राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक-शिक्षा अपेक्षा, चुनौतियाँ एवं समाधान
इक्कीसवीं सदी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो भारत की वर्तमान चनुौतियों, समस्याओं और भविष्य की ज़रूरतों की पूर्ति में सहायक होगा। शिक्षा की प्रक्रिया में कई कारक शामिल होते हैं, जिनमें शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इक्कीसवीं सदी के भारत की शिक्षा नीति के स्वरूप को दर्शाने वाली इस शिक्षा नीति में कुल 27 प्रमुख बिंदुओं की विस्तार से चर्चा की गई है| इन 27 बिंदुओं में से बिंदु संख्या 15 में शिक्षक शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें शामिल हैं। वर्तमान शिक्षा नीति का शुभ परिणाम, इसे अमल में लाने के लिए तैयार की जाने वाली कार्य-योजना की उत्कृष्टता, संबंधित कार्य योजना पर अमल करने की दृढ़ इच्छाशक्ति और शिक्षा प्रक्रिया में शामिल व्यक्तियों की प्रतिबद्धता पर निर्भर होगा। इस लेख में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के आलोक में शिक्षक शिक्षा से संबंधित समस्याओं वर्तमान चुनौतियों तथा उनके संभावित समाधान की चर्चा की गई है|
शिक्षा प्रत्येक राष्ट्र की एक अनिवार्य आवश्यकता है। मानव की उपलब्धियों में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए प्रत्येक देश अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा व्यवस्था में समयानुसार सुधारात्मक परिवर्तन करता है। यह बात भारत पर भी लागू होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में 1948 में विश्वविद्यालय आयोग, लक्ष्मी शंकर मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा पर माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) और सन् 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग की स्थापना, इस संबंध में शिक्षा के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को व्यक्त करती है। सन् 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति और राममूर्ति की अध्यक्षता में समीक्षा समिति (1992) की सिफ़ारिशों ने भारतीय शिक्षा की दशा और दिशा को सुधारने और आधुनिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति शिक्षा प्रणाली के लिए एक ऐतिहासिक घटना है। इक्कीसवीं सदी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई यह शिक्षा नीति एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो भारत की वर्तमान चुनौतियों, समस्याओं और भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होगा। वास्तव में, वर्तमान शिक्षा नीति कितनी प्रभावी होगी, यह तैयार की जाने वाली कार्य योजना, संबंधित कानून और शिक्षा प्रक्रिया में शामिल व्यक्तियों की प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा। शिक्षा की प्रक्रिया में कई कारक शामिल होते हैं, जिनमें शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इक्कीसवीं सदी के भारत की शिक्षा नीति के स्वरूप को दर्शाने वाली, इस शिक्षा नीति में कुल 27 प्रमुख बिंदुओं की विस्तार से चर्चा की गई है जिसमें बिंदु क्रमांक 15 में शिक्षक शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें शामिल हैं। इसके साथ ही इस शिक्षा नीति के विद्यालयी शिक्षा से संबंधित बिंदुओं पर अनुसंधान में भी शिक्षक और शिक्षक शिक्षा से संबंधित मामलों पर चर्चा की गई है। इस लेख में शिक्षक शिक्षा के सम्प्रत्यय एवं आवश्यकता पर चर्चा की गई है। इसके साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में दिए गए महत्वपूर्ण सुझाव एवं अमल के दौरान आने वाली चुनौतियों तथा उसके संभावित समाधानों पर भी चर्चा की गई है।
शिक्षक शिक्षा— शिक्षक शिक्षा, दो शब्दों, शिक्षक एवं शिक्षा का समेकित रूप है, जिसमें शिक्षक शब्द का अर्थ सीखने एवं सिखाने वाले के रूप में तथा शिक्षा शब्द का अर्थ अध्यापन एवं ज्ञानाभिग्रहण के रूप में किया गया है। यहाँ दोनों ही शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत के ‘शिक्ष्’ धातु से हुई है, जिसका शब्दकोशीय अर्थ है, सीखना, अध्ययन करना तथा ज्ञानार्जन करना (आप्टे, 1999, पृष्ठ संख्या 1015)। इस प्रकार शिक्षक शिक्षा का सामान्य अर्थ उस व्यक्ति की शिक्षा से है, जो सीखने एवं सिखाने का कार्य करता है। शिक्षक का समानार्थी शब्द गुरु है, जो प्राचीन और वर्तमान भारत में अध्यापन करने वाले व्यक्तियों के लिए उपयोग किया जाता है। प्राचीन भारत में शिक्षकों का प्रशिक्षण गुरुकुलों में स्वाभाविक रूप से अध्ययन-अध्यापन के दीर्घकालिक अनुभव के आधार पर होता था, जिसमें प्रज्ञा के साथ ही साथ उत्तम चरित्र का होना अनिवार्य शर्त थी। समयांतर में समाज में औपचारिक शिक्षा की बढ़ती माँग ने पेशेवर शिक्षकों के