हम भ्रम में होते है
ये संसार है
जहाँ दो दिन की
मोहलत मिलती है
बस एक याद बने रहने की
कोई फर्क नही पड़ता..कौन चला जाएगा
कौन आएगा और कौन रह पाएगा.
ये संसार अपनी तृप्ति में व्यस्त होती है
उसे आभास कहाँ किसके हक का ,
उसने उपभोग कर लिया है.
वो वहीं डूबकी लगाता है जहाँ
उथली नदी बहती है.
और डर इतना कि
कहीं डूब न जाए...
एक बचपन ही खरा सा होता है
कभी माटी चख लेता
कभी उसे गूँथ लेता
अनगढ़ हाथों से
अनगढ़ आकृति उकेरती
वो मासूम सा रंग जिसमें भरता है.
ये वियावान संसार
अब सभ्य हो चला है
कदम दर कदम भाँपने लगा है.
आँसू और मुस्कान के
अनुपात में छिपी सच को
मापने चला है.
सपना चन्द्रा
कहलगांव भागलपुर बिहार