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नदी का सौंदर्य

“नदी का सौंदर्य प्रवाह नहीं, बल्कि प्रपात है|”

प्रकृति जीवन रूपों,सौंदर्य,संसाधनों,शांति और पोषण का अंतहीन विस्तार है। प्रकृति पृथ्वी पर विभिन्न क्षेत्रों के बीच निरंतरता बनाए रखती है। अपनी प्राकृतिक सुंदरता और संसाधनों की पुनःपूर्ति दोनों के संदर्भ में समृद्ध प्रकृति पृथ्वी पर विभिन्न आकारों और रूपों में जीवन का समर्थन करने के लिए जिम्मेदार है। प्रकृति के अगाध सौंदर्य का मानवता से हमेशा गहरा नाता रहा है। प्रकृति की सुंदरता निर्विवाद है। इसकी सुंदरता में शालीनता, सामंजस्य और संतुलन जैसे पहलू शामिल होते हैं। वास्तव में प्रकृति प्रदत्त हर वस्तु अपने-आप में सुंदर और प्रेरक होती है। पर्वत, नदियों, झरनों आदि का प्राकृतिक सौंदर्य ईश्वर की अलौकिक अद्भुत असीम एवं विलक्षण कलाओं का समूह है।

प्रकृति का पल-पल परिवर्तित रूप सौंदर्यपूर्ण, हृदयाकर्षक और उल्लासमय होता है। परिवर्तन हमारे परिवेश का एक अंतर्निहित हिस्सा है। संरचनाएं उठती हैं तथा गिरती हैं और इस कारण प्रकृति निरंतर कायापलट से गुजरती है। पर्वत जल का नैसर्गिक भंडार है जो यहां से उद्गमित नदियों और ग्लेशियरों को जीवित रखता है। हमारी जीवनरेखा कहीं जाने वाली नदियों को प्रपात ही मीठा जल प्रदान करते हैं। ये प्रपात नैसर्गिक सौंदर्य का हिस्सा होने के साथ-साथ जीवनदायिनी नदियों के पोषक भी हैं। प्रपात एक प्रमुख प्रवाही जलकृत अपरदनात्मक स्थल रूप है जो नदियों का उद्गम स्रोत होता है। जीवन की तरह ही एक नदी भी अनवरत बहती है।हमारे इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा नदियां रहीं हैं। दुनिया में आज भी नदियों में पनपी सभ्यता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। मनुष्य अनादि काल से ही नदियों के निकट निवास करता आया है। मानव सभ्यता मूल रूप से नदियों के जल से सिंचित और पल्लवित हुई है। ये नदियां नहीं होती, तो हमारी महान सिंधु-आर्य सभ्यता नहीं होती। इसकी अनवरत गति ही भारतीय सभ्यता के सनातन यात्रा को ऊर्जा और ताकत रही है।

नदी के संदर्भ में शास्त्रों में अंकित है कि ‘नद्ये च पुराणो च वर्तमानम् च भविष्यते’। अर्थात् नदियां हमारा इतिहास, वर्तमान एवं भविष्य है। जीवन पनपने का सबसे बड़ा माध्यम जल और उसकी वाहक नदियां ही हैं। वैसे जल की हर धारा नदी नहीं होती। छांदोग्य परिशिष्ट में ऋषियों ने यह निश्चय किया कि कम से कम 8000 धनुष के बराबर जो धारा का प्रवाह हो, वही नदी कही जा सकती है अर्थात् कोई जलधारा 32000 हाथ तक जाकर ही नदी की संज्ञा प्राप्त करती है। नदी शब्द नद् और दीप शब्द से बना है जिसका अभिप्राय दरिया, प्रवाहिनी, सरिता है। नदी जन्म से ही चंचल होती है। पर्वतीय जंगलों से निकलते वक्त नदी अपने मन में यही विचार कर चलती है कि कि जो भी रास्ते में मिलेगा, उसको अपना बनाते हुए वह आगे बढ़ेगी। नदी प्रपात के रूप में बहते हुए लोगों की आंखों और चेहरों पर खुशियां भी लाती है। समय बीतने के बावजूद इसकी कीर्ति में कभी भी अंतर नहीं पड़ता। अतीत का नदी को बिल्कुल आभास नहीं होता और उसे भविष्य की भी चिंता नहीं होती। तभी तो अपना सर्वस्व मिटाकर वह अंततः खारे सागर में मिलकर उसे भी मीठा करने का प्रयास करती है।

