुप एवं स्वभाव के अनुसार जीवन के ब्यावहारिक पक्ष को पूर्णत: आत्मसात करने की जीवंतता सन्निहित रहती है । सत्य दर्शन का आध्यात्मिक दृष्टिकोण सदा ही लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक स्वरुप के मध्य निर्धारित अन्तराल को मान्यता प्रदान करता है और स्वाध्याय में प्रमुख एवं गौण के अंतर्गत ‘ भेद - विज्ञान ’ का अनुपालन करते हुए आत्म तत्व का विश्लेष्णात्मक अध्ययन – ‘ आत्म कल्याण ’ के संदर्भ तथा प्रसंग में किया जाता है । आत्मिक भाव , भासना के सानिध्य में निज , निधि - निजानंद के मंगल स्वरुप की अलौकिक चेतना - सत्यम , शिवम - सुन्दरम की पारलौकिक विराटता में सत, चित्त , आनंद अर्थात - सच्चिदानंद की अनुभूति में सम्बद्ध हो जाती है । ‘ सत्य ही ईश्वर है , ईश्वर ही सत्य है ’ का आध्यात्मिक स्वरूप मानव जीवन में सदा - ‘ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वत: ’ अर्थात् हे प्रभु – मेरे समीप चहुँ दिशाओं से पवित्र विचारों के आगमन का आह्वान करते हुए – पुण्यात्मा , महात्मा , धर्मात्मा एवं देवात्मा , स्वरूप में स्थापित होने का पुरुषार्थ अनवरत गतिशील होता रहे ।

आत्मिक संपन्नता के व्यावहारिक परिदृश्य :

धर्म एवं कर्म के विधिवत निर्वहन से – ‘ उपराम स्थिति ’ के निर्माण की पूर्णता चेतना का परिष्कृत स्वरूप है जिसमें जीवात्मा , कर्मबन्धन से मुक्त होकर आत्म वैभव की सत्यता का सहज अनुभव करती है । जीवन में कर्मयोग संपादित करते हुए स्वयं को आध्यात्मिक पुरुषार्थ की शक्ति से सदा , कर्म के संबंध से सुरक्षित रखने की उच्चतम प्राप्ति आत्मा के कर्मातीत अवस्था का सुखद परिणाम है जो आत्मिक सम्पन्नता के स्थायित्व को प्रतिपादित करता है । अव्यक्त स्वरुप की आत्मिक उपलब्धि जीवन की सर्वोच्चता का जीवंत प्रमाण है जो राजयोग से मौन की ओर गतिशीलता को सुनिश्चित करके – ‘ आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रता ’ के व्यावहारिक परिदृश्य को स्थापित कर देता है । सर्वगुण सम्पन्नता की व्यावहारिकता को आत्मानुभूति के माध्यम से सदा आत्महित की संलग्नता के सानिध्य में – ‘ आत्मगत चेतना की चेतनता ... ’ को बनाए रखना , जीवन के परिष्कृत स्वरुप हेतु किया जाने वाला – ‘ आत्म केन्द्रित ’ स्वाध्याय होता है । जीवात्मा द्वारा प्रकृति के – ‘ पंच तत्वों को पावन ’ बनाने की सेवा का - उत्तरदायित्व , आत्मिक सम्पन्नता के व्यावहारिक स्वरुप को – ‘ आभारयुक्त उदारता के संवेदनशील दृष्टिकोण ... ’ से पूर्णता प्रदान करने में मददगार सिद्ध होता है ।

संपूर्ण समर्पण द्वारा सर्वगुण सम्पन्नता :

जगत में आराध्य के प्रति ‘ भक्ति – भाव से सम्पूर्ण – समर्पण ’ के व्यावहारिक उदाहरण दुर्लभ स्वरुप में विद्यमान है जिसका अध्ययन एवं विश्लेषण करने से भक्तिकालीन सभ्यता और संस्कृति के उच्चतम आयाम ‘ स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा ..’ के व्यापक परिदृश्य में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । ज्ञान की बोधगम्यता से जुड़ी यथार्थ आत्मानुभूति जब - ‘ श्रद्धावान लभते ज्ञानम् ..’ के संदर्भ एवं प्रसंग की विशिष्ट भूमिका के सानिध्य में संपूर्ण समर्पण द्वारा प्रस्फुटित होती है तब - ‘ आत्मा स्वयं का ही मित्र..’ बनकर आत्मिक वैभव सम्पन्नता की उच्चता प्राप्त करती है । शुभ भावना एवं शुभ कामना के आत्मगत स्वरूप द्वारा सर्वगुण सम्पन्नता की उच्चता का निर्माण , अंत:करण में आत्महित से आरंभ होकर सर्व मानव आत्माओं के उन्नयन और उत्थान हेतु निरंतर गतिशील रहता है ।

आत्मज्ञान युक्त भक्ति का पवित्रम स्वरूप :

