राष्ट्र निर्माण में शिक्षक की भूमिका

अरुणिता
द्वारा -
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अंधकार से प्रकाश की ओर चलना ही हमारी नियति है | इसी नियत और सुसंगत नीति से ज्ञानदीप का मशाल लिए जो नियमित रूप से हमारे जीवन पथ को आलोकित करते हैं, उसे हम गुरुदेव कहकर संबोधित और सम्मानित करते हैं। ज्ञान की गंभीरता से, त्याग की पराकाष्ठा से और आचरण की श्रेष्ठता से ही गुरु की गौरव गरिमा बढ़ती,खिलती , महकती और सुरक्षित रहती थी,रहती है और रहेगी भी।

समाज और राष्ट्र की चतुर्दिक प्रगति का आधार है -ज्ञान तथा कर्म। शांति और समृद्धि, इसी दोनों मंत्रों के निरन्तर जाप,अनवरत श्रम और कुशल मार्गदर्शन से संभव है। चारित्रिक उत्कृष्टता, ज्ञानोपासना और कर्मयोग की शिक्षा से शिक्षक अपने शिष्यों को शिखर की यात्रा करते,कराते हैं और राष्ट्र के निर्माण में प्रत्यक्ष-परोक्ष सहायक होते हैं। राष्ट्र की उन्नति के उन्नायक होते हैं शिक्षक। उन्नत शिक्षक, समुन्नत पद्धति और ज्ञान पूजा करने वाले समाज-राष्ट्र की उन्नति तय है। यही कारण है कि युग कोई भी, शासन किसी का भी हो, शिक्षा और शिक्षक का सम्मान सदैव एक समान रहा है -भले ही उसकी दृष्टि और सृष्टि जैसी रही हो। विना गुरु का कल्याण असंभव -यह सार्वभौमिक और सार्वकालिक सत्य है।

शिक्षक राष्ट्र रुपी उपवन के चतुर, कुशल और समर्पित शिल्पकार होते हैं। भविष्य को सुंदर बनाने हेतु बीज को तलाशते हैं, तराशकर उम्मदा बनाते हैं ताकि उम्मीदों को अम्लीजामा पहनाने में खरा उतरे। इसके लिए वह अपने शिष्यों में उन सभी सद्गुणों का विकास करते हैं, जिससे वह सम-विषम सभी परिस्थितियों में ध्येयनिष्ठ जीवन को सफल बनाने में सदा सफल हो सके। गुरु के विशाल कंधों पर राष्ट्र के नौनिहालों को सन्मार्ग पर ले चलने का गुरुतर दायित्व होता है तथा इसका निष्पादन, निर्वहन गुरु अपने भीतर अन्तर्निहित ज्ञान,दया, क्षमा, त्याग, कुशलता, दूर दृष्टि तथा संपूर्ण समर्पण जैसे गुरुत्वाकर्षण बल पर करते हैं।

भय,लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर जब गुरु सन्मार्ग से दिग्भ्रमित होते हैं तो गोस्वामी तुलसीदास जी की चेतावनी बरबस याद आ जाती है:--

सचिव वैद्य गुरु तीन ज्यों,प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनी कर होहिं बेगिहि नाश।।

अतः दुर्गुणों से बचना भी है और बचाना भी है। गौरवशाली भारतीय संस्कृति में शिक्षक की महिमा अद्भुत और अविस्मरणीय रही है। भगवान राम -कृष्ण के गुरु महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र और महर्षि संदीपनी से भला कौन अपरिचित हैं। आधुनिक युग में महर्षि चाणक्य के परम प्रतापी शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य की गौरवगाथा विश्वविश्रुत है।सच पूछिए तो हर चमकते,धमकते और आलोक बिखेरते चिराग रुपी शिष्य के भीतर कोई न कोई गुरु का गुरुतर दायित्व, समर्पण समाहित है। कुम्हार सरीखे गुरु मिट्टी समान शिष्य को मेहनत,लगन,समर्पण और निर्देशन के बल पर मनचाहा सुपात्र गढ़ने में सफल होता है और उसके इसी सफलता पर राष्ट्रीय समृद्धि जगमगाती है।।


डॉ० विजय शंकर
सहायक शिक्षक
आर एल सर्राफ उच्च विद्यालय देवघर

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