दो सहकर्मी लंच कर रहे थे। लंच के उपरांत एक सहकर्मी ने अपने बैग में रखे डिब्बे में से कुछ स्वादिष्ट मिठाइयाँ निकालीं और दूसरे सहकर्मी को दीं। वो प्रायः कुछ न कुछ मिठाई अवश्य लेकर आते हैं। दूसरे सहकर्मी ने मिठाइयाँ लेते हुए कहा कि भई रोज़-रोज़ मिठाइयाँ खिलाकर मुझ पर इतना क़र्ज़ न चढ़ाओ। ‘‘क्या मतलब?’’ पहले सहकर्मी ने पूछा। दूसरे सहकर्मी ने कहा, ‘‘मतलब ये कि इस जन्म का जो क़र्ज़ होगा वो किसी न किसी रूप में अगले जन्म में उतारना पड़ेगा और मैं नहीं चाहता कि अगले जन्म में मैं क़र्ज़ उतारने के चक्कर में ही लगा रहूँ।’’ ‘‘तो इस जन्म में ही उतार देना, ’’ पहले सहकर्मी ने मज़ाक़ में कहा। जब हम किसी से कोई चीज़ अथवा पैसा उधार लेते हैं तो वो हमें लौटाना पड़ता है। लौटाना भी चाहिए और समय पर ही लौटाना चाहिए अन्यथा उसके दुष्परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए।
कुछ लोग किसी विवशता के कारण उधार ली हुई चीज़ अथवा पैसा लौटाने में असमर्थ हो जाते हैं अथवा बेईमानी के कारण लौटाना नहीं चाहते तो लोग कहते हैं कि क़र्ज़ तो लौटाना ही पड़ेगा। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ज़रूर लौटाना पड़ेगा। अगला जन्म किसने देखा है? वास्तव में इस जन्म के क़र्ज़ की अदायगी इस जन्म में ही करनी पड़ती है। कर्मों का फल किसी न किसी रूप में इसी जन्म में भोगना पड़ता है। और इस जन्म में न चुकाएँ तो? यह संभव ही नहीं है कि इस जन्म का क़र्ज़ इस जन्म में न चुका पाएँ। क़र्ज़ तो इसी जन्म में ही चुकाना पड़ेगा वो अलग बात है कि हमें पता भी न चले और क़र्ज़ का भुगतान भी हो जाए। अब यह क़र्ज़ क़र्ज़ देने वाले को चाहे उस रूप में न मिले लेकिन क़र्ज़ लेने वाले को तो किसी न किसी रूप में चुकाना ही पड़ता है और प्रकारांतर से हुआ भुगतान बहुत महँगा पड़ता है।
हमारे मित्र, रिश्तेदार अथवा अन्य परिचित-अपरिचित व्यक्ति हमें कभी न कभी दावत या कोई भेंट देते रहते हैं या अन्य किसी रूप में सहायता करते रहते हैं इसमें संदेह नहीं। इस संसार में आदान-प्रदान के माध्यम से ही संतुलन बना हुआ है अतः हम भी कोशिश करते हैं कि हम भी किसी न किसी रूप में उनका क़र्ज़ उतारें या उनकी मदद करें। उन्हें दावत या भेंट दें। कई बार जब हम इसमें असमर्थ पाते हैं तो हमें कमतरी का अहसास होता है और इसके परिणामस्वरूप हमारी मानसिकता में परिवर्तन आने लगता है। कई बार हममें हीनता की भावना घर करने लगती है। ऐसे मनोभावों का सीधा असर हमारे भौतिक शरीर व क्रियाकलापों पर भी पड़ता है। कमतरी अथवा विवशता का एहसास, शारीरिक कष्ट व मानसिक व्यग्रता के रूप में वास्तव में हम अपना क़र्ज़ ही चुका रहे होते हैं। क़र्ज़ मात्र रुपए-पैसों या वस्तुओं में ही नहीं चुकाया जाता अपितु मानसिक अथवा शारीरिक पीड़ा झेलकर भी हम परोक्ष रूप से अपना क़र्ज़ ही चुका रहे होते हैं।
कई बार हम रुपए-पैसों के रूप में नकद क़र्ज़ भी लेते हैं और उसे ब्याज समेत चुकाते हैं। कई बार क़र्ज़ के रुपए समय पर न चुका पाने के कारण बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। वाद-विवाद की दशा में कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं और पैसों के साथ-साथ जुर्माना, सज़ा या दोनों भुगतने पड़ते हैं। और कई बार तो कुछ लोग जीवनभर क़र्ज़ नहीं चुका पाते। ऐसे में क़र्ज़ लेने से अंतिम प्रस्थान तक क़र्ज़ लेने वाले पर जो मानसिक दबाव बना रहता है वही वास्तव में क़र्ज़ की अदायगी होता है। जो लोग ये समझते हैं कि किसी प्रकार का क़र्ज़ न चुकाने पर भी उन पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता तो वे ग़लतफ़हमी के शिकार हैं। यदि वे समय पर क़र्ज़ चुकाते तो उनकी स्थिति क़र्ज़ न चुकाने की स्थिति से बहुत अच्छी होती जिसे वे कभी नहीं जान पाएँगे।