विकास की अवधारणा को बल दिया और शिक्षक शिक्षा की औपचारिक शुरुआत के लिए शिक्षक संस्थानों की स्थापना हुई। शिक्षक शिक्षा, शिक्षाशास्त्रीय प्रक्रम में उन युवाओं हेतु एक व्यावसायिक तैयारी है जो शिक्षण व्यवसाय में प्रवेश करना चाहते हैं। यह व्यावसायिक तैयारी अनेक प्रकार की हो सकती है, परंपरागत अथवा वस्तुनिष्ठता से युक्त एवं आबद्ध, जिसका लक्ष्य है— विद्वता एवं खुलेपन के लिए समर्पित प्रगतिशील शिक्षक वर्ग की उपलब्धि, जो विद्यार्थियों की व्यक्तिपरकता अथवा आत्मनिष्ठा के प्रति अभिमुख हो (शर्मा एवं शर्मा, 2015, पृष्ठ संख्या 4)। शिक्षक शिक्षा की व्यापक परिभाषा देते हुए कुमार (2016, पृष्ठ संख्या 1) लिखते हैं कि, “अध्यापक शिक्षा एक शैक्षिक आयोजन है जिसमें विभिन्न स्तरीय एवं वर्गीय अध्यापकों को इस तरह से शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाता है कि वे आने वाली पीढ़ी को ज्ञान एवं विकासात्मक दायित्वों को ग्रहण तथा वहन करने में सक्षम हो सकें । उनमें तकनीकी कुशलता, वैज्ञानिक चेतना, संसाधन सम्पन्नता तथा नवाचारिता के साथ सांस्कृतिक उद्दीपन एवं मानवता बोध का समन्वयात्मक विकास करना संभव हो सके ।”
शिक्षक शिक्षा की आवश्यकता- प्राचीन काल से ही शिक्षक का समाज में महत्वपूर्ण स्थान है, जो उसके समाज के प्रति निर्वहन किए जाने वाले महत्वपूर्ण कर्तव्यों के संदर्भ में देखा जाता है। प्राचीन कालीन शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक के कर्तव्य को इंगित करते हुए अलतेकर (2014, पृष्ठ संख्या 41) लिखते हैं कि, “अध्यापन के अतिरिक्त आचार्य के और भी कर्तव्य होते हैं। उसे शिष्य का मानस पिता माना गया था । अतः नैतिक दृष्टि से शिष्य के समस्त दोषों का उत्तरदायित्व उस पर था । शिष्य के चरित्र का सर्वदा ध्यान रखना उसका कर्तव्य था” राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में शिक्षक को समाज की स्थिति का मानदंड मानते हुए स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि समाज में शिक्षक की स्थिति समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की परिचायक है, क्योंकि कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति अपने शिक्षक से अधिक विकसित नहीं हो सकता है। (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, 1998, पृष्ठ संख्या 31) इसलिए ज़रूरी है कि शिक्षक शिक्षा के प्रति ध्यान दिया जाए तथा ज्ञानी, कुशल, दक्ष, संवेदनशील एवं चरित्रवान शिक्षकों का विकास किया जाए।
सीखना एवं सिखाना यद्यपि एक-दूसरे के निकट है, किंतु दोनों में प्रक्रियागत एक महत्वपूर्ण भेद है, जहाँ सीखने की प्रक्रिया भूल-सुधार एवं सतत अभ्यास के सिद्धांत का अनुगम करती है, वहीं सिखाने की प्रक्रिया में भूल एवं सुधार के सिद्धांत को लागू करना एक गंभीर परिणाम को जन्म दे सकता है। इसलिए इसमें गहन शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापक की आवश्यकता है। शिक्षार्थी की शिक्षा की गुणवत्ता और उसकी शैक्षिक उपलब्धि का स्तर शिक्षक की दक्षता, संवेदनशीलता और प्रेरणा से निर्धारित होता है। साथ ही यह सर्वमान्य धारणा है कि शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षक के पढ़ाए जाने वाले विषय की समझ एवं व्यावसायिक क्षमता, सीखने के आवश्यक वातावरण का निर्माण करती है (नेशनल काउंसिल फ़ॉर टीचर एजुकेशन, 2009, पृष्ठ संख्या 1)। इसलिए शिक्षक शिक्षा को आवश्यक माना जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक को राष्ट्र निर्माता के रूप में स्वीकार करते हुए कहा गया है कि, ‘शिक्षक वास्तव में बच्चों के भविष्य को आकार देते हैं इसलिए वे हमारे राष्ट्र के भविष्य के निर्माता हैं इस महान योगदान के कारण शिक्षक भारतीय समाज के सबसे सम्मानित सदस्यों में से एक थे और केवल सर्वश्रेष्ठ विद्वान ही शिक्षक बनते थे (शिक्षा मंत्रालय, 2020, पृष्ठ संख्या 30)। वर्तमान शिक्षा नीति जहाँ शिक्षकों में प्राचीन भारतीय मूल्यों एवं सांस्कृतिक गौरव को जीवंत रखना चाहती है वहीं इस नीति में शिक्षक को आधुनिक शैक्षिक तकनीकी एवं संसाधनों के उपयोग में भी दक्ष बनाने की बात पर बल दिया गया है वास्तव में कोई भी शैक्षिक उद्देश्य तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि इन उद्देश्यों को प्राप्त कराने वाला प्रेरक स्वयं दक्ष न हो। इसलिए यह ज़रूरी है कि शिक्षकत्व के पूर्ण विकास के लिए एक सुनियोजित शिक्षा की योजना निर्धारित हो। शिक्षक शिक्षा की आवश्यकता को सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में तेज़ी से आ रहे परिवर्तन के साथ कदम-ताल मिलाने, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति, कौशलयुक्त मार्गदर्शन, तकनीकी ज्ञान की प्राप्ति एवं आंतरिक अभिप्रेरणा के विकास के संदर्भ में देखे जा सकते हैं (कुमार, 2016, पृष्ठ संख्या 3)।