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“योग द्वारा कर्तव्यनिष्ठ अवस्था की ओर प्रस्थान : साधक और साध्य के मध्य एकाकार भाव की परिणिति”

जीवन के उत्कर्ष का लक्ष्य लेकर चलना और श्रेष्ठ चिंतन की व्यवस्था से चित्त को निर्मल करते हुए कर्म के व्यावहारिक स्वरूप तक पहुंच जाना सार्थकता की दिशा में अग्रसर होने का स्पष्ट लक्षण होता है । योग द्वारा कर्तव्यनिष्ठ अवस्था की ओर प्रस्थान करने से पूर्व सार्थक प्रयास एवं परिणाम के बीच सह – सम्बन्ध स्थापित करने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए जिससे - ' साधक एवं साध्य ' के मध्य एकाकार भाव की परिणिति का यथोचित रूप से सदुपयोग किया जा सके ।

मानवीय चिंतन की उत्कृष्टता का जीवंत प्रमाण कर्मगत स्थितियों के प्रति गहरी निष्ठा से जुड़ा होता है । व्यक्तिगत जीवन की वर्तमान अवस्था का मूल्यांकन उस समय आसान हो जाता है जब कर्तव्यपरायणता की मन:स्थिति निर्मित हो जाती है । एक पथिक की गतिशीलता का आशय उसके प्रस्थान बिंदु से गंतव्य तक लगाया जाता है जबकि वह यात्रा की अनुभूतियों को उपलब्धि की दृष्टि से महत्व प्रदान करता है । पुरातन काल से साधक और साध्य की पवित्रता को समाज में विशिष्ट दर्जा प्राप्त रहा है जो आज भी सम्मान का घोतक है । किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उपयुक्त लक्षण को जीवन में समाहित करना प्रथमत: अनिवार्य आवश्यकता होती है ।

समाज के विभिन्न आयामों में स्वयं की उपस्थिति प्रबल पुरुषार्थ के व्यावहारिक स्वरुप द्वारा सुनिश्चित की जा सकती है । कर्तव्यनिष्ठ स्थिति के निर्माण की चाहत लगभग सभी व्यक्तियों में होती है लेकिन इस सकारात्मक दिशा की ओर कदम बढ़ाने का साहस कुछ ही व्यक्तियों में दिखाई पड़ता है । कर्मक्षेत्र के अंतर्गत प्रविष्ठ हो जाना और अपनी अवस्था को एकाग्रता से संबद्ध कर देना वास्तविक रूप से समर्पण का पर्याय होता है । जब साधक और साध्य के मध्य एकाकार भाव उत्पन्न हो जाता है तब यह स्वीकार कर लिया जाता है कि कर्तव्यनिष्ठ अवस्था विकसित हो गयी है ।

कर्मजगत का दार्शनिक बोध पुरुषार्थ के योगदान को सदा उच्च श्रेणी में रखने का प्रयास करता है क्योंकि निःस्वार्थ भाव का बीजारोपण व्यक्तिगत व्यवहार के अंतर्गत सूक्ष्म रूप से सन्निहित रहता है । आज के आधुनिक युग में इस बात पर निरंतर बहस जारी है जिसमें कर्म क्यों किया जाए ? इस कार्य को करने से क्या लाभ होगा ? आखिर कब तक सब कुछ मैं ही करता रहूं ? यदि मेरा यह कर्तव्य है तो मुझे अधिकार कौन देगा ? और वह अधिकार कब तक मिल सकेगा ? इत्यादि प्रश्न कार्य करने के पूर्व ही अंतर्मन में विद्रोह पैदा कर दिया करते हैं ।

