शिक्षा सबसे सशक्त प्रणाली है जिससे छात्रों में पवित्र चरित्र का विकास किया जा सकता है। भारतीय साहित्य का श्लोक है ‘‘सा विद्या या विमुक्तये” विद्या वह प्रक्रिया है जो मोक्ष दिलाती है। मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अन्तिम लक्ष्य तथा जीवन का अन्तिम तथा सर्वोत्तम मूल्य है। जे.कृष्णमूर्ति का कहना है कि ‘‘शिक्षा सीखने की कला है जो जीने की कला भी सिखाती है।“ आज की शिक्षा व्यक्ति में संस्कारों, आदर्शों, मूल्यों की जगह किसी चीज का सर्वांगीण विकास कर रही है तो वह केवल निरी व्यावसायिकता का आवरण चढाए भौतिकवादी दृष्टिकोण एवं भौतिकता प्रिय मानव देह का। क्या भौतिक सृष्टि के अन्धानुकरण में जीवन की उत्कृष्टता का, जीवन की सुन्दरता का, जीवन की सरसता का, जीवन की प्रासंगिकता का, जीवन की विशिष्टता का आभास हो जायेगा? नहीं। मूल्ययुक्त विकासशील संयमित जीवन से ही जीवन की सार्थकता है। किन्तु मूल्ययुक्त विकासशील जीवन का निर्माण कैसे हो सकता है?
जिस राष्ट्र के जल-थल-नभ में कभी नित मूल्यों, संस्कारों, आदर्शों का ही साम्राज्य हुआ करता था, जिस राष्ट्र की पहचान ही वहाँ के ज्ञान, आदर्शों व मूल्यों से हुआ करती थी, उसी राष्ट्र की संस्कृति को, उसकी पूरी वैशिष्ट्यता को पुनःजीवित करने हेतु विद्यालय/महाविद्यालय स्तर पर मूल्य शिक्षा को अनिवार्य किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। आज का सामाजिक, वैयक्तिक, आर्थिक, शैक्षिक वातावरण तदनुसार नहीं है कि मूल्यों का विकास अपने परिवेश में अपने आप ही हो जाए। आज राष्ट्र को अपने पूर्ण परिचय को बनाए रखते हुए अपना विकास निरन्तर रखने के लिए मूल्य शिक्षा का पठन विद्यालय/महाविद्यालय में अथवा आज की युवा पीढी में अति आवश्यक है।
शिक्षा एक महत्वपूर्ण व सर्वव्यापी विषय है। शिक्षा का विकास कभी अवरूद्ध नहीं हुआ। मनुष्य के सर्वोच्च आदर्शों को उसने प्रवाहित किया है। मानव के विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। समाज के लिए शिक्षा आवश्यक अंग है। शिक्षा द्वारा ही बालक का चारित्रिक व सांस्कृतिक, नैतिक विकास समाहित है। विगत वर्षों में शिक्षा क्षेत्र में पर्याप्त सुधार हुआ है, किन्तु तीव्र गति से होने वाले विकास की इस भीड़ में मूल्यों में गिरावट उतनी ही तीव्र गति से हो रही है। शिक्षा क्षेत्र मे बढता भ्रष्टाचार, राजनैतिक दखल, छात्र असंतोष, अनुशासनहीनता, भोगवादी संस्कृति का प्रभाव व आध्यात्मिक मूल्यों में पतन, मानव मूल्यों के प्रति निष्ठा की कमी जैसी विकट समस्याएँ शिक्षा में हुए विकास को खोखला साबित करती है। एक ओर हम विकसित होने का गर्व करते हैं, वहीं संस्कार विहीन समाज के निर्माण की कल्पना सिहरन पैदा करती है। शिक्षा क्षेत्र में परिभाषात्मक परिवर्तन भावी समाज के लिए खतरा उत्पन्न कर देंगे, यदि उसमें गुणात्मकता का समावेश नहीं है। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली मानव मूल्यों को विकसित करने तथा आध्यात्मिक व्यक्तित्व के निर्माण में समझ पैदा करने वाली थी जिसका आधुनिक शैक्षिक परिदृश्य में नितान्त अभाव देखा जा रहा है। मूल्य जीवन का आधार है। ये एक ओर जहाँ जीवन को प्रभावित करते हैं वहाँ से शिक्षा को भी प्रभावित करते हैं।
किलपैट्रिक के शब्दों में -‘‘अध्यापक के समक्ष मूल्य रहने चाहिए, क्योंकि उनसे व्यावसायिक सज्जा रहती है। इनमें आशाएँ, आकाँक्षाएँ तथा उद्देश्य निहित होते हैं। मूल्यों का यह समूह विकासमान तथा जीवन्त रहना चाहिए। ऐसे मानचित्र में वे सभी मूल्य होंगे जिनसे छात्रों के जीवन को सुखमय बनाया जा सकता है।“
डॉ0 राधाकृष्णन के शब्दों में जो उन्होंने ’रामकृष्ण मिशन विद्यालय शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक मूल्यों का विकास आवश्यक‘ की शैक्षिक गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए कहा ‘‘यदि संसार को पतन के खण्ड में गिरने से बचाना है तो हमें अपने दिमागों और दिलों को बदलना चाहिए। अपनी शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक मूल्यों को शामिल करना ही पड़ेगा।“