आत्मिक समृद्धि की मंगलकारी अवस्था सदा आत्मा के गुणों एवं शक्तियों से भरपूर रहती है जिसमें लोक कल्याणकारी भाव जगत की उपलब्धिपूर्ण गरिमामयी स्वरूप की विराटता का आभामंडल स्वमेव ही चहुँ दिशाओं में व्याप्त हो जाता है । परमात्म सत्ता के समक्ष सम्पूर्ण समर्पण , आत्मज्ञान युक्त भक्ति का पवित्रतम स्वरूप है जो आत्मिक परिदृश्य के सम्पूर्ण परिवेश को ‘ सर्वगुण – सम्पन्नता ’ की नैसर्गिक उच्चता में रूपांतरित कर देता है । जीवन में ‘ धर्म – कर्म ’ के सामंजस्य से उपजने वाले ‘ सुखद – संयोग ’ को जीवात्मा द्वारा आत्मसात् करते हुए जब ‘ आध्यात्म – पुरुषार्थ ’ के संदर्भित , गरिमामई स्वरूप को – “ बड़े भाग्य मानुष तन पावा ...” की व्याख्या के सानिध्य में व्यावहारिकता के साथ चरितार्थ कर देता है तब आत्मज्ञान युक्त भक्ति का पवित्रम स्वरूप आत्महितकारी स्वरूप में स्वयं सिद्ध हो जाता है ।

आत्मगत समभाव में सामाजिक समरसता :

समाज में शांति, अहिंसा एवं पवित्रता की स्थापना में - धर्म , अध्यात्म और राजयोग के अवदान को वैश्विक दृष्टिकोण से वृहद स्तर पर स्वीकारोक्ति प्राप्त हुई है जिसके परिणाम स्वरूप – आत्मानुभूति के द्वारा “ अहिंसक जीवन शैली की नैसर्गिक व्यावहारिकता ... ” आत्मगत समभाव के रूप में – ‘ मानव समाज की समरसता ’ के माध्यम से प्रकट हो सकी है । जीवन की शुचिता का नैतिक धर्म , आत्मगत चेतना के प्रति संवेदनशील दृष्टिगत मनोभाव अपनाते हुए सदैव श्रेष्ठ मानव व्यवहार के योगदान की उज्जवल पृष्ठभूमि को संपूर्ण मनोयोग से रेखांकित करता है ताकि नैतिकता के उच्चतम मानदंड की गरिमा को बनाए रखने में मदद प्राप्त हो जाए । आत्मगत समभाव की सुखद परिणिति , मानव जीवन शैली की गतिशीलता के रहस्य को उजागर करती है जिसमें गुणात्मक परिवर्तन एवं परिवर्धन हेतु – “ राजयोग द्वारा आध्यात्मिक पुरुषार्थ की उपयोगिता ... ” को संपूर्ण , समादर भाव से आत्मिक परिष्कार हेतु आत्मसात किया जाना आवश्यक होता है ।

जीवात्मा के सर्वांगीण विकास की सुनिश्चितता :

चेतना का परिष्कृत स्वरुप जब सत्कर्म की गतिशील प्रवृति के अनुकरण एवं अनुसरण की सत्यता को जीवात्मा के सर्वागीण विकास की सुनिश्चितता के संदर्भ एवं प्रसंग में सम्प्रेषित करता है तब सामाजिक समरसता की प्रमाणिकता सहज ही स्थापित हो जाती है । आत्म ज्ञान की बोधगम्यता में – ‘ सत्य दर्शन ’ की स्वाभाविकता आत्मिक सम्पन्नता का बहुमुखी स्वरुप होता है जिसमें – “ आत्मगत स्वभाव की सहजता एवं सरलता ...” सामाजिक समरसता के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होती रहती है । भारतीयता की पृष्ठभूमि में भारतीय आत्मा द्वारा – “ सर्व धर्म समभाव... ” के उद्घोष को विराटता के सानिध्य में – “ बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय...” की संस्कृति के माध्यम से संपूर्ण मानवता को सुखी बनाने के संदर्भित प्रसंग में – “ सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया...” के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए संपूर्ण विश्व को ही – “ वसुधैव कुटुंबकम...” की गरिमा के विहंगम स्वरूप में स्वीकार कर लेता है जिसमें – विश्व गुरु भारत , द्वारा धर्म ग्रंथो से आलोकित – “ सिया राम मय सब जग जानी : करहु प्रणाम जोरी जुग पानी...” का महानतम संदेश समाहित रहता है ।


– डॉ० अजय शुक्ल (व्यवहार वैज्ञानिक)
– स्वर्ण पदक , अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सहस्राब्दी पुरस्कार – संयुक्त राष्ट्र संघ .
– अंतरराष्ट्रीय ध्यान एवं मानवतावादी चिंतक और मनोविज्ञान सलाहकार प्रमुख – विश्व हिंदी महासभा भारत .
– राष्ट्रीय अध्यक्ष , अखिल भारतीय हिंदी महासभा – समन्वय , एकता एवं विकास , नई दिल्ली .
– अध्यक्ष , राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् , प्रधान मार्गदर्शक और सलाहकार , राष्ट्रीय सलाहकार मंडल – आदर्श संस्कार शाला , आदर्श युवा समिति , मथुरा , उतर प्रदेश .
– संपादक एवं संरक्षक सलाहकार , अनंत शोध सृजन – वैश्विक साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका – नासिक , महाराष्ट्र .
– प्रधान संपादक – मानवाधिकार मीडिया , वेब पोर्टल – विंध्य प्रांत , मध्य प्रदेश .
– प्रबंध निदेशक – आध्यात्मिक अनुसंधान अध्ययन एवं शैक्षणिक प्रशिक्षण केंद्र ,
– देवास – 455221 , मध्य प्रदेश .