सामान्यत: व्यक्ति के भीतर हलचल मचाने वाले प्रश्न न्यायोचित व्यवस्था के लिए तर्क – वितर्क करने में संलग्न रहते हैं जिसके समर्थन में समय , शक्ति एवं सामर्थ्य का कहीं अपव्यय न हो जाए यह बात प्रमुख रूप से चिंता के कारणों में सम्मिलित की जाती है । स्वयं की सक्षमता के प्रति आस्था रखते हुए विशुद्ध चिंतन की दिशा में व्यावहारिक कार्य करना होगा जिससे लक्ष्य का निर्धारण किया जा सके । सकारात्मक स्थितियों के अंतर्गत पुरुषार्थ करने की मनोवृति प्राय: व्यक्ति को उर्ध्वगामी अवस्था की ओर अभिमुखित करती है। कार्यक्षेत्र में एकाग्रता के कारण व्यक्तिगत जीवन के अंतर्गत उतार – चढा़व की स्थितियां न्यूनतम होने लगती हैं और सार्थक परिणाम की प्राप्ति संभव हो जाती है ।

विशुद्ध चिंतन की पवित्र स्मृति :

कर्तव्य के मार्ग पर गतिशीलता का अर्थ है कि व्यक्ति के द्वारा स्वयं के विकास का मानदंड किसी न किसी रूप में निर्धारित कर लिया गया है । सामान्यत: यह देखा गया है कि जो लोग जीवन में कुछ विशिष्ट करना चाहते हैं , सर्वप्रथम वो अपना लक्ष्य बनाते हैं और उसके पश्चात उस निश्चित दिशा में अग्रसर होते हैं । जीवन में आगे बढ़ने के लिए एक उपयुक्त विचार की आवश्यकता होती है जिसके सहारे व्यक्ति एक सुनिश्चित स्थान पर पहुँचने का प्रयास करता है। कई बार एकांगी विचारधारा से निर्णय शक्ति प्रभावित होती है और व्यक्ति को यह आभास हो जाता है कि जो कुछ उसके द्वारा सोचा अथवा समझा जा रहा है वह पूर्णतया सही है जबकि हकीकत में ऐसा नहीं होता है।

स्वयं की समझ शक्ति के द्वारा जो कुछ निर्धारित किया जाता है वह एक निश्चित अवस्था तक उपयुक्त हो सकता है लेकिन इसके पश्चात् उसमें अनिवार्य संशोधन की गुंजाईश होती है । विभिन्न परिस्थितियों के अंतर्गत अपनी निर्धारण शक्ति का तुलनात्मक अध्ययन व्यक्ति के माध्यम से अलग – अलग तरीके से किया जाता है । यदि व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न विरोधाभासी स्थिति को छिपाते हुए किसी विचार तक पहुंचने का प्रयास किया जाता है तब वास्तविक मूल्यांकन के समय परिणाम कुछ और निकल जाते हैं । जब व्यक्ति के आन्तरिक विचार स्पष्ट नहीं होते हैं तब किसी लक्ष्य निर्धारण से जुड़े मसले पर कार्य करना कठिन हो जाता है और अंततः व्यक्ति उलझने की स्थिति में आकर खड़ा होने के लिए बाध्य हो जाता है ।

यदि स्वयं की परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि कहीं न कहीं चिंतन के विविध पक्षों में - पूर्वानुमान , पूर्वाग्रह , पक्षपातपूर्ण रवैया तथा - मैं पन का बोध सम्मिलित था जिसने वास्तविकता से कोसों दूर रखने में व्यक्ति को उकसाने का निरंतर कार्य किया । किसी निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने हेतु किया जाने वाला नियोजन पूर्ण रूप से विशुद्ध चिंतन पर आधारित होना चाहिए जिसमें कई बार उतार – चढा़व की स्थिति से स्वयं को सुरक्षित रखने का निरंतर प्रयास करना , व्यक्तिगत दायित्व के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए ।

