मैं का झंडा गाड़ लोग सब चले गए।
तन का कपड़ा फाड़ लोग सब चले गए।
फल लगते हैं दूर, नहीं छाया मिलती,
वृक्ष लगाकर ताड़ लोग सब चले गए।
मन के बीच खड़ी दीवारें थीं पहले,
रखकर वहीं पहाड़ लोग सब चले गए।
मेरा है, मेरा है, केवल मेरा है,
ऐसे खूब दहाड़ लोग सब चले गए।
उपजाऊ खेती को बंजर कर डाला,
वहीं लगा फिर बाड़ लोग सब चले गए।
सोने जैसा मानव जीवन था पाया,
करके उसे कबाड़ लोग सब चले गए।
झूठों को पतियाया, साथ दिया उनका,
सच को खूब लताड़ लोग सब चले गए।
भाऊराव महंत
बालाघाट, मध्यप्रदेश