समय कभी -कभी इस कदर हादसों में बदल जाता है, जो सोच से परे होता है। आज बारिश लगातार तीन दिन से हो रही है। बारिश को देखकर चौदह वर्ष पहले की बरसात स्मरण हो आयी है बैठे- बैठे ही मन-मस्तिष्क वापस उस दिन के समय के साथ बहता चला गया। उस दिन राखी थी। हॅंसी खुशी कोटा से राखी मना कर अपने पद स्थापना माथनियाँ आज ही जाना था। पहले पहल R.P. S.C. से अध्यापक बने थे । नई -नई नोकरी होने के कारण थोड़ा डर सा रहता है। इस बार राखी को एक दिन की ही छुट्टी पड़ी थी। मुझे दोपहर की बस से जाना था, क्योंकि अगले दिन स्कूल की छुट्टी नही थी। परिवीक्षा काल में होने के कारण छुट्टियां बहुत कम ही मिलती थी। इससे भी जरूरी यह था कि नौकरी में नये होने के कारण ज्यादा नियम कानूनो की जानकारी का अभाव भी था। जब निकलने लगे तो भाई ने, मम्मी ने, बहिनों ने बहुत कहा- मत जा छुट्टी ले ले। पर एक सी. एल .खराब नही करनी। आगे काम आएगी यही सोच कर निकल पड़ी घर से। दोपहर की बस के लिए छः साल की बेटी रौनक भी साथ ली। मम्मी ने उसके लिए थोड़ा नाश्ता पैक कर दिया। बारिश का मौसम तो था ही, सावन यौवन के जलवे दिखा रहा था। हर तरफ पानी ही पानी था। जैसे ही मैं बस में बैठी बारिश शुरू हो गई। खैर! मैंने सोचा चलो बस में बैठ गए। अब कम से कम भीगने से तो बचे। बस तय समय पर चल दी। मैंने राहत की साँस ली । बस दरा के जंगलों से गुजर रही थी, जहां का समूचा जीवन प्रकृति की गोद में फूलता फलता है। पेड़ों पर गिरती पानी की बूंदें नीचे गिर जगह जगह झरने बहा रही थी। चारों ओर हरियाली बहते पानी की कल-कल ,छल-छल कानों में मधुर संगीत घोल रही थी। बस की खिड़की से मौसम का आनंद लेते हुए अभी हम दरा पार ही पहुँचे कि बारिस बहुत तेज हो गई। ड्राइवर को कुछ दिखाई नही दे रहा था शायद ।बस के सभी शीशे चढा लिए थे। तब ही साइड से पानी और बस की छत के ऊपर से पानी टपकने लगा। बस धीमी गति से चल रही थी, पर बस में बैठे यात्रियों के मन बहुत तेजी से दौड़ रहे थे ।अपने-अपने घर की ओर पहुँचने को। सभी यात्री डर के मारे कंपितहृदय लिए चुपचाप ऐसे बैठे थे। बुरी आशंकाओं के विचार ने मन को घेर रखा था। लग रहा था मानो सभी को पानी रूपी जिंद ने पकड़ लिया हो। अब बस झालावाड़ पहुँच गई थी ।ड्राइवर उतर गया। बस तेज बारिश के साये में खड़ी भाग्य को कोस रही थी। यात्री चुपचाप ऐसे बैठे थे, मानो बात करने के सभी मुद्दे पानी में बह गये हो। कंडक्टर ने आकर कहा बारिश कम होगी, तब ही चलेंगे। मौसम बहुत खराब है। कहीं अंधरे और बारिश के कारण एक्सिडेंट हो गया, तो लेने के देने पड़ जायेंगे । अब सब चुप बैठे बारिश कम होने के इंतजार में थे। डेढ़ घण्टा हो गया था छः बजने वाले थे और मुझे रायपुर पहुँच कर 6 बजे की बस ही पकड़नी थी। माथनिया के लिए मेरी घबराहट बढ़ने लगी थी। तब ही बस ड्राइवर आ गया और बस ने फिर अपना रास्ता पकड़ लिया, तो जान में जान आई। पानी कम हो गया था, पर बरस रहा था।
