बंधों न किसी भ्रम के फंदे से
न जड़ हो जाओ किसी ठौर
गुजरने दो जिंदगी को सहज
अच्छे-बुरे और कठिन दौर से
कि बंधनों का, बंदिश का एहसास
रोकता है शोख चहलकदमी से
और शिथिल हो जाता है मन
शरमाने लगता है नई भोर से।
समझो जंगलों को, पहाड़ों को
विरासत नहीं है कंकरीट का शहर
जनम लेता है नदियों से सातों सुर
छिटकती है किरन नभ की कोर से
कि उगाना होगा जंगलों को
घरों के पास बहुत घना और
बुलाना होगा वर्षा के बादलों को
झरने बह चलेंगे सब ओर से।
उड़ना अच्छा है आकाश में
और छूना गगन में चांद को
पूछ आना किसी दिन हाल
सूरज का भी किरन की ओट से
और मुनासिब होगा ढूंढ आना
कोना -कोना समुद्र, पाताल का
पढ़ना भूगर्भ का चाप -ताप
विज्ञान के महति योग से
कि शोध जरूरी है यह अब
रहेगा मानव कहां -कहां?
धरती पुरखिन कहेगी फिर भी
दूंगी नई पीढ़ी मिट्टी की कोख से।
राजीव रंजन सहाय