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक की परिकल्पना- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षक की एक आदर्श अवधारणा प्रस्तुत की गई है, जो प्राचीन भारतीय शिक्षकों की तरह विद्वता, नैतिक आचरण, कर्तव्यपरायणता और विश्व के कल्याण के लिए सतत प्रयत्नशील शिक्षक की कार्य प्रणाली की याद दिलाती है। इसके साथ ही यह नीति मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों, सूचना-संचार की तकनीकों और अत्याधुनिक उपकरणों का कुशलतापूर्वक उपयोग करने में समर्थ तथा आधुनिक नवाचारों एवं ज्ञान-विज्ञान में दक्ष शिक्षकों की अवधारणा प्रस्तुत करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बिंदु क्रमांक 15.1 में कहा गया है कि, “अगली पीढ़ी को आकार देने वाले शिक्षकों की एक टीम के निर्माण में अध्यापक शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण है। शिक्षकों को तैयार करना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके लिए बहु-विषयक दृष्टिकोण और ज्ञान की आवश्यकता के साथ बेहतरीन मेंटरों के निर्देशन में मान्यताओं और मूल्यों के निर्माण तथा उनके अभ्यास की भी आवश्यकता होती है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अध्यापक शिक्षा और शिक्षण प्रक्रियाओं से संबंधित अद्यतित प्रगति के साथ भारतीय मूल्यों, भाषाओं ज्ञान, लोकाचार और परंपराओं (जनजातीय परंपराओं सहित) के प्रति भी जागरूक रहें।” इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इक्कीसवीं सदी की शिक्षक शिक्षा से अपेक्षा की गई है कि ये शिक्षक शिक्षा संस्थान ऐसे शिक्षकों को विकसित करें, जिनमें निम्नलिखित अपेक्षाओं को पूर्ण करने की दक्षता हो —
1. शिक्षक को अपने विषय की विशेषज्ञता के साथ-साथ अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान होना चाहिए ताकि वह समग्र शिक्षण की अवधारणा को मूर्तरूप दे सकें ।
2. शिक्षक को अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया की समझ होनी चाहिए।
3. शिक्षक, आजीवन सीखने वाले की भूमिका में होना चाहिए ताकि वह लगातार स्वयं को विकसित कर सके।
4. अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और रुचि होनी चाहिए।
5. भारतीय संस्कृति और विरासत को समझें और इसके प्रति गौरव की भावना रखें।
6. आधुनिक सूचना-संचार प्रौद्योगिकी और शैक्षिक नवाचारों के साथ-साथ इन्हें उपयोग करने की क्षमता की भी समझ होनी चाहिए।
7. अध्ययन, शिक्षण, अनुभव और अनुसंधान के माध्यम से स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने एवं कौशलात्मक सुधार के लिए उत्सुक होना चाहिए।
8. कम से कम तीन भाषाओं में दक्ष होना चाहिए ताकि वे विश्वासपूर्वक और लगन से त्रिभाषा नीति के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें ।
9. संवैधानिक एवं नैतिक मूल्यों के पालन को जीवन का अंग बनाने वाला होना चाहिए।
10. अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में नवाचारों की खोज एवं तदनुरूप स्व-अध्ययन शैली में परिवर्तन के प्रति तत्पर होना चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की शिक्षक शिक्षा के संबंध में दिए गए महत्वपूर्ण सुझाव
इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तैयार इस शिक्षा नीति में शिक्षक शिक्षा में सुधार लाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं, जिनके अनुपालन से न केवल शिक्षक शिक्षा में गुणात्मक बदलाव लाया जा सकता है, बल्कि इसके साथ ही विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार को गति दी जा सकती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा से संबंधित प्रत्येक पहलू पर विचार किया गया है इसमें शिक्षक-प्रशिक्षण की चर्चा भी शामिल है शिक्षक शिक्षा पर न्यायमूर्ति वर्मा आयोग (2012) की चिंताओं एवं शिक्षक-प्रशिक्षण के क्षेत्र की समस्याओं तथा उपरोक्त शिक्षक शिक्षा संबंधी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित महत्वपर्णू सुझाव दिए गए हैं —
1. शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम केवल बहु-विषयक शैक्षिक संस्थानों में ही आयोजित किए जाएँ।
2. वर्ष 2030 तक केवल शैक्षिक रूप से सुदृढ़, बहु-विषयक और एकीकृत अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम ही कार्यान्वित हों।
3. वर्ष 2030 से एकीकृत बी.एड. का अध्ययन केवल बहु-विषयक, गुणवत्ता युक्त एवं निर्धारित मानकों के आधार पर संचालित संस्थानों में ही किया जा सकता है।
4. एकल विषय आधारित शैक्षणिक संस्थानों का वर्ष 2030 तक बहु-विषयक संस्थानों के रूप में उन्नयन करना, जो संस्थान ऐसा करने में असफल होंगे उन्हें बंद कर दिया जाए।