रायपुर आ गया। बेटी को बस से उतारा बेग लेकर नीचे आयी। ऊपर पानी, नीचे पानी, सब तरफ बस पानी ही पानी। रामु भाई की दुकान पर बेग रखा। रौनक को बैठाया और मैं माथनिया जाने वाली बस की पूछताछ करने निकली। तो पता चला आज बस तो आयी ही नहीं।सुनकर साँस अटक गई रात होने लगी थी। यहाँ किसी को जानती भी नहीं थी। किससे से मदद मांगी जाए। बेटी परेशान हो रोने लगी थी थकान से। मन बार बार कह रहा था कि आयी ही क्यों घर से, सब ने मना किया था न। बचपन में पापा की कहीं कहावत याद आ गई थी
मान लो बड़ा की सीख
न मानो तो मांगों भीग।
अब पछतावत क्या हो जब समय की चिड़िया चुग गई खेत।
आस पास के गाँव की लगभग पन्द्रह बीस सवारी हो गई थी। सब लोगों ने हौसला बढ़ाया। मेडम जी हम है ना! आप परेशान न हो कुछ करते है। जीप, ऑटा या कोई और साधन करते हैं। कुछ लोग बाजार की ओर गए तो मुझे थोड़ी आस बँधनी शुरू हुई।
उस समय की-पेड मोबाइल का जमना ही था। जिसकी बैटरी कम ही चलती थी। घर से फोन पर फोन आ जा रहे थे। सो वो आधी से ज्यादा खत्म होने को थी और उधर रात के आठ बजे गए थे। रात गहराती जा रही थी। कोई साधन नहीं मिला था। अब रात को अकेली कहा रहेगी? छोटी सी बेटी अलग है। न कोटा आने का कोई साधन था, न ही माथनिया जाने का। फोन पर सब लड़ रहे थे। ताने मार रहे थे। क्यों कि वे हम से ज्यादा परेशान हो रहे थे। हम से ज्यादा लाचार बेबस और बहुत दूर थे। लग रहा था पास होते तो आकर हमें चार चार थप्पड़ सब मारते कि मैंने उनकी बात नहीं सुनी। विकट परिस्थितियों में ही तो अपने परिवार की नजदीकियाँ और प्रेम-स्नेह का अहसास होता है। मेरे कारण राखी के त्योहार का मजा किरकिरा हो गया सो अलग। चिंता ने पांव पसार लिए थे। मम्मी बड़बड़ा रही थी। मगर बार-बार हिदायतों के साथ-साथ विश्वास और हिम्मत बढ़ा रही थी। पापा चुपचाप सब की बातें सुन रहे थें। मन ही मन शायद अपनी जान से प्यारी बेटी के लिए इबादत कर रहे थे खामोशी से। पति देव भी क्यों पीछे रहते ।बात नहीं सुनती अपनी जिद चलाती है। बेटी के साथ हमारे लिए परेशान चिंतित इतनी दूर से कुछ कर भी नहीं सकते थे। फोन रख कर साधन के लिए सोच ही रही थी। तब ही एक स्वर में आवाज आयी मिनी बस मिल गई। सब मिलकर पैसे दे देंगे चलो बैठो। हम जल्दी से बस में बैठ गए। राहत की साँस ली साथ सोचा अब बस अठारह किलोमीटर ही जाना शेष है चलो देर सही कुछ तो मिला अब पहुँच ही जायेंगे। बस में बैठते ही सब के चेहरे ऐसे खिल गए जैसे भूखे को पेट भर रोटी, प्यासे को किसी ने अमृत कलश पिला दिया हो। बस चलने लगी मैंने भी फोन कर घर भर को राहत दी।