नदी जब ऊंचाई से गिरती है तो प्रपात बनती है। प्रपात जल की एक मोटी धारा होती है जो किसी नदी के पहाड़ी क्षेत्र से नीचे गिरने पर उत्पन्न होती है। नदी का जन्म पर्वतमाला की गोद से होता है।गौर से देखें तो पर्वत के शरीर पर प्राचीनता की गहरी छाप होती है जबकि नदियां नित्य नवीन होती हैं। अतीत से इनका कोई संबंध नहीं होता अर्थात अतीत इसके प्रभाव में बहता जाता है और यह सदा नवीन बनी रहती है। उसके द्रव शरीर से और उसकी गति से सृष्टि होती है। नदियों का आदि पर्वत है और समुद्र उसका अंत। पर्वत पृथ्वी का सबसे ऊंचा स्थान है और समुद्र पृथ्वी का सबसे नीचा स्थान अर्थात नदियां ऊंचाई से नीचे की ओर चलती है। यही उसका स्वभाव है। सबका लक्ष्य ऊंचाई की ओर जाना होता है, जबकि नदियों का लक्ष्य नीचे की ओर जाना होता है। इसलिए पंडितों ने इसे निमग्ना कहा है। नदियां अपने मार्ग के बीच में पड़ने वाली बाधाओं को डराते और धकेलते चलती है। उसके लिए दुर्गम पथ भी सम है। पथरीले, कंटीले भयानक पथ पर भी उसे चलने में कोई कठिनाई नहीं होती। वह अदृश्य होकर और गुफाओं में भी घुसकर चलती है, कभी उसकी चाल वक्र होती है और कभी सर्पिल,तो कभी कलोल करती हुई इठलाती चलती है। यह यात्रा समाप्ति के बाद पुनः अपने घर को नहीं लौटती,उसकी यात्रा का क्रम अनवरत चलता ही रहता है और उसकी समाप्ति का क्रम भी निरंतर चलता रहता है।

सभ्यता के विकास क्रम में जब मनुष्य की वाचिक चेष्टाएं अर्थवान होने लगी थी और भाषा का जन्म होने को था तभी मनुष्य ने पहाड़ी धाराओं की ध्वनि को नाद कहा और कालांतर में भाषा के विकास क्रम में इसके अन्य अर्थ विकसित होते चले गए।नदी और नाद दोनों नद् शब्द से बना है। अतः दोनों शब्दों की प्रकृति में भी समानता है।गौर करें तो नदी के सलिल, सरिता, धारा, तरला, सिंधु, निर्झरना आदि पर्यायवाची शब्दों में उजागर प्रवाह भाव पर जोड़ दिया गया है। इसके तमाम अर्थ इसे शोर, ध्वनि अथवा गर्जना से जोड़ते हैं। ज्यादातर धाराओं का प्राकृतिक उद्गम पर्वतों से होता है। अतः नदी को शैलवाला, पर्वतसुता या पार्वती भी कहा जाता है। ऊंचे पर्वतों से जब जलधाराए नीचे की ओर यात्रा शुरू करती है तो चट्टानों से टकराकर घनघोर ध्वनि के साथ नीचे गिरती हैं, यही नाद अथवा शोर है, यही गर्जना है। पहाड़ों से नीचे आने पर जब यह मैदानों में बहती है तो उसकी गति क्षीण जरूर हो जाती है मगर छोटी चट्टानों, कंकड़ पत्थरों से संघर्ष तब भी जारी रहता है जिससे कल-कल ध्वनि पैदा होती है।