अधिकांश भारतीयों के जीवन में धर्म एक महान प्रेरक शक्ति के रूप में विद्यमान है जो चरित्र निर्माण एवं नैतिक मूल्यों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। किसी भी राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली जो लोगों के जीवन उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से सम्बन्ध रखती है इस प्रेरक शक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकती। किसी भी शिक्षा प्रणाली में शिक्षक महत्वपूर्ण अंग होता है। संस्था में कार्यरत शिक्षकों, वहाँ की दैनिक गतिविधियाँ, संस्था की कार्यनीति को उजागर करती है। राष्ट्र के नव-निर्माण में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आज शैक्षिक क्षेत्र व अन्य क्षेत्रों में मूल्यों का पतन व सांस्कृतिक पतन के इस संकट की घडी़ में शिक्षक समुदाय ही कोई रास्ता निकाल सकते हैं।
आज देश के लिए अत्यन्त दुःख का विषय है कि पूर्व में जब शिशु जन्म लेता था तभी से उसकी रगों में समयानुसार अपने-आप मूल्यों का लहू बहने लगता था। किन्तु आज बच्चा कुछ सीखने की स्थिति में आता है तो वह, सीखता हुआ बडा होता है अथवा अन्य सामान्य विकल्पों के साथ कुछ खेल खेलना चाहे तो घर में ही एकाकी खेल खेलता है वीडियो गेम अथवा कम्प्यूटर पर खेलता है तो किस प्रकार उसमें मित्रता, बन्धुत्व, सहयोग, प्रेम, सदाचार, व्यवहार, नैतिकता आदि मूल्यों का विकास हो सकेगा। तत्पश्चात, बालक पर केवल अध्ययन का भार आ जाता है। जो केवल उन्नत व्यावसायिक दक्षता के साथ भौतिकवादी व्यक्ति का ही निर्माण करने मे सफल होता है। यह सर्वथा राष्ट्र के भविष्य के साथ अन्याय है। क्योंकि आज का बालक कल का शिक्षक, नेता, व्यापारी, समाज सुधारक, साहित्यकार, दार्शनिक, धर्मगुरू, समाज का अंग, संस्थापक है। उस बालक में विवेक, सहृदयता, ईमानदारी, कर्तव्य परायणता, सहिष्णुता, अहिंसा, सत्संग, धैर्यता आदि मूल्यों के विकास हेतु मूल्य शिक्षा आवश्यक जान पड़ती है।
प्राचीन शिक्षा का लक्ष्य ईमानदार, अनुशासित, परिश्रमी, धैर्यवान एवं उत्तम चारित्रिक गुणों से युक्त नागरिक तैयार करना था। शिक्षा में उस बात का विशेष ध्यान दिया जाता था कि उनका व्यवहार शिष्टाचार पूर्ण हो। मूल्यों के विकास में परिवार की भूमिका मुख्य होती है। मूल्यों की शिक्षा बालक के घर से शुरू होती है। परिवार बालकों में सत्य बोलना, प्रेम, सेवा, त्याग, दया समर्पण, ईमानदारी आदि नैतिक गुणों को विकसित करता है। बाल्यावस्था से युवावस्था तक परिवार में उसका बौद्धिक, नैतिक व सांस्कृतिक विकास होता रहता है। इसी कारण परिवार को जीवन का शाश्वत विद्यालय कहा जाता है।
विद्यालय आने के उपरान्त विद्यालय का सरस व सौहार्द्रपूर्ण वातावरण व शिक्षकों द्वारा स्वयं आदर्श प्रस्तुत करना बालक के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। क्योंकि उपदेश का मार्ग विस्तृत है, किन्तु अपना उदाहरण प्रस्तुत करने से वह शीघ्र एवं निश्चित होता है। आज का परिवेश संस्कृति पर संक्रमण का वातावरण प्रस्तुत कर रहा है। भारतीय संस्कृति पर यूरोपीय संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। इस सांस्कृतिक आक्रमण ने संस्कृति व नैतिक मूल्यों में संघर्ष उत्पन्न किया है। भौतिक सुखों की होड संचार क्रांति का अधिकाधिक प्रयोग (इन्टरनेट,मोबाईल) आदि ने सुविधा के साथ गलत उपयोग का साधन भी बना दिया। नैतिक शिक्षा के लिए शिक्षा प्रणाली मे परिवर्तन करना आवश्यक है।
