कान में डालो रुई, या
बंद कर लो द्वार घर के।
युग-युगान्तर साक्षी हैं,
सत्य के निर्बाध स्वर के।।
पाँव ही होते नहीं तो,
झूठ के पदचिह्न कैसे?
जो न कट पाया किसी से,
हो भला विच्छिन्न कैसे?
पत्थरों पर खुद गया है,
जो गया सच से गुज़र के।।
सत्य पर भी धूल तो, कुछ
देर को जमती रही है।
कालक्रम में किंतु उसकी
भूमिका दबती नहीं है।
पोथियों में दर्ज है तो,
आएगा फिर-फिर उभर के।।
सत्य की अनगिन कथाएँ,
याद हैं सारे भुवन को।
सत्य की ही राह पकड़े,
कीजिए तैयार मन को।
झूठ के किस्से कसम से,
हैं अतिथि बस रात-भर के।
बृज राज किशोर ‘राहगीर’
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड,
मेरठ (उ.प्र.)-250001