नदी के कितने रहस्य व दर्शन हैं? उसका पानी लगातार बहता रहता है, बहता जाता है, इसके बावजूद भी वह हमेशा वहीं रहती है। उस पर भी हर पल नया। यह नदी है, जो एक समय में सभी जगहों पर है। हर जगह और वर्तमान का अस्तित्व सिर्फ उसी के लिए है। नदी से निरंतरता का पाठ सीखा जा सकता है। निरंतरता के अलावा नदी से सुनना सीखा जा सकता है। स्थिर हृदय से सुनना, एक प्रतीक्षा करने वाली, उदार आत्मा के साथ, उद्वेग के बिना, कामना के बिना, बिना कोई फैसला सुनाए, बिना कोई राय जाहिर किए सुनना। नदी के बहुत सारे स्वर हैं। इसमें जीवन के स्वर हैं, तो अस्तित्व के सतत् होने के स्वर हैं। कदाचित इसलिए आरसी प्रसाद सिंह की कविता कभी भूल ही नहीं पाता हूं- “यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है। सुख-दुख की दोनों तीरों पर चल रहा मनमानी है”।पृथ्वी पर नदियों का प्रवाह ठीक उसी तरह समझना चाहिए जिस तरह से जीवित शरीर में रक्त के प्रवाह के लिए धमनियों का स्थान है।

प्रवाह को किसी गतिविधि में पूर्ण विसर्जन की स्थिति के रूप में वर्णित किया जाता है। नदी का दोनों छोर अपना अस्तित्व त्याग कर मिलन की आतुरता रखते हैं जबकि कर्तव्य बोध इन्हें अलग करके रखता है। नदी के किनारे एक दूसरे से बहुत कुछ कहना चाहते हैं मगर कहते भी है तो बस एक लहर की ध्वनि से। एक किनारे से जब लहर उठती है तो वह दूसरे किनारे तक नहीं पहुंच पाती क्योंकि दूसरे तट से भी ऐसी ही लहर है पहले तट को छूने निकलती है। वह अपने तरंग द्वारा एक दूसरे को स्पर्श करते हैं पर मिल नहीं पाते। फिर भी वह खुश हैं कि कहीं तो होगा, चाहे तलहटी की गहराइयों में ही मिलेंगे और फिर बहने लगते हैं उसी उल्लास से ।उसकी गतिशीलता दर्शाती है कि यदि कोई चीज खत्म हो गई है तो उसकी पुनरावृत्ति की संभावना आसान नहीं है।

प्रपात सिखाती है कि जीवन में गहराई में जाना जीवन को खोजना है। वास्तव में यह हमें सदैव क्षुद्रता और संकीर्णता त्याग कर उच्च आदर्श अपनाने की प्रेरणा देते हैं। यह ऊंचाई और गिरने के भय से मुक्त होकर वास्तव में गहराई लाने का संदेश देते हैं। इसी प्रकार नदी को सब कुछ स्वीकार्य है। हम सबके पास सदा एक सरल और निर्मल मन होता है, नदी की तरह। वह कभी बूढ़ा नहीं होता है, सदैव नवनीत रहता है। पहाड़ की नदी में कभी गंदगी नहीं टिकती। वह पिछले पलों के सभी कचड़ों को बहा ले जाती है। फिर शीशे की तरह साफ मन। स्मृति का धूलकण भी नहीं बचता। उसके मन में न वर्तमान और न ही भविष्य का भय होता है।

नदी का सौंदर्य देखिए। उसे न तो चोटी से गिरने का डर है और न ही चट्टानों से टकराने की परवाह है। ना उसको क्रंदन और ना किनारों के बंधन का भय है। बस गति है, लय है और साथ में है प्रवाह का लहराता गाता क्षण। बस यही उसका जीवन है। नदी के रूप और कर्म में ही सृजन एवं जीवन के दर्शन की झलक है। जो व्यक्ति नदी की पानी के तरह बन गया, वह सफल हो गया। जो पानी की तरह तरल, सरल और सजल हो गया, बाधा भी उसके लिए अवसर बन जाती है। नदी की तरलता का अर्थ है कि विनम्र हो जाना। अनावश्यक तन जाने में टूटने का खतरा है। सरल है, तो पानी की तरह बहते हुए गंतव्य तक पहुंच जायेंगे! नदी कहीं तनती नहीं, यही कारण है कि वह रुकती नहीं। किसी कवि ने ठीक ही कहा है- “सर पटक-पटक कर पत्थर पर झरनों ने झरना सीखा’। यथार्थ है कि अव्यक्त प्रकृति से ही व्यक्त जगत का विकास हुआ है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि “नदी का सौंदर्य प्रवाह नहीं, बल्कि प्रपात है।”

प्रभाष पाठक

सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी

नीलकंठनगर नई बजरंगबली मंदिर के पास

तिलकामांझी, भागलपुर-8120001 बिहार