मंगलकारी समृद्धि द्वारा उच्च दर्शन से रूपांतरित देवात्मा
–डॉ० अजय शुक्ल ( व्यवहार वैज्ञानिक )
“ जीवन में आत्मिक गुणों एवं शक्तियों के माध्यम से समृद्धशाली हो जाने की स्थितियां ही मंगलकारी स्वरुप को प्रतिपादित करती हैं जिसमें जीवन मूल्य की उच्चता के दर्शन , आत्म वैभव के रूप में सदा ही परिलक्षित होते रहते है जिससे आत्मिक शक्ति का व्यवहारिक स्वरूप में प्रस्फुटित होना सहजता से संपन्नता के परिवेश में गतिशील हो जाता है । आत्म चेतना सदा ही स्वयं के नैसर्गिक स्वभाव में स्थित रहती है जिसे धर्मगत व्यावहारिकता के द्वारा पुरुषार्थ की वैचारिक उच्चता के सामर्थ्य से देवात्मा की सम्पन्नता के रूप में रूपांतरित किया जाता है जिससे लोक कल्याणकारी अवस्था का पवित्र क्रियान्वयन संपूर्ण जगत के लिए मंगलकारी स्वरूप में परिणित हो जाए । आध्यात्मिकता के विराट परिवेश में आत्मिक जगत की कल्याणकारी एवं हितकारी अवस्था के लिए जीवात्मा द्वारा आध्यात्मिक पुरुषार्थ की गहन स्थितियों से गुजरते हुए – स्वयं को एक साधक की भांति सदा त्याग , तपस्या एवं सेवा , के सानिध्य में जीवन के अंत तक , पुरुषार्थ की पराकाष्ठा अर्थात निज स्वरूप को निजता के ही मानदंड पर स्थापित कर देना , इस बात का प्रमाण बन जाता है कि – साध्य की प्राप्ति के लिए साधक द्वारा – ‘ त्याग का भी त्याग ’ कर दिया गया है और स्वयं को परमसत्ता के सम्मुख , संपूर्ण रूप से समर्पित करके – आत्मिक उत्कृष्टता के उच्चतम आयाम को स्पर्श करते हुए , आत्मानंद की सहज प्राप्ति को इसी जीवन में सुनिश्चित कर लिया है । ”
आत्म वैभव द्वारा मंगलकारी समृद्धि की अनुभूति : –
सद्गुणों के प्रति नैसर्गिक श्रद्धा , आस्था एवं मान्यता का स्थायित्व अंतर्मन को सद्प्रेरणा प्रदान करके भरपूर कर देता है जिसमें आत्मा के स्वमान , स्वरूप और स्वभाव का योगदान सदा ही समाहित रहता है जो जीवात्मा को मनुष्य जन्म - की धन्यता से सराबोर कर देने में पूर्णत: सक्षम हो जाता है । आत्मा की वैभव - संपन्नता से जुड़ी सुखद अनुभूतियां आत्मिक उच्चता का प्रमाण होती हैं जिसे जीवन के व्यावहारिक जगत में मंगलकारी समृद्धि के श्रेष्ठतम स्वरूप द्वारा आत्महित में संलग्नता के साथ-साथ सर्व मानव आत्माओं के कल्याण में प्रतिपादित किया जाना न्याय संगत होता है। जीवात्मा के सानिध्य में संपूर्ण प्रकृति के तत्वों को जीवन की श्रेष्ठतम स्थितियों के संदर्भ एवं प्रसंग में स्वीकार करते हुए कल्याणकारी आत्मिक दृष्टि का सदुपयोग सतोप्रधान सृष्टि के निर्माण हेतु किया जाना आत्मिक समृद्धि का आधार होता है । निराकारी सत्ता के प्रति आत्म समर्पण का निश्चयात्मक स्वरूप आत्मिक गुणों एवं शक्तियों को स्वयं के साथ सर्व आत्मन बन्धुओं के उत्कर्ष हेतु - श्रेष्ठ, शुभ और पवित्र भाव तथा विचार जगत में रूपान्तरित कर देता है । देवात्मा स्वरूप में स्थापित होने की गतिशीलता द्वारा सदैव चेतना का परिष्कार और उससे संबद्ध अनुक्रम का निर्धारण - पुण्यात्मा , महात्मा एवं धर्मात्मा की व्यावहारिक पृष्ठभूमि के माध्यम के माध्यम से सुनिश्चित होता है ।
आत्मिक स्वभाव में उच्च दर्शन का स्थायित्व बोध : –