बस तेज गति से चल रही थी जैसे पंखों पर उड़ रही हो। अब लग रहा था बस पहुँच ही गये अभी पांच किलोमीटर ही पहुँचे होंगे कि गाड़ी के ब्रेक लग गए। क्या हुआ? सब एक स्वर में बोल उठे। कुछ लोग नीचे उतरे पता चला नाले में बहुत पानी चढ़ा है। बस नही उतर पाएगी ।अंधरे में कही बह बहा गई, तो लेने के देने पड़ जाएंगे। डाइवर ने हाथ खड़े कर दिए। सब घबरा गए। रात के नौ बजे है। सब तरफ पानी ही पानी जंगल में बस जहाँ बस रुकी वहाँ से न आगे का गाँव पास था, न जो पीछे रह गया वो।
फोन पर घण्टी बज रही थी। घबराहट मेरे भीतर के साथ ही घर के हर सदस्य के दिल मे उतर गई थी। अब क्या करे सब सोच में पड़ कर सुन्न से पड़ गए।
कुछ लोग उतर कर पैदल ही अपनी गांव जाने लगे, जिनके गांव दो चार किलोमीटर में थे। वैसे भी गांव के लोग आदी होते है चलने के। और वो भी खेत मे होकर। हम उन्हें जाता देखने के सिवा कुछ कर नही सकते थे। अब बस में दस बारह ही लोग बचे थे।।मेरे बगल की सीट पर एक कपल और बैठा था। जिसे मेरे गन्तव्य स्थान से भी आगे जाना था । लगभग दस किलोमीटर और आगे। उनके साथ भी बच्चा था, जो अब परेशानी और भूख के कारण रोने लगा था। तब ही मुझे ध्यान आया मेरे पास पूड़ी रखी है ।मम्मी ने जो बेटी के लिए पैक की थी। मैंने उनसे आग्रह किया कि मेरे पास खाना रखा है आप बच्चे को खिला दो। वैसे तो गांव के लोग किसी से भी जात पूछे बगैर पानी भी नही छुते, ऐसे अनजाने लोगों का पर कहते है ना -'मरते क्या न करते 'मैने खाने का टिफिन खोला बेटी को और बच्चे को पूड़ी में सब्जी भर कर रोल बना कर दे दिया। दोनो बच्चे खाने लगे।
बस रुके एक घण्टा हो गया था। ड्राइवर ने आकर कहा कि पानी उतर गया है। पहले से कम हो गया अब बस निकल जायेगी और फिर बस ने अपनी गति पकड़ ली।
घर पर फोन कर कहा बस चल दी है। सब राम राम रटने लगे सब बस में भी ओर घर मे भी। अब बस माथनिया पांच किलोमीटर ही रह गया था। लग रहा था कि अब संकट के बादल छंट जाएंगे। बस कुछ देर और सब्र का दामन थामे रखना हैं। पर तब ही अचानक फिर ब्रेक लग गए बस के। दिल धड़क कर मुह को आ गया । अब क्या हो गया? इस इलाके में कंजर जाति के लोग बहुत रहते हैं, जिनका व्यवसाय कहें या रोजी रोटी का जुगाड़। राहगीरी को लूटना और चोरी डकैती करना ही मुख्य धंधा था। झींगुरों की आवाज सांय सांय करती स्याह अंधेरी रात। उस पर बदलों से घिरा आसमान बरसता हुआ। पानी लग रहा था जैसे इंद्र देव पानी बरसता छोड़ गहरी नींद में सो गये हों। 'हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था 'सीट पर इतने पास बैठे होने पर भी कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था। दूर खेत से कुछ लोग की परछाई और चलने की आहटों से लग रहा है। कुछ लोग बस की ओर आते हुए दिखाई दे रहे थे। सब बस में बैठे यात्रियों के कलेजे ने जगह छोड़ दी। सभी को आज मरना ही पड़ेगा। कंजरों ने बस रुकी हुई लूट ली तो क्या होगा।