वास्तव में समय पर क़र्ज़ न चुकाकर हम घाटे में ही रहते हैं। किसी भी प्रकार का क़र्ज़ चुकाने के बाद व्यक्ति को बहुत संतुष्टि मिलती है। वो हर प्रकार के तनाव से मुक्त रहता है। समाज में और भी कई प्रकार के क़र्ज़ या ऋण होते हैं जैसे मातृ ऋण, पितृ ऋण, गुरु ऋण, मातृभूमि ऋण इत्यादि। देश व काल के अनुसार और भी कई प्रकार के ऋण हो सकते हैं। इन ऋणों को भी किसी न किसी रूप में चुकाना पड़ता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके लिए समाज के नियमों का पालन करना भी अनिवार्य है। यदि उनकी उपेक्षा होगी तो उपेक्षा करनेवाले को उसका ख़मियाज़ा भी भुगतना पड़ेगा। यदि हम उपरोक्त ऋणों को सामाजिक व्यवस्था के अनुसार नहीं चुकाएँगे तो अन्य किसी रूप में चुकाने को बाध्य होंगे। इस क़र्ज़ अदायगी का सबसे दुखद पहलू यही है कि हम क़र्ज़ चुका रहे होते हैं और क़र्ज़ चुकता भी नहीं हो पाता।
कई व्यक्ति अपने सामाजिक कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह भी ठीक से नहीं करते। इसका भुगतान भी अवश्य करना पड़ता है। लोग प्रायः शिकायत करते हैं कि बुढ़ापे में उनके बच्चे न उनका सम्मान ही करते हैं और न ठीक से देखभाल ही करते हैं। ये स्थिति भी कहीं न कहीं क़र्ज़ उतारने से ही जुड़ी होती है। जो लोग अपने माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह ठीक से नहीं करते अथवा उनकी उपेक्षा करते हैं उनके बच्चे भी उनके प्रति अपने दायित्वों का निवाह ठीक से नहीं करेंगे तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है? ये वास्तव में परोक्ष रूप से क़र्ज़ की अदायगी ही है। आपने माता-पिता का क़र्ज़ नहीं उतारा तो आपके बच्चों की आपके प्रति उपेक्षा उस क़र्ज़ की अदायगी ही है। हर संबंध में यही नियम लागू होता है अतः पीड़ा अािवा परोक्ष रूप से क़र्ज़ अदायगी से बचने के लिए हमें ईमानदारी से संबंधों का उचित निर्वहन करना चाहिए।
ये भी देखने में आता है कि लिया गया ऋण न चुकाने पर कुछ लोगों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। वे बड़े बेशर्म होते हैं और कुछ भी उदरस्थ करने के बाद डकार तक नहीं लेते। ऊपर से तो लगता है कि ऐसे लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन उन पर जो प्रभाव पड़ता है वह कम घातक नहीं होता। ऐसे व्यक्ति हमेशा भयभीत अथवा सशंक रहते हैं कि देनदारी को लेकर कहीं कोई उनका अपमान न कर दे। वे लोगों से बचते फिरते हैं। बार-बार झूठ बोलते हैं जिससे उनका चारित्रिक पतन होता है। उनका आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। उनका न केवल सामाजिक दायरा संकुचित हो जाता है अपितु उनसे भी निकृष्ट लोग उनके अपने और समर्थक बन जाते हैं। ये भी एक प्रकार से क़र्ज़ की अदायगी ही है। यदि हम सामान्य तरीक़े से क़र्ज़ की अदायगी नहीं करेंगे तो वह असामान्य तरीक़े से होगी और अवश्य होगी लेकिन इसका प्रभाव बहुत बुरा होगा।
यदि कोई व्यक्ति कर्तव्यच्युत, निर्लज्ज अथवा अव्यावहारिक हो गया है तो ये बहुत ही घृणित बात है। ये भी क़र्ज़ अदायगी ही है लेकिन ये किसी सज़ा से कम नहीं। ज़रूरी है कि हम अपने आर्थिक ही नहीं सामाजिक कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति भी सचेत रहें, उन्हें पूरा करें अन्यथा अन्य किसी रूप में उनकी बड़ी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी इसमें संदेह नहीं। जिस प्रकार से प्रशासनिक नियमों का उल्लंघन करने अथवा कानून तोड़ने पर जुर्माना या सज़ा निश्चित है उसी प्रकार से सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने पर भी अपराधबोध एवं अपराधबोध से उत्पन्न मानसिकता व उससे उत्पन्न शारीरिक दोषों अथवा व्याधियों से मुक्ति असंभव है। इससे बचने के लिए हमें चाहिए कि हम समय पर अपने उत्तरदायित्वों का ठीक से निर्वहन करके सामान्य तरीक़े से क़र्ज़ अदा करते रहें।
सीताराम गुप्ता,
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