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मेरा तीस दिन का वनवास


जीवन में वनवासी जीवन होना बहुत जरूरी है। राम ने चौदह साल वनवास किया था; तभी वह प्रभु राम हो सके थे। कृष्ण भी अपना स्थान छोड़ दिया था। बिना वनवास के, वनवासी जीवन के जीवन का असली हिस्सा हो ही नहीं सकता है।

असली हिस्सा जीवन का, जीव का वनों में ही है। इसी कारण मैंने भी वनवासी होना पसंद किया है। इसमें मेरे अति प्रिय पुत्र सुरेन्द्र दुबे सहित मेरे प्रिय सुपुत्र अनुराग मिश्र का बहुत अच्छा किरदार है।

मैं अपने प्रथम वनवासी जीवन को तीस दिन में ही तेरह सालों का मान लिया है, वह इसलिए कि, मैं उन अपने पूज्य वनवासियों की तुलना अपने से कैसे कर सकता हूं। फिर भी मेरे लिए उन सभी का अनुकरण ही बहुत कुछ है।

सभी धर्मावलंबी, दादी - नानी की कहानियां बताते हैं कि, बिना वनवासी जीवन के कुछ भी नहीं, कोई भी अनुभव नहीं हो सकता है।

इतने बड़े वन के निवास को ही तो वनवास कहते हैं। उसी से मिलता खाना - पानी भी होना चाहिए! सबकुछ वैसा ही था।

मैंने जैसे ही मंडला जिले में प्रवेश किया था, वैसे ही घनघोर जंगल का सामना करना पड़ा था। बड़े - बड़े साजा, चार, सागौन, शाल आदि के पेड़ों ने मेरा स्वागत किया था।

जंगल के अंदर के जंगली गांव, फिर उन गांवों की साज सज्जा, साफ - सफाई, पशुपालन, रहन - सहन मन को मोह लेते हैं। कंब ऋषि ने जैसे गांवों का वर्णन किया था वैसे ही गांव देखने को मिल रहे थे।

मुझे कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से ही लगे जंगल जिसे चनई गांव का वन कह सकते हैं। उसी वन के बुड़बुड़ी नाले में बंध रहे बांध के कैंप के पास ही रहने - सोने की व्यवस्था कर दी गई थी।

कितनी मेहमान नवाजी है इन जंगली ग्रामीणों में, न कोई भेदभाव, न ही तनिक भी अविश्वास, मुझे तो वहां की गृहणियों के स्वभाव भी बहुत अच्छे लगे थे। कच्चे मकानों में सुख शांति, साफ - सफाई जो मन को मोह रहा था।

वहां जंगली नदी में उगती वनस्पतियां, औषधियां बहुत काम की थीं। एक ऐसी औषधि जो पथरी आदि रोगों को जड़ से उखाड़ फेंकती है, उस औषधि से बने चिल्ले में तो स्वाद के साथ - साथ बिना पैसे की औषधि भी है।कितने प्यार से खिलाया था, उस महिला ने! वहां के लोगों का यही कहना है कि, "साल में एक बार इसे जरूर खाना चाहिए!"

यहां दिसंबर के महीने में भी दिन में कोई धूप में खड़ा नहीं रह सकता है। हां रात में ठंड पड़ती है, वह भी असहनीय नहीं होती है।

मैंने भी अकेले नहीं खाने का निर्णय लिया था। मैं भी कैंप में खाना शुरू किया था। वह गरम - गरम अंगार में तुरंत की पकाई रोटियां, आलू - बैंगन का भुर्ता; वाह क्या स्वाद था! ठेकेदार के साथ, पांडेय के साथ! भाई मैं तो एक रोटी ज्यादा ही खाने लगा था।

पूरी तरह से वनवासी जीवन, बहुत अलबेला था।

न कोई झगड़ा न कोई फसाद, निश्छल मन के लोग, यादव, आदिवासी, पवार, ठाकरे आदि!

शाम होते ही दूर - दूर तक फैले वन में साफ आकाश, जंगली जानवरों की आवाजें मन को मोह लेती थीं। कुछ डरपोक लोग भी थे जो कहते तो नहीं थे फिर भी चौंकन्ने रहते थे। कैंप में ग्यारह बजे तक चहल-पहल रहती थी। फिर सुबह छः बजे से ही चहल-पहल शुरू हो जाती थी। उस गांव के लोग काफी खुश थे।

गांव की महिलाएं, लड़कियां, लकड़ियां बीनने के लिए समूह में आती - जाती थीं। वहां के लोग बांध में चलती मशीनों को देखने आते थे। चलती पोकलैंड को बहुत ही गौर से देखते थे।

वहां जंगल के अंदर, नदी के किनारे एक शिव मन्दिर है जहां मकरसंक्रांति को मेला लगता है। वैसे भी सोमवार को स्त्रियां, किशोरियां दोपहर बाद उस मंदिर में पूजा अर्चना करने जाती थीं, जो लौटकर हमें प्रसाद देना नहीं भूलती थीं। इससे इनकी धार्मिकता का पता चलता है।

यहां के लोग ज्यादा ढोंग - झपट्टा नहीं करते हैं। यहां भैंस पालते हैं भैंस की चरवाई चरवाहे की तीस कुड़े डेढ़ कुंतल के लगभग साल भर की है। एक गाय की चरवाई छः कुड़े ( कुड़े एक तसले की तरह का तौल यंत्र है, जो अधिकतर लकड़ी का होता है; एक कुड़े लगभग पांच किलो का होता है ) यहां ए स्पष्ट करना जरूरी है कि, दो बैलों की चरवाई छः कुड़े साल भर की है। एक गाय की चरवाई छः कुड़े साल भर की है।

