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शिक्षक की प्रभावशीलता: अवधारणा एवं रूपरेखा


    शिक्षक की प्रभावशीलता— प्रभावशीलता के संदर्भ में शिक्षण कार्य अधिगमकर्ता की सहभागिता और अन्य घटकों के साथ-साथ इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षक/शिक्षिका का प्रयास कितना प्रभावकारी है? शिक्षक की जनछवि एवं आत्मछवि का मूलभूत आधार शिक्षक की प्रभावशीलता होना चाहिए और इस प्रभावशीलता के बारे में सबसे उपयुक्‍त राय शिक्षक (स्वयं), विद्यालय प्रमुख, साथी शिक्षकों एवं अधिगमकर्ता की हो सकती है। हम अपने पढ़ने-लिखने के दिनों को याद करें तो स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि, ‘अमुक शिक्षक क्या गज़ब पढ़ाते थे, उनकी कक्षा में सिखाई गई चीजे़ मेरे लिए बहुत काम की थीं, उस विषय विशेष को और अधिक गहराई से जानने-समझने की रुचि उत्पन्न हुई। आगे की कक्षाओं में उस विषय को पढ़ने में मझे बहुत मदद मिली।’ इसी प्रकार जब हम शिक्षक के रूप में अपने शिक्षण पर चिंतन (रिफ़्लेक्‍शन) करते हैं, तो हम महसूस करते हैं कि आज कक्षा में बच्चों की सहभागिता कैसी रही? बच्चे ने अपनी जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की या नहीं, कक्षा में मेरा अकेलापन था या बच्चों की सक्रियता थी, बच्चों के चेहरे पर सीखने का आनंद था या नहीं, आज कक्षा के अनुभवों से मैं संतुष्ट हूँ या नहीं हूँ, मेरा आज का प्रयास, बच्चों को पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को प्राप्‍त करने में कितना मददगार साबित होगा? इससे शिक्षक की प्रभावशीलता को जानने में हमें कुछ मदद मिल सकती है।
    सामान्यतः किसी विद्यालय की प्रभावशीलता का अनुमान इस बात से लगाया जाता है कि अमुक विद्यालय से पढ़े छात्र कहाँ-कहाँ चयनित हो रहे हैं? किन-किन पदों पर कार्यरत हैं? समाज में किस प्रकार की भूमिका में हैं? इससे विद्यालय के प्रभावकारी होने का एक अनुमान तो मिलता है, परंतु ऐसा भी हो सकता है कि उस विद्यालय के सभी शिक्षक प्रभावकारी न हों, कुछ शिक्षकों का शिक्षण प्रभावकारी हो तथा कुछ का शिक्षण औसत या उससे भी कम हो। ऐसे में यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि उन घटकों/कारकों को चिह्नित करने का प्रयास किया जाए, जिनसे यह ज्ञात हो कि अमुक शिक्षक का शिक्षण प्रभावकारी है अथवा नहीं। प्रभावकारी शिक्षण, शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है, अतः हमें इसके घटकों/कारकों को इसी में तलाशना होगा। शिक्षक की प्रभावशीलता के आकलन हेतु एक रूपरेखा की ज़रूरत है। इससे हमें शिक्षक के शिक्षण कार्य की प्रभावशीलता को जानने-समझने में मदद मिलेगी। यह रूपरेखा इसलिए भी ज़रूरी है कि वर्तमान में विद्यार्थियों की अधिगम संप्राप्ति के आकलन के लिए किए जाने वाले प्रयासों से विद्यार्थियों की अधिगम स्थिति कीजानकारी तो हो जाती है, परंतु इससे पूर्णतः ज्ञात नहीं होता कि इस परिणाम के पीछे शिक्षक की शिक्षण प्रभावशीलता का क्या योगदान रहा। इसलिए शिक्षण प्रभावशीलता के लिए एक सुस्पष्ट रूपरेखा की आवश्यकता है। इस रूपरेखा के निरूपण से पूर्व उन घटकों पर स्पष्टता होनी ज़रूरी है, जिनके आलोक में शिक्षक की प्रभावशीलता को जाँचा-परखा जाना है। इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षक की प्रभावशीलता का अनुमान निम्न घटकों/कारकों के आलोक में करने की आवश्यकता होगी—
    शिक्षा के लक्ष्य एवं विषय के उद्देश्यों की स्पष्टता— शिक्षण के प्रभावकारी होने की पहली कसौटी यह है कि शिक्षक को शिक्षा के लक्ष्य की स्पष्टता हो। ‘शिक्षा के लक्ष्यों में व्यापक दिशा निर्देश हैं जो शैक्षणिक प्रक्रियाओं के तय किए गए आदेशों और स्वीकृत सिद्धांतों से संगति बिठाने में मदद करते हैं’ (राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005)। शिक्षक के लिए विषय के उद्देश्यों की स्पष्टता बहुत ज़रूरी है। प्रत्येक विषय के उद्देश्य शिक्षा के सामान्य लक्ष्यों की संगति में होते हैं। शिक्षक को किसी भी विषय की शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में हमेशा सजग रहने की ज़रूरत होती है ताकि इस दौरान ऐसा कोई भी कृत्य घटित ना हो जाए जो शिक्षा के सामान्य लक्ष्यों से असंगत दिशा में हो। उदाहरण के लिए, प्रारंभिक स्तर पर शिक्षा का सामान्य लक्ष्य बच्चों में लोकतांत्रिक मूल्यों का बीजारोपण करना है। अतः किसी भी विषय की पाठ्यचर्या एवं शिक्षण प्रक्रिया में लोकतंत्र हेतु उपयुक्‍त मूल्य, जैसे— स्वतंत्रता, समानता, न्याय, व्यक्‍ति की गरिमा, अखंडता आदि की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। इसी प्रकार माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का सामान्य लक्ष्य किशोरों में समाज के उपयोगी नागरिक की भूमिका के लिए आवश्यक ज्ञान, कौशल एवं मूल्यों का बीजारोपण करना है, जो लोकतंत्र हेतु उपयुक्‍त मूल्यों की संगति में हो। इसलिए इस स्तर पर शिक्षक को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता किशोर को अपनी रुचि एवं सामर्थ्य के विषय क्षेत्र में आगे बढ़ने के क्रम में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया संचालित की जानी चाहिए। विद्यालयी पाठ्यचर्या में कोई विषय एवं गतिविधि क्यों संचालित की जा रही है, इसका तार्किक आधार शिक्षक को स्पष्ट होना चाहिए और इस बात का भी शिक्षक को हमेशा भान रहना चाहिए कि उसका शिक्षण कृत्य विषय शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्‍त करने की दिशा में और शिक्षा के सामान्य लक्ष्यों की प्राप्‍ति के क्रम में है प्रारंभिक कक्षाओं में अध्यापक को इस मामले में अतिरिक्‍त सजगता की ज़रूरत होगी।
    विषय ज्ञान— शिक्षक, कक्षा में जिस भी विषय को लेकर बच्चों के साथ काम करता है, उस विषय की प्रकृति, विकास-क्रम एवं अद्यतन प्रगति के बारे में सम्यक जानकारी और स्पष्टता उसे होनी आवश्यक है। प्रायः हम अपने व्यावहारिक अनुभवों से जानते हैं कि किसी विषय में बच्चों की अभिरुचि बढ़ जाती है, उस विषय विशेष की कक्षा के लिए विद्यार्थी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं तथा कुछ मामलों में इसके विपरीत भी देखने-सुनने में आता है। विषय विशेषज्ञ होना एक बात है, अपने विषय ज्ञान को कक्षा की प्रक्रिया में इस प्रकार से बुन लेना कि इससे अधिगमकर्ता शिक्षक की विद्वत्ता पर निर्भर न हो और विद्यार्थी अपने ज्ञान का सृजन स्वयं कर सकें (प्रारंभिक स्तर से माध्यमिक स्तर पर सीख रहे बच्चों के संदर्भ में तो यह बहुत ज़रूरी है।)। शिक्षक की अध्येतावृत्ति, प्रभावकारी शिक्षण का एक महत्वपूर्ण आधार है। कहा भी गया है कि एक शिक्षक, दूसरों को तब तक नहीं सिखा सकता है जब तक कि वह स्वयं सीखने की प्रक्रिया में शामिल नहीं है। सीखने वाले को किसी विषय का रसास्वादन तभी कराया जा सकता है, जबकि सिखाने वाला उस विषय का रस-पान कराने का हुनर जानता हो। किसी विषय विशेष में पाठ्य-वस्तु के चयन एवं संयोजन में यह बहुत उपयोगी है, जिसका प्रभाव शिक्षक की प्रभावशीलता पर और अंततः शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ता है।