5. चार वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम, दो वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम और एकवर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम को स्वीकृति, लेकिन केवल उन्हीं बहु-विषयी संस्थान को दो वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम और एक वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाने की स्वीकृति मिले, जो सफलतापूर्वक चार साल के शिक्षक शिक्षा के कार्यक्रम को चला रहे हों।
6. जिनके पास स्नातक की डिग्री है, उनके लिए दो वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम एवं जिनके पास विशिष्ट विषय के साथ चार वर्षीय स्नातक की डिग्री है, उनके लिए एकवर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाया जा सकता है।
7. समाज की आवश्यकताओं को साकार करने वाली नई माँग आधारित शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जानी चाहिए।
8. प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए विद्यार्थीवृत्ति की व्यवस्था के साथ ही साथ ज़रूरतमन्द प्रशिक्षुओं की मदद करना।
9. गुणवत्ता की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय परीक्षण संस्थान द्वारा आयोजित विषय और शिक्षक योग्यता परीक्षा के आधार पर शिक्षक शिक्षा संस्थानों में प्रवेश।
10. पीएच.डी. कार्यक्रम में नए नामांकित विद्यार्थियों को अपने शोध (शिक्षाशास्त्र या अध्ययन अथवा पाठ्यक्रम विकास) के लिए प्रासंगिक विषय में क्रेडिट आधारित अध्ययन करना होगा।
11. शिक्षकों के रूप में काम करने वाले सभी शिक्षकों को अपने व्यावसायिक विकास को जारी रखने के लिए प्रेरणा और सुविधाएँ दी जाएँ।
12. स्वयं और दीक्षा जैसे प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रमों से जुड़कर आत्म-विकास के अवसर पैदा करना।
सुझावों के कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियां और समाधान:-
किसी भी नीति की सफलता इसके कुशल और व्यावहारिक कार्यान्वयन में निहित है। नीति या योजना कितनी व्यावहारिक और फलदायी होती है, यह कार्यान्वयन की योजना और निष्पादक के साथ-साथ कार्यकर्ता पर निर्भर करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक शिक्षा के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन की तैयारी की गई है, परंतु यह नीति प्रस्तावित सुधारों के कार्यान्वयन की स्पष्ट योजना या कानूनी प्रावधानों को स्पष्ट रूप से दिशा-निर्देशित नहीं करती है। नीति, केवल इस बात पर चर्चा करती है कि क्या किया जाएगा या क्या होने की उम्मीद है, लेकिन इस नीति को अमल में कैसे लाया जाएगा, का कोई उल्लेख नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में उल्लिखित शिक्षक शिक्षा से संबंधित सिफ़ारिशों के कार्यान्वयन में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ और इसके समाधान निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझे जा सकते हैं —
1. संरचनात्मक अस्थिरता संबंधित चुनौती- शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में की गई सिफ़ारिशों में संरचनात्मक परिवर्तन सबसे महत्वपूर्ण है। इस सिफ़ारिश को लागू करने से कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। पिछले 10 वर्षों में, शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में इतने प्रयोग हुए हैं, जितने पूरी शिक्षा प्रणाली में नहीं हुए। एकवर्षीय बी.एड. कार्यक्रम को परिवर्तित कर दो वर्षीय बी.एड. कार्यक्रम बना दिया गया। बदलाव इतनी जल्दबाजी में किए गए कि कोई भी शोधार्थी या संस्थान इस संरचनात्मक परिवर्तन की सफलता या विफलता को माप नहीं पाया। अभी यह परिवर्तन सही से क्रियान्वित भी नहीं हुआ था कि सेमेस्टर सिस्टम लागू कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप फिर से आनन-फानन में नए पाठ्यक्रमों की संरचना की गई। अभी इस योजना पर अमल हो ही रहा था कि अब इस नीति के माध्यम से चार वर्षीय एकीकृत शिक्षक शिक्षा की बात लागू कर दी गई है। इस क्षेत्र में इन लगातार बदलावों का पूरी शिक्षक शिक्षा पर गहरा नकारात्मक असर पड़ा है। ये परिवर्तन अपने-आप में एक चुनौती है। यदि शिक्षक शिक्षा को गुणवत्ता युक्त बनाना है तो सर्वप्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में किए गए ये परिवर्तन स्थायी होने चाहिए और कम से कम 10 साल तक चलते रहना नितांत आवश्यक है, अन्यथा इस परिवर्तन का भी शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता में कोई खास योगदान नहीं होगा। मात्र सत्ता के परिवर्तन अथवा सरकार के मनस्वी विचार के आधार पर नहीं, बल्कि होने वाला कोई भी परिवर्तन शोध आधारित होना चाहिए।