कर्तव्यनिष्ठ अवस्था के निर्माण में वैचारिक सक्षमता की विशेष भूमिका होती है क्योंकि जितना - विचार पक्ष उद्देश्य की पूर्णता में मददगार होता जायेगा , उतना ही पुरुषार्थ तीव्र गतिशीलता के साथ वृद्धि को प्राप्त हो जाएगा । सामान्य दृष्टिकोंण को जब व्यक्तिगत जीवन के साथ सम्बद्ध करते हुए विशिष्ट दृष्टिकोंण के स्वरुप में परिवर्तित कर दिया जाता है तब चिंतन की विशुद्धता अनुभव के स्तर पर कार्य करने लगती है । जीवन की व्यापकता को स्वीकार करने के लिए जिस समग्र चिंतन की आवश्यकता होती है उसमें गहराई तक उतरने के पश्चात् निष्कर्ष के रूप में प्राप्त विचार ही व्यक्ति को परिष्कार के मार्ग पर ले जाते हैं ।

उर्ध्वगामी स्थिति का यथार्थ बोथ :

व्यक्तिगत जीवन में लगभग सभी लोगों की आंतरिक चाहत यह होती है कि किसी भी परिस्थिति के अंतर्गत उनकी मन: स्थिति उर्ध्वगामी बनी रहे । विकास की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणात्मक पक्षधरता के लिए ऊंचाई की ओर अग्रसर होना सबसे अहम शर्त होती है । यदि किसी कारण से विरोधाभासी परिस्थितियों के दबाव ने निराशा एवं अवसाद की स्थिति जीवन के परिवेश में निर्मित कर दी है उसके बावजूद भी व्यक्तिगत धारणा अधोगामी स्थिति को स्वीकार नहीं करती है । व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि -व्यक्ति का मन , अंततः स्वयं को समझाने में सफल हो जाने की ओर है जिसमें उसके द्वारा उर्ध्वगामी स्थिति के प्रति पूर्ण निष्ठा अभिव्यक्त की जाती है ।

विभिन्न मनोवैज्ञानिक अध्ययन उर्ध्वगामी स्थिति के बारे में खुलासा करते हुए बताते हैं कि व्यक्ति चाहे कितनी भी विषम स्थिति एवं नकारात्मक मनोभावों से गुजर रहा हो उसके ज़ेहन में सदा ही विचारगत शुद्धि के लिये छटपटाहट बनी रहती है । कर्तव्यनिष्ठ अवस्था का विश्लेषण करते समय यह पता चल जाता है कि व्यक्ति के द्वारा सर्वप्रथम स्वयं को समझने के लिए प्रयास किए गए उसके पश्चात् कर्म की नि:स्वार्थ प्रवृति का अध्ययन करते हुए कर्तव्य हेतु समर्पण की स्थिति निर्मित हो सकी ।

जीवन के विविध स्वरूपों में निजी स्तर पर की जाने वाली अनुभूतियां जब यह व्यक्त करती हैं कि प्रारम्भिक तौर पर किए जाने वाले व्यवहार में विचार की सात्विकता बनी रही लेकिन कार्य पूर्ण न होने की स्थिति के अंतर्गत भाव एवं विचार में कुछ बदलाव आता गया और धीरे – धीरे नकारात्मक स्थिति तक पहुंचने में अधिक देर नहीं लगी । विचारगत परिवर्तन के संबंध में व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से यह तर्क – वितर्क किया जाता है कि जब समझदारी से कार्य नहीं हो सका तो थोड़ी चतुराई का इस्तेमाल कर भी दिया तो क्या फ़र्क पड़ता है और जमाने के हिसाब से चलना आवश्यक होता है नहीं तो बड़ी मुश्किल स्थिति हो जाएगी ।

व्यक्तिगत जीवन के प्रसंग में यदि वैचारिक ऊहपोह की स्थिति विभिन्न कारणों से उत्पन्न भी हो गई तो अंतर्मन बार – बार कचोटते हुए यह समझाने का प्रयास करता है कि जो कुछ हुआ वह न्याय संगत नहीं था । जीवन में जिस सिद्धांत के आधार पर चलते हुए आंशिक रूप से व्यवहार में रूपांतरण किया गया था उसी संदर्भ को रेखांकित करते हुए अंत:करण ने पुनः उर्ध्वगामी चिंतन को ही अपना मूलभूत आधार बनाया । यदि व्यावहारिक धरातल पर विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के भावनात्मक एवं तार्किक पक्ष एक दूसरे की पूरकता में कार्य करते हैं और प्रत्येक स्थिति के दबाव एवं तनाव के पश्चात् स्वयं को धीरे – धीरे सात्विक चिंतन की दिशा में अभिमुखित कर लेते हैं ।