श्रेष्ठतम स्वरुप का दिग्दर्शन करते हुए जीवात्मा स्वयं को उत्कृष्टता के शिखर पर स्थापित करने हेतु तीव्रतम पुरुषार्थ को आत्मसात करती है तब जीवन में महानता की ऊंचाई पर पहुँचने की अभिलाषा बलवती होकर कर्म क्षेत्र में आत्मिक परिष्कार के कार्य में संलग्न हो जाती है । आत्मगत स्वभाव में धारणात्मक उच्चता के प्रति नैसर्गिक बोधगम्यता अंतर्निहित होती है जो अंतःकरण को सदा अभिप्रेरित करती रहती है जिससे किसी भी स्थिति में जीवन की उच्चतम अवस्था के सानिध्य में धर्म एवं पवित्र कर्म के पथ पर गतिशीलता बनी रहती है । जीवन की सामाजिक पक्षधरता साधक की मन:स्थिति द्वारा अच्छाई के प्रति सकारात्मक भाव बनाएं रखती है ताकि ऊतम को उपनाने की सार्थकता के साथ श्रेष्ठता को भी आत्मसात किया जा सके क्योंकि मनो वैज्ञानिक दृष्टि से श्रेष्ठतम और महानतम की की प्राप्ति ही जीवन की उपलब्धि का आधार बनता है जो जीवात्मा को जीवन की दार्शनिकता से धर्मात्मा एवं देवात्मा के स्वरुप का साक्षात्कार करने में पूर्णतया सक्षम होता है । विशुद्ध रूप से आचरण की सत्यनिष्ठा से आत्मगत स्वभाव को अर्न्तमुखी स्वरूप के व्यवहार द्वारा पोषित करते हुए अनुगमन किया जाना आत्मगत धर्म है जो सर्वमान्य स्वरुप में – नियम – संयम , जप – तप , ध्यान - धारणा , स्वाध्याय – सत्य , प्रेम – अहिंसा तथा राजयोग मौन , साधना के अनुसरण से ही सम्पूर्णता को प्राप्त होता है । आत्मानुभूति के केंद्र में जीवात्मा द्वारा आत्मगत स्वभाव की विशिष्टता को स्वीकार करते हुए आत्म-हित साधने के मूलभूत प्रवृति का वास्तविक स्वरूप आत्मसात करने से ही आत्मिक स्वभाव में उच्चता का दार्शनिक पक्ष परिलक्षित हो पाता है ।
धर्मगत व्यावहारिकता की सत्यता से रूपांतरित देवात्मा : –
जीवन की संवेदनशीलता का विराट पक्ष व्यक्तिगत गतिशीलता को अग्रसर करने में विशिष्ट योगदान प्रदान करता है जिसमें मानवता की उच्चतम स्थितियों के लिए भागीरथ प्रयास की विभिन्न श्रृंखलाएँ गतिमान रहती हैं और अपेक्षित स्थिति में पुण्यात्मा बन जाने के लिए अंतर्मन से पुरुषार्थ को क्रियान्वित करने में सम्बद्धता बनी रहती है। चेतना की चैतन्यता के सानिध्य में उर्ध्वगामी चिंतन का परिष्कृत स्वरुप ही मानवता के मध्य पुण्य के निर्माण हेतु मनुष्यता को अभिप्रेरित करता है जिसमें आत्मा साक्षी दृष्टा होकर स्वयं को पुण्य कर्म के क्षेत्र में स्थापित कर देती है । मन , वचन एवं कर्म की पवित्रता से महान कार्यों का शुभारंभ होते ही जीवात्मा आत्मानुभूति के भाव जगत में पहुंच जाती है और आत्मगत चेतना की अंतरिक शक्ति महानता से युक्त कर्म को प्रधानता प्रदान करते हुए जीवन में महान आत्मा स्वरूप में निर्मित होने की उपलब्धि प्राप्त कर लेती हैं । धर्मगत आचरण की पृष्ठभूमि पारदर्शी स्वरुप में व्यावहारिक परिणाम का आधार बनती है जिसमें सिद्धांत एवं व्यवहार की साम्य दृष्टि धार्मिक क्षेत्र में लोक कल्याणकारी कार्यों को पूर्णता प्रदान करने में सक्षम हो जाती है । जीवात्मा का बाह्य एवं आन्तरिक स्वरुप आध्यात्मिक पुरुषार्थ के कारण परिवर्तनशील हो जाता है जो सम्पूर्णता के सन्दर्भ में एवं प्रसंग में आत्मिक स्थिति , अवस्था एवं स्वरुप की एकरूपता को नैतिकता के समग्र परिदृश्य में आत्मगत संतुष्टि के परिवेश को रेखांकित करते हुए धर्मगत व्यावहारिकता से देवात्मा स्वरूप में रूपान्तरित हो जाता है ।
धारणात्मक स्वरुप में गहनतम अनुकरण और अनुसरण : –
