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कुटीर उद्योग


    जबसे मानव सभ्यता का विकास हुआ है। तब से ही जीविकोपार्जन के लिए कुटीर उद्योग धंधों का विशेष योगदान रहा है। पारिवारिक सहयोग के माध्यम से वस्तुओं का निर्माण करते थे और उन्हें बेचकर अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। कुटीर उद्योगों के अन्तर्गत वे उद्योग आते हैं जहां वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन परिवार के सदस्यों के द्वारा सीमित पूंजी एवं सीमित साधनों के साथ कुशल श्रम के आधार पर किया जाता है। आर्थिक आयोग द्वारा कुटीर उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित किया गया

"कुटीर उद्योग वे उद्योग हैं, जिनका एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्णरूप से अथवा आंशिक रूप से संचालन किया जाता है।"

    गुड़ शक्कर निर्माण, कागज़ के थैले एवं चटाई निर्माण,अचार, पापड़, मिट्टी के बर्तन,लोहे, लकड़ी का सामान बनाना इत्यादि।इस उद्योग से संबंधित कच्चे माल की आपूर्ति कृषि क्षेत्र से होती है तो किसानों की अतिरिक्त आय भी हो जाती है। जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में मांग के सृजन के कारण औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा मिलता है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था स्वावलंबन की ओर अग्रसर होती है। बड़ी संख्या में कुशल अकुशल श्रम हेतु रोजगार सृजन होता है। जिससे शहरों की ओर बढ़ते पलायन पर अंकुश लगता है और शहरों पर बढ़ते दबाव से मुक्ति मिलती है। कम पूंजी में उत्पादन संभव होने के कारण मुख्यतः ये कस्बों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाते हैं जो आय की क्षेत्रीय विषमता एवं असंतुलन को साधने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। लघु एवं कुटीर उद्योग सहायक इकाईयों के रूप में बड़े उद्योगों के अनुपूरक है और देश में आर्थिक सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। महात्मा गांधी जी के अनुसार भारत के मोक्ष का द्वार उसके कुटीर उद्योग धंधों के द्वारा खुलता है। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जी के अनुसार ऐसे उद्योगों ग्रामीण जन जो अधिकांश समय बेरोजगार रहते हैं उन्हें पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक रोजगार प्राप्त होता है। लघु एवं कुटीर उद्योगों देश के वृहत ग्रामीण क्षेत्रों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

    कालांतर में औद्योगिक क्रांति हुई। इसके बाद बड़ी बड़ी इकाइयों के माध्यम से उत्पादन होने लगा। इनमें मशीनों का प्रयोग होने से उत्पादन लागत कम आने लगी। कुटीर उद्योग धंधों में हाथ से काम होने के कारण उत्पादन लागत अधिक आती है। अतः मशीनों से बने सामान की कीमत कम होने लगी जिसका खामियाजा कुटीर उद्योग धंधों को भुगतना पड़ा। जब वैश्वीकरण की परियोजना के अंतर्गत बाजार का एकीकरण कर दिया गया तो कुटीर उद्योग धंधों की स्थिति शोचनीय हो गई। स्वीडन की पूर्व विदेश मंत्री एना लिंड का एक कथन अत्यंत प्रासंगिक है “ वैश्वीकरण बुरा नहीं है परन्तु इसकी तीव्र गति के साथ तालमेल बैठाने में दुनिया की अर्थव्यवस्था अभी तक असफल रही है।” भारत द्वारा भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में व्यापार प्रतिरोधों को हटाने के लिए बाध्य होना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप कुटीर उद्योग धंधों को मिला संरक्षण भी समाप्त हो गया तथा यह क्षेत्र मुक्त व्यापार नीति के तहत वैश्विक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल हो गया। कुटीर उद्योग धंधों का उत्पादन महंगा होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पाया तथा इनकी मांग कम हो गई। जिससे ये स्वयं: ही बंद होने की कगार पर पहुंच गए। इससे जहां एक ओर बेरोजगारी बढ़ी वही दूसरी ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्वावलंबन प्रदान करने वाला आधार ही समाप्त प्रायः हो गया। आर्थिक एवं क्षेत्रीय संतुलन को साधने वाले तत्वों के बिखर जाने से आर्थिक विषमता की खाई और गहरी हो गई। अतः परिणामस्वरूप ग्रामीण एवं कस्बाई क्षेत्रों शहरों की ओर पलायन बढ़ने लगा एवं शहरी क्षेत्रों में मलिन बस्तियों का विकास हो गया। जिससे शहरों में आधारभूत सामाजिक अवसंरचना की कमी की समस्या भी उत्पन्न हो गई।

    रही सही कसर कोरोना काल ने पूरी कर दी। इस समय में कुटीर उद्योग धंधों की रीढ़ ही टूट गई। इस समय में असंख्य मात्रा में कुटीर उद्योग धंधे बंद हो गये। सरकार ने इन उद्योगों को फिर से खड़ा करने के लिए प्रयास शुरू कर दिया है। सरकार द्वारा संचालित कौशल विकास योजनाओं के माध्यम से कुटीर उद्योगों की आवश्यकता के अनुसार कुशल मानव श्रम की उपलब्धता सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है। मुद्रा योजना, स्टार्ट अप योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है। वीडियो कांफ्रेंसिंग एवं निशुल्क ट्यूटोरियल के माध्यम से कर्मचारियों को नवाचार एवं नवीन तकनीक विधियों से जोड़ा जा रहा है। बैंकों के माध्यम से अति सस्ती दरों पर पूंजी उपलब्ध कराई जा रही है। राष्ट्रीय मेलों एवं प्रदर्शनियों का आयोजन कराया जा रहा है। जिससे कि बेरोजगारी दूर करने एवं शहरों पर बढ़ते दबाव को कम किया जा सके साथ ही भारतीय संस्कृति की धरोहर कुटीर उद्योग धंधों को पुनः अवस्थाफित कर गांधी जी के स्वावलंबी गांवों के सपनों को पूरा किया जा सके।

अलका शर्मा
शामली, उत्तर प्रदेश