एकाग्र प्रवृति की उच्च अवस्था :

उपलब्धि के संबंध में जिन अनुभवों को समाज में स्थान प्राप्त हुआ उसमें सबसे प्रमुख बात व्यक्ति की एकाग्रता से जुड़ी हुयी थी क्योंकि इसके विपरीत स्थिति में मानव स्वभाव की चंचलता उसके लक्ष्य की बाधा के रूप में स्वीकार की गयी । एक साधक का अपने साध्य के लिए समर्पित हो जाना और स्वयं की स्थिति को एकाकार भाव के रूप में स्वीकार कर लेना एकाग्र प्रवृति का प्रतीक होता है । यदि किसी कार्य विशेष के संबंध में कुछ सुनिश्चित किया जाना अनिवार्य है तब हमें स्वयं पर नियंत्रण रखने का अभ्यास करना चाहिए ।

कई बार एकाग्रता के लिए बाह्य एवं आंतरिक दबाव एक साथ उत्पन्न होते हैं और सामान्य जनमानस एक अंतर्द्वंद में उलझ जाता है जिसका कोई त्वरित समाधान वह नहीं निकाल पाता है । व्यक्तिगत जीवन में कार्य की पूर्णता हेतु सतर्कता से सभी कार्य संपन्न किए जाते हैं जिसके लिए बहुत अधिक गंभीरता की स्थिति में स्वयं को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं की जाती है । यदि व्यावहारिक जीवन में कर्तव्यनिष्ठ अवस्था की उत्पत्ति सुनिश्चित हो जाती है तो एकाग्र प्रवृति की आवश्यकता धीरे – धीरे बढ़ने लगती है । जीवन के सबल पक्ष के रूप में विकसित होने वाली एकाग्रता को किसी भी विशिष्ट प्रयोजन के लिए उपयोग करने पर परिणाम सार्थक ही प्राप्त होते हैं ।

कर्तव्यनिष्ठ अवस्था की ओर अग्रसर होने पर जैसे – जैसे आन्तरिक मनःस्थिति एकाग्रता में परिवर्तित होती जाती है लगभग उसी समय से बाह्य दृष्टि से मन उचटने लगता है। व्यक्तिगत विचार – विमर्श से लेकर सामूहिक गतिविधियों में भागीदारी करने की सामान्य स्थिति कुछ समय के पश्चात् कर्तव्यबोध से लक्ष्योंमुखी प्रवृति के रूप में ऊभर कर प्रत्यक्ष अनुभव का कारण बनने लगती है । विभिन्न विरोधाभासी परिस्थितियों के बावजूद व्यक्ति की स्मृति कर्तव्यपरायण मनोवृति की दिशा में अभिमुखित रहती है जिसके परिणाम , साध्य तक पहुंचने में मददगार होते हैं । मानवता के कल्याण को ध्येय बनाकर गतिशील होने का अर्थ है , जीवन की सम्पूर्ण अवस्था को सार्थकता के सन्दर्भ में स्वीकार करते हुए - कर्मगत स्थितियों की ओर सहजता से समर्पित हो जाना है ।