पूरी बस में हम दो औरतें ही थी। बाकी सब मर्द, पर इस पल लगा जाने सब के सब असहाय हिरनी से बदहवास से हो गए। जैसे शिकारी को देख कर हो जाते हैं। असहाय जंगली जानवर। भय के वश में आकर। तब ही हिम्मत कर हमने ड्राइवर से पूछा भाई अब क्या हो गया। बस क्यों रोक दी। बोला -अरे! मेडम जी आगे तालाब का नाला बहुत उफान पर आ गया है। मैंने कहा- पर पुलिया तो बनी है भाई। हाँ !"मेडम जी पर उस पर बड़े बड़े गड्ढे बने है आप तो जानते ही हो विकास के नाम पर यहाँ गांवों- खेड़ों में एक बार बनी सड़क पुलियां दूबारा कौन देखता है भला? एक बरसात भी नहीं झेलती"। अंधरे में और पानी के कारण कैसे दिखेंगे और पानी भी बहुत ज्यादा कटाव कर रहा है। अब तो सुबह ही बस निकल पाएगी।
मुझे कुछ कहते नहीं बन रहा था। बस सबको यह सुन कर राहत जरूर मिल गई कि जान तो बची वो कंजर तो नहीं आए हैं। पर मैं बस में कैसे रह सकती हूँ? एक तो छोटी बच्ची दिनभर की परेशान गोद मे सो गई बेचारी सब खतरों से अनजान होकर।
अब तो मेरे धैर्य का बाँध टूट कर आँखों के रास्ते बहने लगा। फोन की बैटरी आखिरी क्षणों का इंतजार कर रही थीं । अब बंद हो अब बंद हो। रात के दस बज गए थे दोपहर से निकली थी घर से। सब घर वालों की जान हकल में मेरे कारण अटकी थी। मैं ढेड़ सो किलोमीटर दूर फँसी थी। फोन के अलावा कोई जरिया नहीं था। मेरे हालात जानने का, जो अब बन्द होने वाला था।किसी भी क्षण। तब ही घर पर फोन लगाया मैंने और कहा कि आप भाई साहब के फोन करके कहे कि वो चाहे पानी के उस किनारे ही खड़े रहें। मैं बस में अकेली नहीं रह सकती। पता नहीं रात में क्या हो मुझे विश्वास रहेगा। भाई साहब मतलब मकान मालिक जो थे। उस असहनीय संकट की घड़ी में उस समय उनके सिवा कोई मदद नहीं कर सकते थे मेरी। वो आखिरी उम्मीद थे। बस इतना ही कह पाई थी कि फोन बंद हो गया। अब तो ईश्वर के अलावा कोई सहारा नहीं बचा था मेरे पास और खुद के निर्णय को कोसने के अलावा। उस समय इतना संकल्प ले लिए कि अकेले कही नहीं जाना है,समय से पहले घर से निकलना है , ऐसी नोकरी कल छुटे तो आज छुटे अब कभी कोई रिस्क नही लेनी है ।सबसे बड़ी बात अगर बड़े और घर के कहें कोई बात तो उस पर विचार करना चाहिए। जब इंसान संकट में हो तो दुनिया के सारे ज्ञान उस में आ जाते हैं, वही मेरे साथ भी हो रहा था। विचारों की एक ऐसी किताब बन रही थी अंदर ही अंदर।भय मिश्रित तन मन के पास इस के सिवा कोई और चारा भी नहीं था। जब-जब एक क्षण को विचारों से निकलती डर से हाड कांप जाता। मन को बहलाने के भरकस प्रयास में दिमाग भारी सा हो गया जवाब कुछ सूझ नही रहा था रात के ग्यारह बज गए थे। सब भय से कांप रहे थे। जिनके पास कुछ पैसा था उन्हें उसकी फिक्र थीं। जिनके पास सामान था, गहने पहने थे उनको अपनी- अपनी चिंता सता रही थी। कही कंजर न आ जाये माल तो जाए ही, जान भी जाए। कंजरों के बारे में ये अफवाह थी झूठ या सच, कि वे लूटते तो हैं ही, पर मारते भी हैं। क्योंकि कंजरों की धारणा है कि बिना मार-पीट के चोरी लूट पूरी नहीं होती हैं, ये वरदान है काली माई का।वे यही मेहनत करते हैं। यही उनका 'धारयति धर्म:' है। तो जरूरी है मरना तो।
