कुछ भी ना कहे मुख से
फिर भी सब समझ जाते है
मित्र ही तो वह बन्धन है
जहां बेस्वार्थ रिश्ते निभाए जाते हैं
नही मानते तुम गर तो
तुमको प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाते हैं
मित्र की परिभाषा तुमको
अब हम त्रेतायुग में समझाते है
एक वचन पर बंधे रघुवंशी
सुग्रीव का राज्य लौटते हैं
मार सके था बाली रावण को
फिर भी बाली को मार गिराते है
शंका ना किया शत्रुभ्रात पर
सभी पर समान स्नेह दिखाते है
भाई से दुत्कारे जाने पर भी
लंकाभेदी को गले लगाते है
मित्र ही तो वह बन्धन है
जहां बेस्वार्थ रिश्ते निभाए जाते हैं
मित्र की परिभाषा तुमको
अब हम द्वापर से समझाते हैं
दो मुट्ठी चावल के खातिर
जो तीनो लोक दे जाते हैं
ऊँच-नीच का भेद किए बिन
राजा दरिद्र के पग धुलाते है
एक बार जो मान लिया मित्र
हर हाल में मित्रता निभाते है
धर्म-अधर्म हर परिस्थिति में
कर्ण जान न्यौछावर कर जाते हैं
मित्र ही तो वह बन्धन है
जहां बेस्वार्थ रिश्ते निभाए जातें हैं
मित्र की परिभाषा तुमको
अब कलयुग में भी दिखलाते हैं
मतलब से भरी इस दुनिया में
बेमतलबी से कुछ यार बन जाते हैं
जब खून के रिश्ते साथ छोड़ दे
तो ये अपनी जान लुटाते हैं
दो दोस्त जब बन जाएं जिगरी
जय-वीरू से यार कहलाते हैं
कुछ भी न कहा हो मुख से
पर ये तो सब समझ जाते हैं
मित्र ही तो वह बन्धन है
जहां बेस्वार्थ रिश्ते निभाए जातें हैं
सोनल मंजू श्री ओमर
राजकोट, गुजरात