    बाल मनोविज्ञान एवं शिक्षणशास्त्र—प्रभावकारी शिक्षक के लिए ज़रूरी है कि वह अधिगमकर्ता के मनोविज्ञान को समझता हो। यहाँ पर शिक्षक से विशेषज्ञ मनोविज्ञानी होने की अपेक्षा बिलकुल नहीं है, परंतु उसे इस बात की जानकारी ज़रूर होनी चाहिए कि किसी विशेष उम्र में बच्चा /किशोर किस प्रकार का व्यवहार करता है? उसकी रुचियाँ/ अभिरुचियाँ क्या हैं? उसके सीखने की गति / तरीका क्या है? वह किस बात से उत्साहित होता है? एक संवेदनशील (सेंसिटिव) शिक्षक के लिए यह जानना मुश्किल नहीं है। कक्षा-कक्ष की व्यावहारिक प्रक्रियाओं के अनभुव से, यह जानने-समझने का हुनर निरंतर समृद्ध होता रहता है। शिक्षणशास्‍त्र से हमें ज्ञात होता है कि किसी आयु विशेष के अधिगमकर्ता के सीखने-सिखाने का क्या विशेष तरीका हो सकता है? उम्र के विभिन्न स्तरों पर इसमें बदलाव करना क्यों ज़रूरी है? जो शिक्षण प्रणाली हम छह वर्ष के विद्यार्थियों के लिए प्रयोग करते हैं, वही शिक्षण प्रणाली 16 वर्ष के किशोर विद्यार्थी के लिए प्रयोग नहीं कर सकते। शिक्षणशास्‍त्र की जानकारी शिक्षक को इस मामले में मदद करती है कि किसी स्तर विशेष एवं विषय विशेष को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए? मनोविज्ञान एवं शिक्षणशास्‍त्र की समझ से हमें यह मदद मिलती है कि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता को कैसे सिखाया जाए? कब जानकारी खोजने के अवसर देने हैं? कब और किस तरह से आकलन करना है? प्रत्येक अधिगमकर्ता अलग-अलग तरीके से एवं भिन्न गति से सीखता है। इस समझ को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में समाहित करने से शिक्षण प्रभावकारी हो सकता है, इस प्रकार के अनुभव के मायने सीखने और सिखाने वाले, दोनों के लिए अर्थपूर्ण होंगे।