जे. कृष्णमूर्ति के विचारों का उपयोग शिक्षा में किया जा सकता है। उनका विचार है कि शिक्षा द्वारा बालकों में संवेदनशीलता को विकसित करना चाहिए जिसमें अनेक मूल्य निहित होते हैं। मूल्यों को आत्मसात करने के लिए संवेदनशीलता नितान्त आवश्यक होती है। इसके बिना मूल्यों को मन में नहीं बैठाया जा सकता है। स्पष्ट है कि शिक्षा द्वारा ऐसे वातावरण का सृजन करना है जिससे समाज में अच्छाइयों को पनपने का अवसर प्राप्त हो सके। शिक्षा द्वारा सम्पूर्ण विकास का अवसर दिया जाए जिससे अपनी जीवनधारा में सुख व शांति प्राप्त कर सके। छात्रों में शुद्ध धार्मिक गुणों का विकास किया जाए। व्यक्ति को उसके कर्तव्यों व प्रेम की स्वतंत्रता दी जाए। शिक्षा द्वारा शुद्ध धार्मिकता के गुणों का विकास किया जाए।
मूल्यों के विकास हेतु सुझाव
1.पाठ्य पुस्तकों में इस प्रकार की विषय-वस्तु रखी जाए जिससे छात्रों में सत्य पालन, सदाचार, प्रेम, शान्ति, अहिंसा आदि मूल्यों का आभ्यान्तरीकरण सरलता से हो सके। इनकी भाषा व शैली छात्रों के आयु वर्ग के अनुकूल होनी चाहिए।
2.विभिन्न धर्मों के महापुरूषों की जीवन गाथाओं एवं उनके सन्देशों को शैक्षिक क्रिया कलापों में उचित स्थान प्रदान किया जाए।
3.दैनिक प्रार्थना सभा का आयोजन नियमित रूप से आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों सम्बन्धित प्रेरक प्रसंगों, प्रार्थनाओं आदि द्वारा किया जाए।
4.विद्यालय के वातावरण को मूल्य सचेतन करने के लिए कक्षों में मूल्य अभिमुख सामग्री की बहुलता होनी चाहिए प्रत्येक मूल्य से कक्षों को सम्बन्धित किया जा सकता है।
5.भाषा शिक्षण के माध्यम से विभिन्न जीवन मूल्यों को आत्मसात कराया जाए। भाषा शिक्षण से मूल्यों के विकास के लिए कथा-कथन, समूह-गायन नाटकीकरण, सस्वर काव्य पाठ आदि को स्थान प्रदान किया जाए।
6.पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाये। इनके माध्यम से उनमे सृजन की क्षमता के विकास पर बल दिया जाये।
7.शिक्षक द्वारा प्रस्तुत आदर्श प्रस्तुति से छात्रों में मूल्यों का आत्मसात्करण सहज ढंग से हो सकता है। एक बार करके दिखाना सौ बार कहने से अधिक प्रभावी है। कहने की अपेक्षा करने का प्रभाव अधिक गहन व स्थायी होता है। टैगोर के शब्दों में - ‘‘हमारे शिक्षक जब यह समझने लगेंगे कि हम गुरू के आसन पर बैठे हैं। और हमें अपने जीवन द्वारा छात्रों में प्राण फूँकने हैं। अपने ज्ञान द्वारा उनके हृदय में ज्ञान एवं विद्या की ज्योति जगानी है। अपने प्रेम द्वारा बालक का उद्धार करना है। उनके अमूल्य जीवन का सुधार करना है। उस समय वे सत्य रूप से स्वाभिमान के अधिकारी बन सकेंगे। तब वे ऐसी वस्तु प्रदान करने के लिए तत्पर हो सकेंगे जो बेचे जाने वाली नहीं है। जो मूल्य देकर प्राप्त नहीं हो सकती। उसी समय वे छात्रों के समीप सरकार द्वारा नही, वरन धर्म के विधान और प्राकृतिक नियम के अनुसार सम्मानित एवं पूज्य बन सकेंगे।‘‘
8.मूल्यों के विकास के लिए विद्यालयी वातावरण लोकतांत्रिक व उत्साहवर्धक, स्वच्छ सौन्दर्यपूर्ण, अनुशासन प्रिय व सृजनात्मक होना चाहिए। शिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार-‘‘विद्यालय का वातावरण, अध्यापकों का व्यक्तित्व एवं व्यवहार तथा विद्यालय में उपलब्ध भौतिक सुविधाएँ छात्रों को मूल्योन्मुख बनाने में विशेष भूमिका निभाते हैं। हम इस बात पर बल देना चाहेंगे कि विविध मूल्यों के प्रति जागृति विद्यालय, सम्पूर्ण पाठ्यक्रम एवं समस्त गतिविधियों को प्रभावित करे। विद्यालय की प्रातःकालीन सभा, पाठ्यक्रम एवं पाठ्य सहगामी क्रियाएँ, सभी धर्मों के धार्मिक उत्सवों का आयोजन, कार्यानुभव, खेलकूद, विषय क्लब, समाज सेवा- ये सभी छात्रों में सहयोग व पारस्परिक सद्भाव, निष्ठा व ईमानदारी, अनुशासन व सामाजिक दायित्व आदि जीवन मूल्यों के विकास में सहायक होते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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डॉ० दिनेश कुमार गुप्ता
सहायक आचार्य, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,
गंगापुर सिटी, जिला-सवाई माधोपुर (राज.) 322201