यहां ज्यादातर लोग चावल का भात खाते हैं क्योंकि यहां चावल की फसल धान की खेती करने के बाद अधिकतर खेत खाली पड़े रहते हैं।

यहां के वन यहां के निवासियों को जीविका के लिए वन विभाग द्वारा संचालित काम रोजगार के रूप में मिलता है। चार के पेड़ों से चिरौंजी, आंवला आदि बहुत से फल बेंचकर पैसे कमाते हैं।

यहां के लोग मांसाहारी भी हैं। शराब बीस रुपए प्रति गिलास मिलती है, तीस रुपए से ज्यादा की शराब कोई नहीं पी पाता है। यहां महुआ के पेड़ बहुत हैं, महुआ की शराब बिकती भी है। यहां की औरतें, लड़कियां भी कोई - कोई शराब पीती हैं। यहां शराब पीकर झगड़ा करते किन्हीं लोगों को नहीं देखा है मैंने! शराब पीकर आते हैं, खाना खाकर बिंदास सो जाते हैं।

यहां शादी की पहल लड़का वाला करता है, भंटा भात की रस्म में लड़की को पैसे देकर लड़के का बाप, या घर का सयाना अगर बाप नहीं है तो; वरना लड़के का बाप पैसे देकर लड़की के पैर छूकर कहता है कि, "मैं तुम्हें, आज से अपने घर की बहू बनाता हूं!"

यहां दहेज नहीं मांगते हैं, लड़की पक्ष वाले जो भी देते हैं, लड़का पक्ष वाले उसी को स्वीकार करते हैं।

खेती में सब्जी घर में ही लगा लेते हैं। प्राकृतिक पानी यहां प्रदूषण रहित होता है, पानी पाचक एवं मीठा होता है। यहां की हवा नीरोग है। यहां खेती में एक फसल धान की अधिकतर लोग करते हैं। अब कुछ लोगों ने अन्य रबी की फसल भी लगाने लगे हैं। बांध बंध जाने से पर्याप्त पानी इस गांव को मिलेगा; तब यहां सभी फसलें होने लगेंगी।

अधिकतर लोग मुर्गी पालन, बकरी पालन भी करते हैं। मछली पकड़ना भी कुछ लोगों का काम होता है।

वन होने के कारण यहां पर्याप्त लकड़ियां मिलती हैं, इसलिए यहां अभी भी ज्यादातर लोगों के घरों में लकड़ियों से ही खाना बनता है।

अधिकतर वन गांवों में एक धान की फसल तैयार करते हैं, बांकी खेत खाली पड़े रहते हैं। ज्यादातर वन से ही इनकी जीविका चलती है।

अब यहां से भी कुछ लोगों को बाहर शहरों में काम करने जाते पाया जाने लगा है।

मेरा वनवासी जीवन भी शिक्षाप्रद है। सीधे - सादे लोगों के बीच समय कट जाता है।

यहां की नदी में शिकार करते सफेद बगुले बहुत अच्छे लगते हैं। पनडुब्बी, जलमुर्गी क्रीड़ा करती हैं; मैं भी इनके साथ, इनकी खुशी में शामिल हो जाता हूं।

बगुलों से, जलमुर्गियों से मैं बातें करता हूं। पनडुब्बियां पास बुलाती हैं, पानी के अंदर से औषधियां निकाल कर देती हैं।

जंगली भैंसे, जंगली जानवरों में शेर, चीता, तेंदुआ, चीतल, नीलगाय, चिंकारा, बारहसिंगे कुलांचे खेलते हुए दिखाई देते हैं। हरिण, हरिणी उनके बच्चे बहुत सुंदर लगते हैं।

घर से छः सौ किलोमीटर दूर घने जंगलों में बसेरा, यही तो वनवास है। इस वनवास से बहुत कुछ जानने को, सीखने को मिला है।

लड़कों से दूर, पोतों से दूर, एक पास था वह भी छोड़ कर वापस चला गया है; इसका मतलब साफ है कि, इन अपनों ने ही मुझे वनवास दिया है।

यह भी सच है कि, वनवास तो वनवास है, इसमें सुख कहां है!

किसी के द्वारा बिगड़ा मेरा स्वभाव अब जंगली जीवन में इतना जल्दी कैसे ढल सकता है! पहले मां ने सिखाया साफ - सुथरा खाना, साफ - सुथरा रहना, ईमानदारी नहीं छोड़ना, शाकाहार अपनाना! फिर पत्नी ने भी वही सिखाया, और भी अधिक स्वाभिमानी बनाया था।

जीवन में कब क्या घट जाय किसी को पता नहीं चलता, पता नहीं रहता! जब दशरथ जैसे प्रतापी राजा को पता नहीं चल पाया था; मैं तो एक अदना सा मनुष्य हूं।

यहां तो मांसाहार, शराब कोई गलत नहीं है। फिर मेरे लिए तो इस बारे में सुनना भी अजीब है।

वनवास तो वनवास वहीं लड़कों के साले साहब, राजकिशोर तिवारी जी ने जो भी दिया मेरे लिए वही अमृत है। किसी से कुछ मांगना, कहना मेरे लिए संभव नहीं है।

बस मुझे तीस दिनों का वनवास पूरा करना होगा। फिर जहां का अन्न जल लिखा होगा, वहीं जाना होगा।




डॉ. सतीश "बब्बा"

डॉ०  सतीश चन्द्र मिश्र, 

ग्राम व पोस्ट - कोबरा, जिला - चित्रकूट, 

उत्तर - प्रदेश, पिनकोड - २१०२०८.

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