खुद से नाता जुड़ सके,यही दीक्षा तो बाकी है।
उजाड़ कर दिया हर चमन खुद से ही खुद का,
फिर भी कितना अभिमान अभी भी तो बाकी है।
माना रहे जो जश्न ,अपमानित कर जीत का,
कितना हार गए वो,ये जानना भी तो बाकी है।
प्रेम प्रेम,निष्ठा,निष्ठा जो सदा ही चिल्लाते,
उनमें प्रेम, निष्ठा अभी सीखना तो बाकी है।
तोड़ कर को घरौंदे जो सो रहे है चैन से,
उन्हें इस दर्द को अभी जीना तो बाकी है।
न रो वैदेही तू मनुज के इस पतन को देख,
मानुजता का पाठ अभी सिखाना तो बाकी है।
झुलस रही धरा आज कितना सूरज की तपिश से,
हर कर्मो का हिसाब यहां अभी भी तो बाकी है।
जितना रोना है रो लो घड़ियाली आंसू भी तुम,
सत्य के तराजू पर तौल अभी भी तो बाकी है।
कौन ले गया है,कब क्या इस धरा से साथ अपने,
मनुज को यह ज्ञान जीना अभी भी तो बाकी है।
अरुणिमा बहादुर खरे "वैदेही"