जब साधक और साध्य के अंतर्संबंधों को अनुभूति के स्तर पर स्वीकार कर लिया जाता है तब एकाकार भाव की परिणिति निर्मित हो जाती है जो अंततः कर्तव्यनिष्ठा का प्रमाण होता है । साधक के द्वारा साध्य के लिए एकाग्रचित होकर किया जाने वाला पुरुषार्थ व्यापकता से ओत – प्रोत होता है जिसके अंतर्गत स्वयं की कर्तव्यनिष्ठ अवस्था - हर पल जिम्मेदारी का अहसास कराती रहती है । जीवन की सृजनात्मकता से जुड़ी विभिन्न क्रियाविधि व्यक्ति को अभिप्रेरित किया करती है जिससे एकाग्र मनोवृति के द्वारा व्यावहारिक जगत में अनगिनत आविष्कार किए जा सकते हैं तथा मानवता के उत्थान हेतु नवीन पद्धतियां विकसित करते हुए मूल्यपरक सिद्धांतों का प्रतिपादन सुनिश्चित किया जा सकता है ।

सार्थक परिणाम का व्यापक स्वरूप :

जीवन की कर्मगत अवस्था को उज्जवल स्वरुप प्रदान करने में अंत:करण की सात्विकता का विशिष्ट योगदान होता है । मानव की अभिलाषाओं का गहन अध्ययन इस बात को पूर्णतया स्पष्ट कर देता है कि वह सर्वांगीण विकास के प्रवाह में सबकुछ पाना चाहता है । कई मनोवैज्ञानिक अनुसंधान व्यक्ति के भीतर छुपी इच्छाओं को बाह्य धरातल पर लाने का प्रयास करते हैं जिसमें प्रकट एवं अंतर्निहित स्थितियों का पता चल पाता है । जीवन की गतिशील प्रक्रिया में जिन सूक्ष्म मनोभावों के द्वारा व्यक्ति स्वयं की वास्तविक स्थिति को ढंकने का प्रयास करता है प्राय: उन्हें वह मर्यादा एवं लोकाचार के कारण निकटवर्ती लोगों के समक्ष भी मन:स्थिति को स्पष्ट नहीं कर पाता है।

दैनिक गतिविधियों की सामान्य स्थितियों में सामान्यत: वास्तविक भाव कभी - कभार निकलकर प्रत्यक्ष होते हैं लेकिन उन्हें स्वयं व्यक्ति और उसका परिवार अनदेखा कर दिया करते हैं ।जब साधारण अवस्था के अंतर्गत कोई विचार अथवा व्यवहार अभिव्यक्त किया जाता है तब उसके प्रति उदासीन नजरिया अपनाने का प्रचलन सामाजिक अवधारणा में निहित होता है । सामान्यत: व्यक्ति के माध्यम से किन्हीं विशिष्ट स्थितियों में भावनाओं या विचारगत तथ्यों का समायोजन उस निश्चित वातावरण में प्रतिपादित करने की चेष्ठा को बलपूर्वक अथवा कुछ समय के पश्चात् देख लेने के औपचारिक स्वरुप के मध्य स्थगित कर दिया जाता है । किसी सुनिश्चित उद्देश्य से सम्बद्ध पक्षों के सन्दर्भ में आंकलन एवं विश्लेषण की गुंजाईश को सहजता से छोड़ देने की प्रवृति सम्पूर्ण मानव जगत की गतिशीलता का सबसे बड़ा अवरोध होता है ।

स्वयं के प्रति अत्यधिक निश्चिंतता पूर्ण - विश्वसनीय मन:स्थितियां कभी भी किसी स्थूल एवं सूक्ष्म बाधा को स्वीकार नहीं करती हैं भले ही व्यापक अहित की संभावनाएं क्यों न बढ़ जायें । कर्तव्यनिष्ठ अवस्था की ओर प्रस्थान का अभिप्राय केवल स्वयं के एकांगी सन्दर्भ तक नहीं है बल्कि समग्रता के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए एक – एक विचार के प्रति गंभीरता से दायित्व निभाने की ओर अभिमुखित हो जाने से है । साधक के द्वारा किसी साध्य को लेकर कोई साधना , किसी सार्थक परिणाम के लिए सम्पादित की गयी हो तो यह व्यावहारिक स्थिति एक उच्चतम आदर्श का प्रतिपादन करने में समर्थ सिद्ध हो सकती है ।