भाव एवं विचार जगत का परिदृश्य जब उच्चतम स्थितियों में स्थापित होकर श्रेष्ठतम स्वरूप को धारण कर लेता है तब जीवात्मा धन्यता से अभिभूत हो जाती है क्योंकि आत्मिक परिवेश दिव्य गुणों एवं शक्तियों से जीवन के व्यावहारिक क्रियान्वयन के अंतर्गत स्वयं को सदा गौरवान्वित अनुभव करने लगता है । मानव जीवन की पवित्रतम भावनात्मक पृष्ठभूमि के सानिध्य में वैचारिक समृद्धि के प्रति संपूर्ण मानव जाति सदा से ही आदर एवं सत्कार प्रदान करती रही है जिसमें संपूर्ण मानवीय विश्वसनीयता उस समय अभिवृद्धि को प्राप्त हो जाती है जब व्यक्ति का व्यक्तित्व – मन , वचन एवं कर्म से भी पवित्रता को धारणात्मक स्वरुप में अनुकरण और अनुसरण कर लेता है । जीवन के व्यवहार में आध्यात्मिक जीवन की व्यवहारिकता का प्रतिबिंब – लौकिक , अलौकिक एवं पारलौकिक संबंधों के मध्य संतुलन स्थापित करने पर विशिष्ट रूप से बल देता है जिसके अंतर्गत जीवात्मा द्वारा परम सत्ता से जो सूक्ष्म , दिव्य गुणों एवं शक्तियों को ग्रहण किया जाता है वह अलौकिक जगत में सहजता से अभिव्यक्त हो जाता है तथा धीरे - धीरे लौकिक संबंधों में जीवन की उच्चता का परिवेश – सरलता से जीवन के अति सूक्ष्म व्यवहार के माध्यम से प्रकट होता है जो सर्व आत्माओं को आत्मिक संतुष्टता प्रदान करने में अंततः मददगार सिद्ध हो जाता है ।
साधक और साध्य के मध्य स्वरूपगत गतिशील साधना : –
जीवात्मा सदा ही कल्याणकारी नित – नूतन स्वरुप द्वारा स्वयं के पुरुषार्थ में समाहित होकर गतिशील रहती है जिसमें आत्महित की नैतिकता को आचरण से उत्कृष्टता तक पहुँचाने का भगीरथ प्रयास सम्पूर्ण रूप में संपन्न होता है और सर्व मानव आत्माओं के कल्याण का मार्ग सदा के लिए प्रशस्त हो जाता है । साधक और साध्य के मध्य गतिशील साधना की समग्रता सदा जीवात्मा को सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्वरुप से विश्लेष्णात्मक अध्ययन के पुरुषार्थ में – आचार , विचार एवं व्यवहार , को एकाकार करने की स्थिति , अवस्था एवं स्वरुप की व्यावहारिकता को प्राप्त किया जा सकता है जिसके लिए जीवात्मा का सृष्टि में अनादि काल से आगमन एवं प्रस्थान की गतिशीलता निरन्तर रूप से विद्यमान है । आत्मिक उच्चता का जतन जीवात्मा के द्वारा कई जन्मों से निरंतर किया जाता है जिसकी सफलता से उपलब्धि का जागृत स्वरूप जीवात्मा स्वयं – आध्यात्मिक पुरुषार्थ की गहनता द्वारा अनुभव करती है जिसके अनुसार वह यह भी सुनिश्चित करती है कि – जीवन में धर्म – कर्म , अध्यात्म – पुरुषार्थ और राजयोग – मौन , का जीवन के व्यवहार में सृजनात्मक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान है जो – आत्मा को पवित्रता की ऊंचाई पर स्थापित करने में अति विशिष्ट भूमिका का निर्वहन संपन्न करता रहता है ।
व्यावहारिक आचरण के नैसर्गिक जीवन मूल्य आधार : –
सृष्टि में जीवात्मा को स्वयं के वास्तविक स्वरुप अर्थात् आत्मानुभूति होते ही संपूर्ण पुरुषार्थ द्वारा पवित्र क्रियान्वयन के श्रेष्ठतम परिणाम को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से चेतना द्वारा सहज ही मंगलकारी समृद्धि के परम सौभाग्यशाली स्वरुप में ग्रहण कर लिया जाता है और जीवन के पुरुषार्थ में अनुकरण एवं अनुसरण के सिद्धांतों का प्रयोग करते हुए व्यवहारिकता की कसौटी पर जीवन जीने का पुरुषार्थ आरंभ कर दिया जाता है । पुरुषार्थ के अनुक्रम में – श्रेष्ठ , शुभ एवं पवित्र विचार के प्रति अत्यधिक संवेदनशील भावनात्मक दृष्टिकोण ही