2. स्वरूपगत परिवर्तन से संबंधित चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, चार वर्षीय बी.एड. कार्यक्रम पर बल देती है, लेकिन इसके साथ ही दो वर्षीय और एकवर्षीय बी.एड. कार्यक्रम को फिर से स्थापित करने की पहल की गई है। अंतर यह है कि ये सभी कार्यक्रम अब केवल बहु-विषयक स्वायत्त कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में चलाए जा सकते हैं। वर्तमान स्थिति में शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में एकल पाठ्यक्रम आधारित कॉलेजों की संख्या बहुत बड़ी है। इसमें भी निजी संस्थानों की संख्या बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति में बहुत बड़ी संख्या में बहु-विषयक संस्थानों की आवश्यकता होगी। ऐसे में नवीन संस्थानों की स्थापना एवं अपग्रेडेशन का कार्य कैसे होगा? आवश्यक पूँजी कहाँ से आएगी जैसे प्रश्न अपने आप में बहुत बड़ी समस्या है। वित्तीय, भौतिक और मानवीय सुविधाओं के अभाव में एकल सरकारी या निजी संस्थान के लिए खुद को बहु-विषयक संस्थान में बदलना एक बड़ी समस्या होगी। यदि आज के निजी संस्थान स्वयं को बहु-विषयक संस्थानों में विकसित नहीं कर पाएँगे तो, शायद यह संस्थान बंद हो जाएँगे। इन चुनौतियों को पूरा करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार समय-समय पर समाज की ज़रूरतों की जाँच करे और आनुपातिक रूप से नए संस्थान खोलने की पहल करने के साथ ही अच्छी तरह से कार्य कर रहे निजी संस्थानों को भी अनुदान प्रदान कर उन्हें बहु-विषयक संस्थान के रूप में विकसित करने में मदद करें। यदि निजी क्षेत्र के संस्थान इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं तो उन्हें इस शर्त के साथ अनुमति दी जानी चाहिए कि वे, इस कार्य से मुनाफ़ा कमाने की न सोचें और शिक्षक शिक्षा से संबंधित नीतियों का सख्ती से पालन करें। साथ ही स्वरूपगत परिवर्तनों से संबंधित चुनौतियों का सामना करने के लिए स्पष्ट नीति बने। सरकार वित्तीय एवं संसाधनों की उपलब्धता के प्रति अपनी जवाबदेही को निभाए तथा निजी क्षेत्र के संस्थान इसे सेवा कार्य मानते हुए आर्थिक उपार्जन की क्षुद्र भावना से ऊपर उठते हुए नीति -नियमों का पालन कर शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखें।
3. संसाधनों की कमी- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में सुझाई गई गुणवत्ता की प्राप्ति के लिए आवश्यक भौतिक संसाधनों की भारी कमी दिखाई देती है प्रत्येक संगठन को सुविधाओं के मामले में एक आदर्श संगठन के रूप में विकसित किया जाना है। शैक्षिक संसाधनों की उपलब्धता शिक्षण प्रक्रिया को आसान, सुविधाजनक और प्रभावी बनाती है। बच्चों के चहुँमुखी, समन्वित और पूर्ण विकास के लिए व्यक्तित्व के हर पहलू का विकास आवश्यक है भावी शिक्षक के मानसिक विकास के लिए कक्षा, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, गतिविधि कक्ष एवं समिति कक्ष के साथ-साथ शारीरिक विकास के लिए एक खेल का मैदान और व्यायामशाला की आवश्यकता होगी। वर्तमान परिदृश्य में, अधिकांश सरकारी और निजी संस्थानों में इन सुविधाओं का अभाव है अगर सभी सुविधाओं की पूर्ति करनी है तो अधिकांश निजी संस्थानों को ट्यूशन फ़ीस बढ़ानी होगी, जिससे पहले से ही महँगी निजी शिक्षा और अधिक महँगी हो जाएगी। इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार शिक्षक शिक्षा को एक आवश्यक सेवा माने तथा प्रत्येक शिक्षक शिक्षा संस्थान को इन सभी सुविधाओं को निःशुल्क स्थापित करने में मदद करे। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग चार प्रतिशत खर्च करके इन सुविधाओं को उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में मज़बूत इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए, सरकार को अगले तीन वर्षों में शिक्षा पर व्यय का प्रतिशत बढ़ा कर छह प्रतिशत करना होगा और इसे 2035 में अमल में लाने के बजाय आज से ही क्रियान्वित करना चाहिए। सभी शिक्षक शिक्षा की संस्थाओं चाहे वे सरकारी हों या निजी, दोनों के लिए समान नीति नियम लागू हों। इसके साथ ही भौतिक और मानव संसाधन संबंधी खर्चों को सरकार स्वयं वहन करें।
4. शिक्षक-प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण के संबंध में अस्पष्टता- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षकों को तैयार करने के बारे में चर्चा की गई है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि ऐसे शिक्षकों को तैयार करने वाले शिक्षक-प्रशिक्षक कैसे प्रशिक्षित होंगे। नीति में एम.