उलझती गई जिन्दगी
बदनसीबी रूलाती चली गई।
दावा करते थे जो मददगार होने का
उन्हीं के हाथों सताती चली गई।
हर गिरह ऐसी बंधी कि खुलने का नाम न ले
खुली भी अगर तो, अपनों के हाथ कसती चली गई।
उम्मीद लगाए रहते थे जो मददगारी की
उनकी भी नज़रो से गिराती चली गई।
जिन्दगी ने समझने का मौका ही नहीं दिया
जिन्दगी दौड़ाती-भगाती चली गई।
अपनी भी दिवानगी का यह आलम रहा
अपनी हालत पे खुद हंसी आती चली गई।
राजीव कुमार
ग्राम- चंडीडीह,
जिला- बाँका, राज्य- बिहार
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