व्यक्ति को आंतरिक रूप से अभिप्रेरित करता है जिससे जीवन के प्रांगण में कर्मक्षेत्र के अंतर्गत पवित्र क्रियान्वयन की सुनिश्चितता निर्धारित हो जाती है तथा सुखद परिणाम से आत्मा नवीनतम कार्य के प्रति नैसर्गिक रूप से अभिप्रेरित होते हुए गतिशील बनी रहती है । आत्मिक शक्ति के त्रिविध स्वरुप अर्थात् मन, वचन एवं कर्म के मध्य – श्रेष्ठ, श्रेष्ठता और श्रेष्ठतम का सह - सम्बन्ध ही उच्चतम व्यक्तित्व के निर्माण का द्योतक होता है जिसमें कर्मगत पवित्रता को व्यावहारिक आचरण के आधारभूत जीवन मूल्य के रूप में समादर भाव से स्वीकार कर किया जाता है और यही दिव्यता युक्त व्यवहार लोक मंगल के रूपांतरण हेतु प्रेरणात्मक स्वरूप में सर्व मानव आत्माओं द्वारा सहजता से स्वीकार कर लिया जाता है ।
लोक कल्याणकारी अवस्था का पवित्रतम क्रियान्वयन : –
जीवन में आत्मिक गुणों एवं शक्तियों के माध्यम से समृद्धशाली हो जाने की स्थितियां ही मंगलकारी स्वरुप को प्रतिपादित करती हैं जिसमें जीवन मूल्य की उच्चता के दर्शन , आत्म वैभव के रूप में सदा ही परिलक्षित होते रहते हैं जिससे आत्मिक शक्ति का व्यवहारिक स्वरूप में प्रस्फुटित होना सहजता से संपन्नता के परिवेश में गतिशील हो जाता है । आत्म चेतना सदा ही स्वयं के नैसर्गिक स्वभाव में स्थित रहती है जिसे धर्मगत व्यावहारिकता के द्वारा पुरुषार्थ की वैचारिक उच्चता के सामर्थ्य से देवात्मा की सम्पन्नता के रूप में रूपांतरित किया जाता है जिससे लोक कल्याणकारी अवस्था का पवित्र क्रियान्वयन संपूर्ण जगत के लिए मंगलकारी स्वरूप में परिणित हो जाए । आध्यात्मिकता के विराट परिवेश में आत्मिक जगत की कल्याणकारी एवं हितकारी अवस्था के लिए जीवात्मा द्वारा आध्यात्मिक पुरुषार्थ की गहन स्थितियों से गुजरते हुए – स्वयं को एक साधक की भांति सदा त्याग , तपस्या एवं सेवा , के सानिध्य में जीवन के अंत तक , पुरुषार्थ की पराकाष्ठा अर्थात निज स्वरूप को निजता के ही मानदंड पर स्थापित कर देना , इस बात का प्रमाण बन जाता है कि – साध्य की प्राप्ति के लिए साधक द्वारा – ‘ त्याग का भी त्याग ’ कर दिया गया है और स्वयं को परमसत्ता के सम्मुख , संपूर्ण रूप से समर्पित करके – आत्मिक उत्कृष्टता के उच्चतम आयाम को स्पर्श करते हुए , आत्मानंद की सहज प्राप्ति को इसी जीवन में सुनिश्चित कर लिया है ।
– डॉ. अजय शुक्ल ( व्यवहार वैज्ञानिक )
- स्वर्ण पदक , अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सहस्राब्दी पुरस्कार - संयुक्त राष्ट्र संघ .
- अंतरराष्ट्रीय ध्यान एवं मानवतावादी चिंतक और मनोविज्ञान सलाहकार प्रमुख - विश्व हिंदी महासभा - भारत .
- राष्ट्रीय अध्यक्ष , अखिल भारतीय हिंदी महासभा - समन्वय , एकता एवं विकास , नई दिल्ली .
- अध्यक्ष , राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् , प्रधान मार्गदर्शक और सलाहकार , राष्ट्रीय सलाहकार मंडल - आदर्श संस्कार शाला , आदर्श युवा समिति , मथुरा , उतर प्रदेश .
- संपादक एवं संरक्षक सलाहकार , अनंत शोध सृजन - वैश्विक साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका - नासिक , महाराष्ट्र .
- प्रधान संपादक - मानवाधिकार मीडिया , वेब पोर्टल - विंध्य प्रांत , मध्य प्रदेश .
- प्रबंध निदेशक - आध्यात्मिक अनुसंधान अध्ययन एवं शैक्षणिक प्रशिक्षण केंद्र , -देवास - 455221 , मध्य प्रदेश .