एड. (शिक्षक-प्रशिक्षक तैयार करने वाले पाठ्यक्रम) के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। शिक्षक-प्रशिक्षकों की दक्षता पर भविष्य के शिक्षकों के प्रशिक्षण का दायित्व होता है जो शिक्षक की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। शिक्षक-प्रशिक्षण, वस्तुतः एक समग्र और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें विद्यार्थी और शिक्षक एवं उन्हें प्रशिक्षित करने वाले शिक्षक-प्रशिक्षक एक बढ़ते क्रम में योजनाबद्ध रूप से आपस में जुड़े होते हैं। शिक्षक शिक्षा में गुणवत्ता स्थापित करने के लिए पहली आवश्यकता प्रशिक्षकों (जो एम.एड. में पढ़ा सकते हैं।) की तैयारी है, जो शिक्षक-प्रशिक्षकों को प्रशिक्षित कर सकते हैं, क्योंकि शिक्षक, केवल प्रशिक्षक की क्षमता और ज्ञान के अनुसार तैयार किए जा सकते हैं। इन शिक्षक-प्रशिक्षकों की दक्षता भविष्य के प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षकों की क्षमता को प्रभावित करेगी, जो अंततोगत्वा विद्यार्थियों के समग्र विकास को प्रभावित करेगी। क्या और कैसे सिखाना है? की तैयारी के लिए विद्यार्थी से लेकर शिक्षक-प्रशिक्षक स्तर के सभी संबंधित व्यक्तियों को विचार करना होगा। शिक्षक-प्रशिक्षक की तैयारी के लिए सुविधाएँ, पाठ्यक्रम और योजनाएँ तत्काल तैयार की जानी चाहिए। इसी तरह वर्तमान में प्रशिक्षण कार्य में लगे व्यक्तियों को भी सेवाकालीन प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। इस चुनौती के निस्तारण के लिए तत्काल शिक्षक-प्रशिक्षक पाठ्यक्रम का निर्माण एवं कार्यान्वयन इस योजना की ज़रूरत है।
5. शिक्षाशास्त्र में अप्रशिक्षित व्यक्ति से गुणवत्तायुक्त प्रशिक्षण संबंधी अपेक्षा — राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार सभी एकल शिक्षक शिक्षा संस्थानों को बहु-विषयक संस्थानों के रूप में विकसित करना है। इसके लिए उन विषय-विशेषज्ञों को भी नियुक्त करने की सिफारिश की गई है, जिन्होंने शिक्षक-प्रशिक्षकों के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है। जबकि शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम एक विशेषीकृत कार्यक्रम है, जिसमें बाल-व्यवहार एवं मनोविज्ञान, अध्ययन-अध्यापन की तकनीक एवं शिक्षणशास्त्र, आकलन अथवा मूल्यांकन तथा मार्गदर्शन एवं निर्देशन जैसे अनेक विषयों से संबंधित विशेषज्ञीय सेवा की आवश्यकता होती है। शिक्षाशास्त्र मात्र विषयों को ही पढ़ाने का नाम नहीं है। ऐसे में सवाल यह है कि ये अप्रशिक्षित एवं मात्र अपने विषय (गणित, अंग्रेज़ी, दर्शनशास्त्र, कला इत्यादि ) में विशेषज्ञता रखने वाले व्यक्ति भावी शिक्षकों को कैसे प्रशिक्षण दे सकते हैं, क्योंकि शिक्षक-प्रशिक्षण का कार्य, क्या सीखना है, से ज़्यादा कैसे सिखाना है, पर ज़ोर देता है। वर्तमान स्थिति में ऐसे शिक्षक केवल विषय ज्ञान प्रदान कर पाएँगे, जो सूचना क्रांति के समय में इंटरनेट से भी आसानी से खोजा जा सकता है। वास्तव में, आदर्श स्थिति यह है कि जो कोई भी इस क्षेत्र से जुड़े, उसे विषय के साथ ही अध्ययन-अध्यापन से संबंधित तीनों शिक्षणशास्त्रों (पेडागॉजी अर्थात् बाल-शिक्षणशास्त्र, एंड्रागॉजी अर्थात् प्रौढ़-शिक्षणशास्त्र एवं हेट्रागॉजी अर्थात् स्व-निर्देशित शिक्षणशास्त्र) की समझ एवं प्रशिक्षण अपरिहार्य है, जहाँ विषय-विशेषज्ञों को प्रशिक्षण के बिना शिक्षक शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्य कराने की अनुमति दी गई है, वहीं राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पीएच.डी. करने वाले शोधार्थियों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने विषय से संबंधित शिक्षणशास्त्र से संबंधित कोर्स भी करें, जिससे आगे चलकर उन्हें पढ़ाने में कठिनाई न हो, जो एक अच्छी पहल है। अगर पीएच.डी. करने वाले शोधार्धी से यह अपेक्षा रखी जाती है, तो शिक्षक शिक्षा जैसे विशेषीकृत कार्यक्रम में मात्र अपने विषय का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति भविष्य के शिक्षक कैसे तैयार करेंगे, यह एक व्यावहारिक समस्या है। इसलिए शिक्षक शिक्षा संस्थान में शामिल होने वाले व्यक्ति के लिए शिक्षाशास्त्र में कुशल होना आवश्यक किया जाए और यह महत्वपूर्ण निर्णय, बनाई जाने वाली कार्ययोजना में अवश्य शामिल किया जाए।
6. प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करने की चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अपेक्षा की गई है कि प्रतिभाशाली या उच्च श्रेणी प्राप्त करने वाले विद्यार्थी-शिक्षक बनने के प्रति आकर्षित हों। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए विद्यार्थीवृत्ति की व्यवस्था की गई है (अंक संख्या 15.5, पृष्ठ सं. 