विश्वास का राग

अरुणिता
द्वारा -
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यह विश्वास का जो राग है न-

वह समागम के लिए नहीं होता,

नही होता है-

प्रतिपल साथ गमन के लिये

वह अरण्यवास काटता है,

वह शेष रह जाता है-

अनकहा और अनसुना सुनने के लिए

हाँ, वह होता है-

एक-दूसरे का पूरक,

और सदैव अधूरा बना रहने के लिए,

वह केवल तृप्ति कर पाता है.....

कि वह है किसी के वक्षस्थल में,

कि वह किसी के पेशानीं में है,

कि कोई उसकी खबर भी रखता है,

उसकी सुधियाँ बुनता है।

कोई उसके लिए

अनायास आनंदित होता है,

या उसकी स्मृति में आँखे नमकर

फेर भी लेता है,

इजहार नही करता।

यह एक विश्वास का जो राग है न-

यह उत्सव नहीं मना पाता,

लेकिन व्रत रखता है,

और अपने उस दो घूंट राग के साथ

उसे जीवित रखता है-

प्रतिपल.....

प्रतिक्षण......

मेरे विश्वास का राग भी ऐसा ही है...

उसके अंतर्मन, अनुमस्तिष्क में

क्या घट-बुन रहा है,

नही जानता,

और न ही मैं उसे जानना चाहती हूँ,

हाँ,

पर वो मेरे ह्रदय, मेरी स्मृतियों में है

और सदैव बना रहेगा।।

डॉ० पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'

इन्दौर, मध्यप्रदेश 

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