कभी-कभी बचपन के दिन बड़े याद आते,
घूमा करते थे ईद गिर्द, चिड़िया गुरसल कौवे,
उनको गिन कर लगाते थे अंदाजा,
आएगा कोई मेहमान,चिट्ठी या लिफाफा,
ची ची कांव कांव से गुंजा करते आंगन,
रोज सवेरे दाना डालते,रखते थे पानी भरकर,
कभी-कभी प्यार से उनको पकड़ने की करते थे कोशिश,
उड़ जाते थे वे झट से , हम भी हंसते थे खुलकर,
आज जमाना बदल गया,पक्षियों का जीना मुश्किल हुआ,
पेड़ो को काटकर लोगों ने नवीनीकरण किया,
कितनी अजीब बात है,मोबाइल हमारा जीने का सहारा बना,
इसी मोबाइल के कारण,जाने कितने पक्षियों को जान गंवाना पड़ा,
तरक्की करने के चक्कर में पक्षियों का जीना दुश्वर हुआ,
घर आंगन की छतें सुनी हो गई,नहीं मिलते पक्षी देखने को,
कीट पतंगों को खाकर,करते हैं पक्षी हमारी फसल सुरक्षित,
पक्षी नहीं होंगे तो जाने,आ जाएंगी कितनी मुश्किल,
अभी वक्त है संभल जाओ, पक्षी व्यथा पर विचार फरमाओ,
जंगलों को काटने से रोको, अपना व पक्षियों का जीवन सुरक्षित बनाओ,
गर्मी बहुत है, अपनी छत पर दाना डालो,
एक कटोरा पानी भरकर छत पर रख आओ,
फिर से आंगन में पक्षियों को चहकाओ।
नीतू रवि गर्ग "कमलिनी"
चरथावल, मुजफ्फरनगर
उत्तरप्रदेश