    शैक्षिक तकनीकी का उपयोग—सीखने और सिखाने की गुणवत्ता को बढ़ाने में तकनीकी अहम भूमिका निभा सकती है, बशर्ते कि हम इसकी मात्रा, समय, विविधता एवं प्रारूप का चयन करते समय अधिगमकर्ता की शैक्षिक ज़रूरतों का खयाल रखें। एक-सी तकनीकी प्रत्येक अधिगमकर्ता की ज़रूरतों को संबोधित नहीं कर सकती है, इसका संज्ञान तकनीकी चयन के संदर्भ में रखें। आज हम सभी इस बात पर सहमत हैं कि विभिन्न विषय अनुशासनों में सीखने-सिखाने के लिए बहुत-से तकनीकी विकल्प अपनाए जा रहे हैं। आज ज़रूरत इस बात की भी है कि कक्षा-कक्ष में मौजूद प्रत्येक अधिगमकर्ता की शैक्षिक ज़रूरतों को संबोधित किया जाए जिससे कक्षा समावेशी बन सके, जहाँ पर प्रत्येक सीखने वाले को अपनी रुचि एवं गति से सीखने के अवसर मिल सकें । सूचना एवं संचार तकनीकी के प्रयोग से प्रत्येक अधिगमकर्ता के लिए अवसर सृजित किए जा सकते हैं। ऐसी कक्षा जहाँ प्रत्येक बच्चे के लिए सीखने के समुचित अवसर उपलब्ध हों। आजकल तो लगभग सभी विषयों में प्रत्येक स्तर के अधिगमकर्ताओं के लिए प्रचुर अधिगम सामग्री उपलब्ध है। कई अवलोकनों में यह भी देखने में आया है कि बच्चे कंप्यूटर में कुछ करते दिखार्इ देते हैं, परंतु बच्चों से बात करने पर पता चलता है कि कुछ बच्चे किसी विषय विशेष को सीखने के बजाय किसी खेल को खेलने में व्यस्त हैं। इससे बच्चे कंप्यूटर परिचालन और कुछ तकनीकी बातें भले ही सीख रहे हों, परंतु जहाँ तक विषय को सीखने के अवसरों का प्रश्न है, अलाभकर स्थिति में ही कहे जाएँगे। यह न तो बच्चों को विषय सीखने के लिए प्रभावकारी है और न ही शिक्षक की प्रभावशीलता को अभिव्यक्‍त करता है।