70)। यद्यपि विद्यार्थीवृत्ति का सुझाव प्रशंसनीय कदम है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। वास्तव में, प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों को किसी भी व्यवसाय में आकर्षित करने के लिए उस क्षेत्र में शामिल होने के समान अवसर, सम्मानजनक वेतनमान, समाज में प्रतिष्ठा और उस व्यवसाय में काम करने के तरीके के साथ-साथ आगे बढ़ने के अवसर की अनुकूलता आवश्यक है। वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो किसी व्यक्ति को (केवल सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों में मिलने वाले वेतनमान को छोड़कर) शिक्षक बनने के लिए प्रेरित करता हो। सरकारी विद्यालयों में अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक से जिस तरह का काम लिया जाता है, वह व्यवसाय की गरिमा और समाज में इसकी प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से नुकसान तो पहुँचाता ही है, इसके साथ ही साथ उसके विद्यालयी कार्यों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। शिक्षकों का शैक्षणिक कार्यों से इतर कार्य करने के कारण सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शैक्षिक प्रगति प्रभावित होती है वहीं निजी संस्थाओं में शिक्षकों का वेतनमान इतना कम है कि इस तरह कोई भी प्रतिभाशाली विद्यार्थी मात्र मजबूरी में ही शिक्षक बनने की सोच सकता है। दूसरी बात माँग एवं आपूर्ति के नियमों की अवहेलना कर जिस तरह से पिछले दशक में बी.एड. एवं डी.एल.एड. की निजी संस्थाओं को खोला गया, वह एक गंभीर चिंता का विषय है। कम गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण (केवल कागज़ पर) प्रदान करे या वितरण के कारण दोयम दर्जे के शिक्षकों की फौज खड़ी हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप डिग्री होने के बावजूद काम करने का अवसर न मिलने तथा मनरेगा की तुलना से भी कम (यहाँ तक कि 2500 से 4000 प्रतिमाह) वेतन पर शिक्षक बनने के लिए कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति आकर्षित नहीं होगा। अतः अगर हम वास्तव में इस क्षेत्र में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करना चाहते हैं, तो हमें इस क्षेत्र में शामिल होने के लिए समान अवसर, सम्मानजनक वेतनमान, समाज में क्षेत्र की प्रतिष्ठा और उस व्यवसाय में काम करने के तरीके के साथ-साथ आगे बढ़ने के अवसर को भी सुनिश्चित करना होगा। अनावश्यक गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त कर शिक्षकों को शिक्षण का सम्मानजनक वातावरण प्रदान करना होगा।
7. नए पाठ्यक्रम को डिज़ाइन करने की चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विद्यालय की शिक्षा संरचना को 5 + 3 + 3 + 4 (तीन से 18 साल के विद्यार्थियों के लिए) में बदल दिया गया है। मनोविज्ञान के अनुसार, मानव विकास के सात मुख्य चरण हैं— (शैशवावस्था, बाल्यावस्था, उत्तर बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था) इन चरणों में युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था के चरण का संबंध जीवन के लगभग 82 वर्ष (18 वर्ष से 100 वर्ष ) से है, जिसमें वैचारिक और शारीरिक परिपक्वता को छोड़कर कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं होता है, जबकि जन्म से लेकर 18 वर्ष की आयु तक मानव व्यक्तित्व में एक तेज़ और बहुआयामी परिवर्तन होता है, जो बच्चे की शारीरिक वृद्धि तथा मानसिक, सांवेगिक एवं सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। इस काल को ही सीखने का सर्वोत्तम काल माना जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा की संरचना मनोविज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर की गई है, लेकिन पाठ्यक्रम के प्रारूप के संबंध में कोई विशेष दिशा निर्देश नहीं है। बाल्यावस्था में बच्चे के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर (3 से 8 वर्ष ), उत्तर बाल्यावस्था (9 से 12) और किशोरावस्था (13 से 18) में होने वाले शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परिवर्तनों के मद्देनज़र पाठ्यक्रम संरचना के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन का अभाव अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तुरंत लागू करने के लिए आवश्यक है कि नए पाठ्यक्रम का निर्माण तुरंत किया जाए। शिक्षक की भूमिका में एक बड़ी तब्दीली आई है, उसे अब तक ज्ञान के स्रोत के केंद्र रूप में स्थान मिलता रहा है और वही समूची सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का संरक्षक एवं प्रबंधक रहा है। अब उसकी भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक की होगी, जो सूचना को ज्ञान अथवा बोध में बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों से शिक्षार्थियों को उनके शैक्षणिक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करे (एन.सी.एफ़. 2005, पृष्ठ सं. 122)। इस चुनौती से निपटने के लिए रचनात्मक अधिगम पर आधारित शिक्षक-प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की आवश्यकता होगी, जिसके लिए विशेषज्ञों की टीम गठित की जानी चाहिए तथा सी.बी.एस.ई., एन.सी.ई.आर.टी. एवं एस.सी.ई.आर.टी. आदि संस्थानों का सहयोग लेकर पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया को अभियान की तरह निश्चित समय सीमा में पूर्ण किया जाना चाहिए, जिसमें नीति के साथ ही साथ विद्यार्थियों के विकास एवं वृद्धि के विभिन्न चरणों में होने वाले परिवर्तन, उनकी अभिक्षमता एवं उनके हितों के साथ -साथ समाज की ज़रूरतों और सांस्कृतिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम को निर्मित किया जाए।
