न जाने किसने क्या सोच कर कहा होगा “घर की मुर्गी दाल बराबर” …… क्योंकि जिसे न मुर्गी पसंद है न दाल, अर्थात मुझ जैसा कोई शुद्ध सात्विक शाकाहारी उसे वैसे भी मुर्गी से भला क्या लेना देना ……? हालाँकि श्रीमती अँगूठा टेक होते हुए भी कई बार हमें समझा चुकी हैं कि हमारी समझ ख़राब है ।लेकिन अब जैसे भी है हम अपनी समझ को भला क्यों बदलें ? क्योंकि हम ठहरे चिकने घड़े ,ऐसी राय अपने आपको अच्छी समझ वालों की हमारे बारे में है ।परंतु इससे हमारी सेहत पर भला क्या फर्क पड़ता ? पर क्योंकि हम जैसे कुछ विद्वान लोग कह कह के मर गए ,”कौन क्या कहता है बिल्कुल परवाह मत करो …….. करो वही जो मन भाये ।”
अब हमें हमारी थाली में बैंगन नहीं पसंद तो नहीं पसंद ……. । वैसे भी हर किसी को हमेशा पड़ौस की जाली हुई दाल की ख़ुशबू भी बहुत भाती है ,लेकिन घरवाली के पकवान भी हमेशा मुँह बिगड़ा कर ही खाये जाते हैं ।इसमें दोष मेरा नहीं है बच्चे भी कई बार कहते हैं कि मम्मी पड़ोस वाली आंटी की तरह बिरयानी बनाया करो न ……. बहुत ही स्वादिष्ट बनाती है वो शर्मा आंटी ………..। वैसे तो हमारा भी कई बार मन करता है कि बच्चों की तरह हम भी अपने मन की बात कह दें श्रीमती से ,लेकिन मन की बात कहने की आजादी या तो बच्चों को होती है या फिर उनको जिनके मन की बात हम सुनना नहीं चाहते लेकिन फिर भी कुछ लोग मन की बात हमें पेल ही जाते हैं।
हमारी पीढ़ी के वो लोग जो अब सठिया गए हैं या सठियाने वाली उम्र की कगार पर हैं ,उनका बचपन घर में माँ के हाथ का भोजन खाकर और घर के बुजुर्गों के मुख से राजा रानी की कहानी सुनकर ही व्यतीत हुआ है ।बचपन में हर किसी को माँ के बनाये हुए भोजन में पचास कमियाँ मिलती थी लेकिन मजबूरी है बेचारा बालक करे भी दो क्या ? उस जमाने में न पीज़ा बर्गर तो बाज़ार में मिलते नहीं थे ।हालाँकि बच्चे के साथ ही बच्चे के बाप की स्थिति भी कुछ ऐसी ही रहती थी ।लेकिन बेचारा क़िस्मत का मारा कुछ कह भी नहीं सकता था क्योंकि तब होटल में खाने का जमाना ही नहीं था।इसलिए श्रीमती भले ही जैसा भी दे,निरीह प्राणी की तरह प्रशंसा में क़सीदे पढ़ने के साथ ही जले भुने खाने के साथ ही जली -भुनी सुनने की भी आदत डालनी पड़ती थी ।हम भी शुद्ध उसी प्रजाति के प्राणी हैं ।अब तो ऐसे हालात हो गए हैं कि अगर गलती से बहुत अच्छा खाने को मिल जाये तो लगता है किसी गलत घर में घुस गये ।ये हक़ीक़त भी आज बड़ी हिम्मत करके इसलिए लिख पा रहे हैं क्योंकि श्रीमती तो पढ़ ही नहीं पायेंगी ……….मैंने आपको पहले ही बता दिया था कि उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर ही है ,और आप पढ़ने के बाद उन्हें सुनाने के लिए तो आयेंगे नहीं।इसलिए तो हम सीना फुलाकर कह नहीं पाते वो लिख देते हैं।हम किसी छप्पन इंच सीने वाले से कम हैं क्या ?