इन्ही विचारो में डूबी थी कि किसी ने जोर से कहा लगता है, कंजर आ रहे हैं। वो देखो आगे सड़क पर लाइट जल रही है मोटरसाइकल की जो इस तरफ ही आ रही लगती हैं।अब तो सब के हलक में जान आ गई सब ने अपने आप को निसहाय बना दिया। जैसे बकरे को हलाल करते समय वो बेसस हो जाता है। वह जान जाता है कि अब उसे कोई भी नहीं बचा सकता, ईश्वर भी नही। वही मान बैठे थे सब। तब ही बाइक पानी के उस पार आकर रुक गई ड्राइवर ने सब की सब लाइट जला दी, ताकि दिख सके कौन लोग हैं और कितने लोग है। सब लोगों की निगाह उस बाइक पर टिक गई। सब अपने- अपने हिसाब से मरता क्या न कारता, हथियार खोजने लगे। कुछ तो मुकाबला करेंगे एक दो जनों ने कहा कि लेडीज को तो सीट के नीचे कर दो और आने दो सालों को हम भी तो पन्द्रह जने हैं। तब ही मैंने हिम्मत करके सामने अच्छे से देखने का प्रयास किया तो एक आकृति अंधरे में लकड़ी के सहारे बस की और आती दिखी वह लकड़ी के सहारे धीरे -धीरे बस की और आ रही थी और पास और पास तभी अचानक भाईसाहब दिख गए। खुशी के मारे मुझ से किलकारी सी निकल गई और आँसुओ की गंगा धारा बह निकली। वे बस के नजदीक आ गए थे। ड्राइवर ने भी थोड़ा दूर से उन्हें पहचान लिया था, कि ये कंजर तो नहीं हैं। मैंने झट से बेटी को जगाया रौनक उठ देख ताऊजी लेने आ गये हैं।
तब ही कंडक्टर ने उनकी आँखों पर रोशनी की और उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा। लंबे चौड़े लगभग छः फिट सा आदमी एक दम लाल आँखों वाला। मैं जैसे ही बस से उरतने लगी कंडक्टर बोल पड़ा मेडम इसने दारू पी रखी है। इसकी आँखों से लग रहा है। दारूडे के साथ कहाँ जा रहे हो। मत जाओ। मैंने सुना अनसुना कर बस से कूद गई। उनके गले लग गई उन्होंने सम्भाला और कहा आप चिंता मत करो। अब आ गया ना मैं । पानी में बहाव है, पहले बैग लेकर जाता हूँ। वे बैग उठाकर उस पार गए। फिर दूसरी बार में बेटी को काँधे पर बिठा कर ले गए। और तीसरी बार में मेरा हाथ पकड़ कर कहा मजबूती से पकड़ना तेज बहाव है। पानी का मेरी जिम्मेदारी है आप को सुरक्षित घर पहुँचाने की। उन्होंने यहां मेरी जिम्मेदारी पर यहाँ रखा है आप को उस दिन का मजबूत पकड़ा हाथ उन्होंने चौदह वर्ष तक नहीं छोड़ा चाहे कोई भी परिस्थिति आयी हो। घर बाहर किसी भी तरह की। जब फाइनली मेरा ट्रांसफर हो गया और किसी भी समस्या को हमें दुबारा वहाँ छूने नहीं दिया। इस घटना से दुःख और सुख दोनों पल अमर हो गए।
गम की अंधेरी रात में दिल को न बेक़रार कर।
सुबह जरूर आएगी, सुबह का इंतज़ार कर ।।
मंजू किशोर 'रश्मि'
कोटा राजस्थान