कुछ पाने से पहले
तपना जरूरी है
तपी धरती थी गर्मी में
उमड़ आये घने बादल
जैसे उतर आये हों
जमीं पर
सुखद प्रेम का
आलिंगन देने
जिससे कोख पृथ्वी की
हो गयी हरी भरी
मची है होड़
बादलों और धूप में
कोई बरसा रहा पानी
तो कोई सोख रहा
इस अमृत को
पर दोनों लगे हैं
नये सृजन में
इस सावन में ॥
कुछ अल्हण से
विधर्मी आवेश
घूम रहे हैं बादलों में
टकराते हैं बादल
बिजली समा जाती है
पृथ्वी के गर्भ में
कुछ नया सृजन को
इस सावन में ॥
हरी दुशाला ओढ़े भुट्टे
सुकुमार रेशमी
रंगीन बालों में
अक्षत से परागकोश
उलझाये
मक्का की श्वेत गुठली में
पिरोने लगे हैं
पीले मोती
इस सावन में ॥
देवेन्द्र पाल सिह
उधमसिह नगर, उत्तराखण्ड