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ग़ज़ल



कुछ न ले जाना है फिर भी

दिल को सब पाना है फिर भी



आग, जल, भू, वायु , नभ में

कल बिखर जाना है फिर भी



खेलता है पत्थरों से

आईना ख़ाना है फिर भी



उससे नादानी हुई है

वो बहुत दाना है फिर भी



उसकी बातों में नहीं दम

ग़ौर फ़रमाना है फिर भी



दर्द की ये इंतिहा है

हमको मुस्काना है फिर भी



लुट गया था मैं यहीं पर

सामने थाना है फिर भी



कितना रोका है ज़ेहन ने

दिल नहीं माना है फिर भी



झूमकर गाऊंगा यारो

आख़िरी गाना है फिर भी



धर्मेन्द्र गुप्त

के 3/10 ए मां शीतला भवन, गायघाट,

वाराणसी-221001
उत्तर प्रदेश