चिंतन करें

अरुणिता
द्वारा -
0


मिलना हुआ अतिशय कठिन

अब शुद्ध वायु, शुद्ध जल।

क्यों कर रहे छल प्रकृति से

चिन्तन करें हम एक पल।


मन मोह लेती थी कभी

वह आज हरियाली कहाँ,

जिससे सुखद छाया मिली

उस नीम में डाली कहाँ,


अभिशप्त - से दिनरात हैं

दुःख दे रहा भयग्रस्त कल।


धरती से लेकर गगन तक

फैला हुआ काला धुआँ,

तालाब प्यासे मर रहे

रोता बहुत गहरा कुआँ,


कृत्रिम सुखों में डूबकर

क्या प्रश्न हो पाएँगे हल।


वन आग में हैं जल रहे

उसको बुझा पाएगा कौन.

नदियों में उठता झाग है

क्यों तंत्र ने साधा है मौन,


ऋतुचक्र है बिगड़ा हुआ

जीवन रहा है नित्य खल।

चिन्तन करें हम एक पल।


गौरीशंकर वैश्य विनम्र

117 आदिलनगर, विकासनगर

लखनऊ-226022

उत्तर प्रदेश 


एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn more
Ok, Go it!