मन करता है कि
फिर से लौट जाऊँ
वहीं जहाँ से चली थी
कुछ साल पहले
जहाँ काकी,दादी,बुआ
ममेरे,फुफुरे,चचेरे
खेत,खलिहान,गाँव-गिराव
सभी जाने-पहचाने थे...
यहाँ तक कि वह
बाइस्कोप वाला भी
बिटिया कहकर बुलाता
जादू दिखानें वाला
कक्का कहनें पर रुक जाता
बंदर बंदरिया के सँग
मदारी वाला डमरू बजाता
गाँव की फेरी लगा जाता
गुब्बारे वाला दूसरे तीसरे आता
और वह भोंपू वाला भी तो
एक पैसे में भोंपू दे जाता
और हम दिन भर
भोंपू बजा-बजा कर
सबकी दुपहरिया की नींद
खराब ही कर देते।
मन करता है कि...
फिर से इमली की चियाँ से
अंटी चल्लस् खेलते
एक पैर पर लँगड़ी लखनी
खेल कर खुश होते
गाँव के शिवाले पर
थोड़ी देर तो बैठते
और कहीं से कोई
सरई नरकट के हवा-हवाई
पंखे बनाकर,
"चक डोले चक बेनियाँ डोले,
खैरा पीपर कबहूँ न डोले"
कहते दौड़ते भागते।
हमारी छोटी सी दुनियाँ
कितनीं प्यारी थी
सच में वही दुनियाँ
हाँ,वही दुनियाँ तो हमारी थी
आगे का सफर तो
बस "सफर" ही है
और हम नप रहे हैं
रोज किसी कसौटी पर।।
विजयलक्ष्मी पाण्डेय
आजमगढ़,उत्तर प्रदेश