व्यक्तिगत इच्छा शक्ति को इस बात के लिए तैयार करना होगा जिसमें स्वयं के साथ सर्व को सम्मिलित करने की स्थिति , मुख्य रूप से अपना स्थान प्राप्त कर सके । चिंतन की कड़ी में सही एवं उपयुक्त को महत्ता प्रदान करने की प्रवृति विकसित करनी पड़ेगी क्योंकि अच्छे विचार की स्वीकारोक्ति और उस पर निरंतर कार्य करने की आंतरिक शक्ति - प्रथम कर्तव्यनिष्ठता का जीवंत प्रमाण होती है । श्रेष्ठ विचार कहाँ से प्राप्त हो रहें हैं और किन स्थितियों से उनका आगमन हुआ है तथा आखिरकार इन विचारों से किन – किन लोगों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सम्बन्ध है इसकी जांच पढ़ताल करने से अधिक , विचार की प्राप्ति महत्वपूर्ण है जिस पर निष्पक्षता से कार्य किया जा सकता है ।

कई बार मन – मस्तिष्क में विचार का उत्पन्न नहीं होना , व्यक्ति के लिए समस्या बन जाता है और कुछ स्थितियां तो ऐसी होती हैं जिसमें विचार तो आ गया लेकिन उसे स्मृति में सुरक्षित नहीं रख पाने की परिस्थिति दुविधापूर्ण स्वरुप में परिवर्तित हो गयी । एक स्थिति , विचार के संबंध में ऐसी भी निर्मित हो जाती है जिसमें अच्छा विचार कई दिनों तक मन में स्थिर रहा लेकिन उसका विकास करते हुए , उपयोग नहीं कर पाने की पीड़ा अंतरात्मा को गहरा आघात पहुंचा देती है । जीवन के उत्कर्ष का लक्ष्य लेकर चलना और श्रेष्ठ चिंतन की व्यवस्था से चित्त को निर्मल करते हुए कर्म के व्यावहारिक स्वरूप तक पहुंच जाना सार्थकता की दिशा में अग्रसर होने का स्पष्ट लक्षण होता है । अत: योग द्वारा कर्तव्यनिष्ठ अवस्था की ओर प्रस्थान करने से पूर्व सार्थक प्रयास एवं परिणाम के बीच सह – सम्बन्ध स्थापित करने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए जिससे - ' साधक एवं साध्य ' के मध्य एकाकार भाव की परिणिति का यथोचित रूप से सदुपयोग किया जा सके ।

डॉ० अजय शुक्ल (व्यवहार वैज्ञानिक)

- स्वर्ण पदक , अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सहस्राब्दी पुरस्कार - संयुक्त राष्ट्र संघ .

- अंतरराष्ट्रीय ध्यान एवं मानवतावादी चिंतक और मनोविज्ञान सलाहकार प्रमुख - विश्व हिंदी महासभा भारत.

- राष्ट्रीय अध्यक्ष , अखिल भारतीय हिंदी महासभा - समन्वय , एकता एवं विकास , नई दिल्ली .

- अध्यक्ष , राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् , प्रधान मार्गदर्शक और सलाहकार , राष्ट्रीय सलाहकार मंडल - आदर्श संस्कार शाला , आदर्श युवा समिति , मथुरा , उतर प्रदेश .

- संपादक एवं संरक्षक सलाहकार , अनंत शोध सृजन - वैश्विक साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका - नासिक , महाराष्ट्र .

- प्रधान संपादक - मानवाधिकार मीडिया , वेब पोर्टल - विंध्य प्रांत , मध्य प्रदेश .

- प्रबंध निदेशक - आध्यात्मिक अनुसंधान अध्ययन एवं शैक्षणिक प्रशिक्षण केंद्र , - देवास - 455221 , मध्य प्रदेश . दूरभाष : 91 31 09 90 97 /