    नवाचार—किसी भी शिक्षक का शिक्षण प्रभावकारी तभी कहा जा सकता है, जब वह कक्षा के सभी अधिगमकर्ताओं को सीखने के अवसर उपलब्ध कराता हो, तभी हम इसे समावेशी कक्षा कह सकते हैं। जब शिक्षक अपने शिक्षण अनुभवों के आलोक में पाता है कि कुछ अधिगमकर्ताओं के लिए उसका शिक्षण उपयोगी साबित नहीं हो पा रहा है, यह चिंतन शिक्षक को नवाचार के लिए प्रेरित करता है। सामान्यतः नवाचार हम ऐसे प्रयासों को कहते हैं जिनमें कम-से-कम तीन तत्व ज़रूर हों। पहला, वह खोज या प्रयोग के लिहाज़ से एकदम नया हो; दूसरा, यह उपयोगी हो; तीसरा, यह किसी समस्या के समाधान के लिए हो और सोद्देश्य हो। इन आधारों पर शिक्षक द्वारा किया गया प्रयास नवाचार की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए, भले ही यह छोटे स्तर पर ही किया गया हो। यह नवाचार सम्मान या प्रशंसा पाने की दृष्‍टि से न किया गया हो, वरन् इसको वास्तविक कक्षा-कक्ष की शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अपनाया गया हो, इससे सीखने वाले को मदद मिली हो, विषय के उद्देश्यों को प्राप्‍त करने में मददगार हो और अंततः शिक्षा के लक्ष्यों तक पहुँचने में सहायक हो। यदि ऐसा संभव हो पाता है, तब ही हम कह सकते हैं की शिक्षण की प्रभावशीलता में नवाचार की भूमिका है।

    सवेदनशीलता— सार्वजनिक शिक्षा का एक अहम पहलू यह है कि इस प्रणाली में नामांकित अधिसंख्यक बच्चे विषम एवं अलाभकर परिस्थितियों से आते हैं ऐसे बच्चों द्वारा विद्यालय छोड़ने का खतरा हमशेा बना रहता है शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में इन बच्चों के साथ विशेष संवेदनशीलता बरतने की ज़रूरत है, उनकी भाषा-बोली, संस्कृति आदि को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में स्थान देने की ज़रूरत होती है। वैसे भी शिक्षक के लिए ज़रूरी है कि कक्षा में मौजूद प्रत्येक अधिगमकर्ता के प्रति संवेदनशीलता बरतें। यह संवेदनशीलता इस लिहाज़ से भी ज़रूरी है कि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के अनुकूल परिणाम न मिलने के बावजूद शिक्षक, अधिगमकर्ता में विश्‍वास बनाए रखें, इसके लिए सतत धैर्य की आवश्यकता होती है। यह एक ऐसा मूल्य है जो प्रत्येक अधिगमकर्ता में यह विश्‍वास पैदा कर सकता है कि वह भी अपनी गति एवं तरीके से सीख सकता है, कक्षा प्रक्रिया में उसकी सहभागिता बढ़ा सकता है। यह विश्‍वास शिक्षक की प्रभावशीलता का महत्वपूर्ण संकेतक है, बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि उपरोक्‍त अन्य घटकों में कुछ कमी के बावजूद संवेदनशीलता के कारण अपनी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावकारी बनाए रख सकता है। इसके विपरीत उपरोक्‍त सभी बातों के होने के बावजूद संवेदनशीलता की कमी के कारण शिक्षण एक ‘रूटीन’ मात्र रह जाता है, प्रभावकारी नहीं हो पाता।

    निष्कर्ष—अतः उपरोक्‍त विमर्श के आलोक में निष्कर्ष स्‍वरूप हम कह सकते हैं कि किसी भी स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता अन्य बातों के अलावा इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया कितनी प्रभावी है? और इससे इस बात का अनुमान मिलता है कि शिक्षक की प्रभावशीलता का स्तर क्या है? शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में संलग्न दोनों ही पक्ष (शिक्षक एवं विद्यार्थी), तात्कालिक रूप में, इस प्रभावशीलता को अनुभूत कर सकते हैं। यहाँ इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि प्रभावकारी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया, गुणवत्तायुक्‍त शिक्षा के लक्ष्य के लिए एक ज़रूरी आधार है। स्कूलों और उसमें भी कक्षा-कक्ष को एक ऐसे संदर्भ की तरह पोषित करने की ज़रूरत है, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित, स्वीकृत एवं खुश महसूस करें, सीखने का आनंद उठा सकें और शिक्षक पेशेवर रूप से संतोष का अनुभव कर सकें तथा शिक्षण की सार्थकता को महसूस कर सकें । इस प्रकार विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के साझा अनुभवों को शिक्षण की प्रभावशीलता के संदर्भ में देखा जा सकता है।

डॉ० दिनेश कुमार गुप्ता
प्रवक्ता, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,
गंगापुर सिटी (राजस्थान) 322201