एक घने कोहरे से, गुजर रहे है हम इन दिनों |
नजरों के सामने होकर भी, नजर वो आते नहीं ||
दो कदम बढ़ाकर रुक गए वो, और हम चलते रहे |
जो ठहर जाते हम भी, तो ठोकर शायद खाते नहीं ||
राह-ए-इश्क़ भी है अजीब, किस मोड़ पर ले आई |
ग़र कयास होता हमे, इस राह पर कभी जाते नहीं ||
कसूर कहूं इसे दिल का या, ये नजरों की खता है |
हाल ये होता न मेरा, ग़र नजरें हम मिलाते नहीं ||
आखिरी उम्मीद से देखा था, उस बेवफा की तरफ |
नाउम्मीद न होते हम भी, ग़र वो नजरें चुराते नहीं ||
बर्बाद हुए हम तो कुछ ग़म नहीं, खता भी हमारी थी |
ग़र खता न होती इसकी, दिल को हम यूं जलाते नहीं ||
बहुत दूर तलक आ चुके थे, हम इश्क की राह पर |
कोई राह बची होती, तो इश्क में खुद को मिटाते नहीं ||
नितिन तिवारी
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश