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प्रकृति की व्यथा





शहरीकरण की दौड़ में,

बहुत आगे निकल गए हम...

पीछे छूट गए हैं,

अब तो सारे गाँव हमारे!

नित नए अविष्कार पर...

जश्न मना रहे हैं हम लेकिन,

सुबक रहे हैं देखो...

सभ्यता और संस्कार हमारे!



अंधाधुंध कट रहे हैं वन,

उजड़ रहा पशुओं का बसेरा...

बेजुबान प्राणियों के आँसू पूछे,

क्यों छीन गया हमसे ठाँव हमारे!

पंछी सारे भटक रहे हैं...

ख़त्म हुआ जो एक एक वृक्ष,

कहाँ बने फिर नीड़ हमारे!

उनकी दशा पे सुबक रही मिट्टी,

बिन पेड़ों के अब तो...

उखड़ने को है जमीं से पाँव हमारे!



बन रहे ऊँचे- ऊँचे भवन,

मिट रहे हैं ताल- तलैया...

चकाचौंध रौशनी में,

धूमिल हो गए चाँद सितारे!

इंटरनेट के गिरफ़्त में कैद सभी,

लाड़ पाने को बचपन सुबक रहा!

विदेशी आचरण के बढ़ते प्रभाव से,

व्यथित हैं वेद और ग्रंथ हमारे!

कर्त्तव्य पथ से क्यों भटके सब,

मझधार में अटका अब तो नाव हमारे!



खेतों में अब हल नहीं चलते,

दूर किसी कोने में वो पड़ा है!

खेत और बाड़ी की फ़िक्र ही किसे,

सोच- सोचकर बैल भी मायूस खड़ा है!

आँगन की तुलसी कुम्हलाई है,

बोनसाई पौधों के वारे न्यारे हैं!

सुबक- सुबक कर रोये प्रकृति,

कैसे भरे अब हृदय के घाव हमारे!


अनिता सिंह

देवघर, झारखंड