8. शिक्षक शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता को बनाए रखने की चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार माध्यमिक स्तर तक ड्रॉप आउट दर को शून्य प्रतिशत पर ला देना, उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों का नामांकन 50 प्रतिशत तक बढ़ाना तथा प्रत्येक एकल शिक्षक शिक्षा की संस्थाओं को बहु-विषयी संस्था के रूप में विकसित करना है वर्ष 2030 तक सभी एकल संस्थाओं को बहु-विषयी संस्था के रूप में परिवर्तित करने का लक्ष्य रखा गया है। वर्ष 2030 के बाद मात्र बहु-अनुशासनात्मक संस्थानों में ही शिक्षक शिक्षा से संबंधित पाठ्यक्रम चलाए जा सकते हैं वर्तमान में भौतिक एवं मानवीय संसाधनों की उपलब्धता को देखते हुए यह लक्ष्य अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। स्वाभाविक रूप से इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, बड़ी संख्या में माध्यमिक विद्यालयों के साथ-साथ उच्च शिक्षा संस्थानों को खोलना होगा, जिसमें प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता होगी। इसमें शिक्षकों के साथ -साथ भौतिक सुविधाओं की आवश्यकता होगी, जिसकी पूर्ति के लिए अधिक धन की आवश्यकता होगी। केंद्र सरकार आज सकल घरेलू उत्पाद का लगभग चार प्रतिशत ही खर्च कर रही है, जो उपरोक्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहुत कम है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस समस्या को समाप्त करने के लिए बजट का छह प्रतिशत खर्च करने का सुझाव दिया गया है, जिस पर अमल करने की समय सीमा 2035 रखी गई है। साथ ही निजी क्षेत्र से धन के प्रबंधन के साथ -साथ संसाधनों के प्रबंधन की बात भी की गई है। वास्तव में केवल छह प्रतिशत के साथ उपरोक्त लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव है। अगर निजी क्षेत्र को आज की तरह ही शैक्षिक संस्थाओं के संचालन की अनुमति दी जाती है, तो गुणवत्ता पर प्रश्न-चिह्न लग जाएगा। शिक्षक शिक्षा की वर्तमान स्थिति के पीछे विभिन्न कारणों में अधिकांश निजी संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार और मुनाफ़ाखोरी सबसे अधिक ज़िम्मेदार है। बेशक, कुछ निजी शैक्षणिक संस्थान अच्छा काम कर रहे हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र से पूंजी की प्राप्ति, बड़ी मात्रा में वित्तीय प्रबंधन, गुणवत्ता का सुनिश्चितीकरण और निजी संस्थाओं पर नियंत्रण एक बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के लिए तैयार की जाने वाली योजना को उपरोक्त चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी नियामक संस्थाएँ निडर होकर काम करती हैं, तो इस चुनौती को पार करने में कोई विशेष बाधा नहीं होगी। मज़बूत इच्छाशक्ति, स्पष्ट कार्य योजना और पर्याप्त वित्तीय सहायता की आवश्यकता की पूर्ति के लिए सरकार, शिक्षक, प्रबंधन समिति एवं समाज सबकी निश्चित भूमिकाओं के निर्वाह की ज़रूरत है।
निष्कर्ष- शिक्षा, शिक्षार्थी और शिक्षक सभी का एक-दूसरे के साथ बहुत गहरा संबंध है, जहाँ शिक्षा, विकास की एक प्रक्रिया है, सीखने वाला उस विकास का लाभार्थी है तो शिक्षक इस पूरी प्रक्रिया का समन्वयक, निर्माता और प्रशासक है। इसीलिए शिक्षा की प्रक्रिया को गुणात्मक और प्रभावी बनाने के लिए इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तैयार की गई है, जिसने शिक्षक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया है। शिक्षक शिक्षा को एक नई दिशा देने के लिए जो सिफ़ारिशें और अपेक्षाएँ की गई हैं, उन्हें पूरा करने में कई चुनौतियाँ होंगी, जिनकी ऊपर चर्चा की जा चुकी है। यदि शिक्षा प्रक्रिया में शामिल सभी लोग पूरी ईमानदारी के साथ काम करते हैं, तो उपरोक्त चुनौतियों का हल ढूँढकर भारतीय शिक्षा प्रणाली को फिर से विश्वस्तरीय बनाया जा सकता है। इसके लिए सिर्फ़ सरकार, समाज, शिक्षक, प्रबंध समिति एवं विद्यार्थियों के प्रयासों की ज़रूरत है।
डॉ० दिनेश कुमार गुप्ता
सहायक आचार्य,
अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, गंगापुर सिटी
जिला- सवाई माधोपुर (राजस्थान) 322201
दूरभाष: 9462607259
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