झूठ सदा से

अरुणिता
द्वारा -
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झूठ सदा से

लगती आई तेज

देखने में सुनने में

संग बोलने में भी

पर बन ना पाई सच

आज तक वो


सच चमक-दमक से दूर

सहजता के पास होती है

झूठ गढ़ ना पाई स्वयं को

सच से परे होती है


सम्मान की भूखी

कपट की सहेली

होने को प्रतिष्ठापित

करतव दिखाती है

झूठ, सदा झूठ रहती

सच ना बन पाती है


झूठ के मायाजाल में

अनेक पाश होंगे

कदम कदम उसके

अनेक प्रयास होंगे

छुपने छुपाने के खेल में

अपना सबकुछ लगाती है

फिर भी एक दिन झूठ

पकड़ी जाती है


सच का दामन

कठिन भले ही

पर देता आत्मिक-सुख

झूठ सहज मनमोहक चाहे

देती है पर दुख

सच का संग निराला

झूठ का हो मुंह काला


व्यग्र पाण्डेय

कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी

राजस्थान-322201



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