आज जमाना बदल गया है ।खाने और खिलाने के तौर तरीक़े भी बदल गये हैं।आजकल हमारे पास बहुत से विकल्प रहते हैं।खाने और खिलाने के भी ।बच्चों को घर का ख़ाना पसंद नहीं ,ऑनलाइन ऑर्डर किया घर बैठे विविध व्यंजन हाज़िर !किसी की श्रीमती का मन आज ख़ाना बनाने का नहीं नहीं है तो ऑनलाइन आदेश हुआ और सब कुछ हाज़िर …..किसी बात की चिंता ही नहीं है ।मैंने किसिकी श्रीमती का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि हम तो सपत्नी अभी तक भी इस ऑनलाइन झमेले से दूर ही हैं।बच्चों की फ़रमाइशें पूरा करने में बच्चों की मम्मियों को रसोई में पसीना बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती ।बच्चे स्वयं ही बाप का मोबाइल उठायेंगे और और जो भी ख़ाना होता है ऑर्डर भी कर देते हैं ।माँ बाप को तो पता ही जब चलता है जब बैंक अकाउंट से पैसे कटने का मेसेज मिलता है या फिर डिलीवरी बॉय ख़ाना लाकर दरवाज़ा पर घंटी बजाता है।
आजकल घर से बाहर के खाने का प्रचलन भी कुछ बढ़ गया है।हालाँकि सभी कहते हैं कि भोजन घर का ही अच्छा होता है ।फिर भी घर की अपेक्षा बाहर के खाने का चलन दिनों दिन बढ़ता जा रहा है ।जिनके घर में बनाने के साधन नहीं हैं या बनाने वाली या वाला नहीं है उनका तो ठीक है लेकिन लोग शौक़िया ही कई बार कहते हैं कि आज कुछ अच्छा खाने का मन है चलो कहीं बाहर चलते हैं ख़ाना खाने के लिए ।अब हमारी हिम्मत अभी भी इतनी तो नहीं है की हम कह सके चलो कुछ अच्छा खाने के लिए बाहर चलते हैं ।लेकिन हम भी आख़िर जीते जगाते जीव हैं एक दिन हमारी भी इच्छा हुई कि कहीं अच्छा खाने के लिए जाया जाये ।हमने भी श्रीमती जी से कह ही दिया ,”प्रिय तुम भी दिन भर घर के काम में थक जाती होगी,आज चलो बाहर ही कहीं होटल में ख़ाना खाने के किए चलते हैं।”
हमारा इतना कहना था कि श्रीमती ने हमें ऊपर से नीचे तक पहले तो घूरा फिर फूट पड़ी “क्यों …………लॉटरी निकल गई है क्या …… या मेरे हाथ का खाते-खाते मन भर गया …?”अब आज की आधुनिक नारी होती तो बाहर खाने के नाम से उछल पड़ती …… ख़ुशी से झूमने लगती …….लेकिन हम ठहरे सठियाई उम्र वाली श्रेणी के जीव ।फिर भी हमने जैसे तैसे उन्हें तैयार किया और रात्रि भोज के लिए अपने दुपहिये पर सवार होकर निकल लिए स्वादिष्ट व्यंजनों की तलाश में …..।
एक अच्छा सा लगने वाले होटल के सामने हमने अपना दुपहिया वाहन खड़ा किया और श्रीमती को वहीं खड़ा कर हम अंदर गए कि पहले हम अंदर स्थितियों को जाँच कर आते हैं।हम अंदर जैसे ही घुसे तो सामने ही बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था ,”घर से दूर घर,जैसा खाना ,” पढ़ते ही हमारा माथा ठनका ,भला ये क्या मज़ाक़ है …….. घर के खाने से निजात पानी के लिए तो यहाँ आए और यहाँ लिखा है घर जैसा खाना ……….? हम तुरन्त उल्टे पैर बाहर आये ,दुपहिया उठाया और श्रीमती जी के साथ आगे की तरफ़ प्रस्थान कर गये।श्रीमती जी ने पूछा भी कि क्या हुआ ? अब उनकी इस ‘क्या ‘का हम क्या जवाब देते ।हमने कह दिया ,”यहाँ कुछ ठीक नहीं लगता …… आगे देखते हैं ।”
थोड़ी दूर पर एक ओर अच्छा सा होटल दिखा लेकिन यह क्या …? उसके तो मुख्य द्वार पर ही टंगा था-“घर से दूर घर जैसा स्वादिष्ट भोजन “ पढ़ते ही हम बिना रुके आगे बढ़ लिए ।अब भला जब घर में ही स्वादिष्ट भोजन मिलता तो हम भला इनके द्वार पर क्यों आते..? एक अन्य होटल पर मैंने देखा वहाँ कहीं भी नहीं लिखा था घर जैसा खाना ।हम कुछ संतुष्ट हुए।श्रीमती जी सहित हम अंदर घुसे ही थे कि काउंटर पर बैठी एक सुंदर सी दिखने वाली बाला से हमने मन की संतुष्टि के लिए पूछ ही लिया- “आपके यहाँ ख़ाना तो अच्छा है न…..।” उस बाला ने हमें पहली नज़र में ही परख लिया कि हम पहली बार ही यहाँ आये हैं ।वह तुरन्त हमारे सवाल को लपकते हुए बोली -“आप बिलकुल चिंता मत कीजिएगा …बहुत स्वादिष्ट …… बिल्कुल घर जैसा ही स्वादिष्ट ख़ाना मिलेगा आपको …।”जबाब सुनते ही श्रीमती जी हमारे कान में फुसफुसाई ,” जब घर जैसा ही ख़ाना है तो घर ही पर खा लेंगे ।”बात भी शतप्रतिशत सही है ।हम तुरन्त वापस बाहर आ गये ।उस बाला के आग्रह को अनसुना कर दुपहिया उठाया और सीधे पहुँच गए अपने आरामगाह पर ।हम पहुँचे ही थे कि श्रीमती जी की प्रिय सखी मिसेज़ शर्मा ,हाथ में एक कटोरा लिए आ धमकी ।मैंने सोचा ज़रूर उनके घर में शक्कर की हड़ताल हो गई,इसलिए शक्कर मंगाने आ गई ।लेकिन तभी हमारे कानों में आवाज़ आई ,”गुड्डू की मम्मी ,आज शाही पनीर बनाया है …….बहुत ही स्वादिष्ट बना है बिल्कुल होटल के जैसा ……साथ में तंदूरी बटर रोटी भी है ,…. होटल जैसी ………पंडित जी को भी जरुर टेस्ट कराना …… ।”हम चकराये कि आख़िर ये माजरा क्या है …….. ? होटल में घर जैसा ख़ाना … और घर में होटल जैसा ……अजीब गोरकधंधा है भाई …… हम तो ना समझ पायेंगे ………. समझेंगे भी कैसे ……क्योंकि हमने तो कभी कुछ समझने की कोशिश ही नहीं की ,कि घर का ख़ाना भी स्वादिष्ट हो सकता है। इसीलिए तो बाहर भी लोग लिखते हैं,-“घर से दूर ,घर जैसा ख़ाना ।“
डॉ० योगेन्द्र मणि कौशिक
कोटा, राजस्थान